________________
मौन की महिमा
६१
पद्य में मानव को चेतावनी दी गई है—अपने धन अथवा योवन का तनिक भी गर्व मत कर । देह छूटते ही यह सब तेरी आत्मा से विलग होने वाला है । इसके अलावा, जीवन के एक क्षण का भी भरोसा नहीं है कि पानी के बुलबुले के समान यह कब मिटने वाला है । अतः पूर्वकृत पुण्यों के उदय से जो मानव पर्याय रूपी सुअवसर तुझे मिल गया है इस पूँजी से अगले जन्म के लिए भी पुण्य का संचय कर । केवल संचित किये हुए पुण्य का कोष ही तेरे साथ जाएगा और तुझे लाभ पहुँचाएगा ।
कहने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य को मुक्तहस्त से दान करना चाहिए । हमारे भारत की पावन भूमि पर तो सदा से ही अत्यन्त विशाल हृदय वाले दानी महापुरुषों का जन्म होता रहा है । जिन्होंने अपने प्राण चाहे त्याग दिये किन्तु याचक को कभी द्वार से निराश नहीं लौटाया । राजा कर्ण के पास स्वयं इन्द्र ब्राह्मण के वेश में आए और उनके कवच और कुण्डल दान में माँगे । कर्ण जानते थे कि कवच और कुण्डल दे देने पर उनकी मृत्यु निश्चित है । वे यह भी जानते थे कि उन्हें मारने के लिये ही ये वस्तुएँ मांगी जा रही हैं और याचक स्वयं इन्द्र हैं जो वेश परिवर्तन कर आए हैं । लेकिन तब भी मन में मलाल लाए बिना उन्होंने उसी क्षण कवच और कुण्डल इन्द्र को बिना हिचकिचाहट के प्रदान कर दिये ।
यह है हमारी भारतीय संस्कृति, जिसमें दया, दान एवं परोपकार आदि अनेक सद्गुण समाये हुये हैं । सच्चे महापुरुष इन बातों से कभी मुँह नहीं मोड़ते चाहे इनके लिए उन्हें अपने प्राण ही क्यों न न्यौछावर करने पड़ें। वे भली-भाँति जानते हैं कि संसार के व्यक्ति तो मानव की किसी भी प्रकार की उन्नति को सहन नहीं कर सकते । प्रत्येक स्थिति में निंदा व अप्रशंसा करने के लिये उधार खाये बैठे रहते हैं । धर्म- क्रिया करने वाले को ढोंगी तथा साधु बन जाने वाले को भी पुरुषार्थहीन, निकम्मा और कायर कहने से नहीं चूकते । अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति से निष्कारण वैर रखना मनुष्य का स्वभाव है और केवल मनुष्य ही नहीं वह अन्य निर्दोष प्राणियों को भी कष्ट पहुँचाने में आगा-पीछा नहीं सोचता । एक श्लोक में कहा गया है :
मृग मीन सज्जनानां तृण जल संतोष विहित बृत्तीनाम् । लुब्धक, धीवर, पिशुना: निष्कारणवैरिणो जगति ॥
कहते हैं - मृग या हरिण जो कि घास खाता है, जंगल में रहता है, कभी किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं देता, कोई भी नुकसान नहीं पहुँचाता उसके पीछे भी मनुष्य धनुष-बाण लिये शिकारी बनकर घूमता रहता है ।
इसी प्रकार बेचारी मछली जो कि अपने आस-पास रहे हुये थोड़े या अधिक पानी में ही तैरती रहती है, अपने उसी संसार में मगन होकर घूमती
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org