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पुरुषार्थ से सिद्धि २५ हरे-हरे पत्तों, फूलों और फलों से लदा हुआ देखा । वृक्ष अत्यन्त सुन्दर दिखाई दे रहा था अत: राजा सिंहरथ ने अपने घोड़े पर बैठे बैठे ही हाथ बढ़ाकर वृक्ष से एक मंजरी तोड़ ली और आगे बढ़ गया।
राजा के पीछे उनका दल आ रहा था। जब दल के व्यक्तियों ने राजा को अ म-मंजरी तोड़ते हुए देखा तो उन सभी ने वृक्ष से मंजरियाँ. फल या पत्तं तोडना प्रारम्भ कर दिया । परिणाम यह हुआ कि थोड़ी ही देर में वह फला-फूला वृक्ष तहस-नहस होकर ठ-सा दिखाई देने लगा। ___ जब राजा निग्गई वन क्रीड़ा से लौटे तो उनकी दृष्टि पुनः उस वृक्ष पर पड़ी। वे यह देखकर हैरान रह गए कि थोड़ी ही देर में वृक्ष की क्या से क्या स्थिति हो गई ?
वृक्ष को देखते-देखते राजा को विचार आया- "इस वृक्ष के समान ही शरीर की शोभा भी अनित्य है. तथा किसी भी समय नष्ट हो सकती है, फिर मैं क्यों शरीर की शोभा बढ़ाने का निरर्थक प्रयत्न करू ? अच्छा हो कि मैं अपनी आत्मा को ही सँवार ल जिससे लाभ ही लाभ है।"
यह विचार आते ही राजा ने उसे कार्य रूप में परिणत करने का निश्चय कर लिया और अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया। तत्पश्चात्. उन्होंने संयम मार्ग ग्रहण किया तथा अन्त में केवल-ज्ञान की प्राप्ति कर संसार-मुक्त हुए। ___ कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति गुण-ग्राही होता है वह प्रत्येक व्यक्ति से और व्यक्ति ही नहीं, अन्य समस्त पदार्थों से भी कुछ न कुछ बोध हासिल करने का प्रयत्न करता है । वह यह नहीं देखता कि अमुक गुण किस पात्र में है । उसका लक्ष्य उद्यम करना होता है और उद्यम करने पर वह कभी निष्फल नहीं जाता, कुछ न कुछ लाभ अवश्य होता है।
पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषि जी महाराज ने भी उद्यम का बड़ा महत्त्व बताया है। कहा है
उद्यम धर्म सदा सुखदायक,
उद्यम थी सब दुःख मिटे है। उद्यम ज्ञान-ध्यान तप संयम,
__ उद्यम थी कर्म मैल छुटे है। उद्यम थी ऋषि सिद्धि मिले सब,
उद्यम श्रेष्ठ दरिद्र घटे है। तिलोक कहत हैं केवल' दंसण',
___ उद्यम थी शिव मेल पटे है। कवि का कथन है- अगर धर्म-क्षेत्र में व्यक्ति उद्यम करे तो वह अत्यन्त सुखकर होता है और समस्त दुखों से छुटकारा दिलाने वाला साबित होता है।
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