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अल्प भोजन और ग्यानार्जन
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
आजकल हम श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अट्टाईसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा के विषय में विचार कर रहे हैं । इस गाथा में क्रिया रुचि के स्वरूप की व्याख्या की गई है ।
गाथा में पहला शब्द दर्शन आया है । दर्शन का अर्थ है 'श्रद्धान्' । श्रद्धा को दृढ़ बनाने के लिये जो प्रयत्न किया जाता है, उसे 'क्रियारुचि' कहा गया है । दूसरा शब्द गाथा में आया है 'ज्ञान' । ज्ञानप्राप्ति के लिए अभ्यास करना भी क्रियारुचि ही है । जब तक मनुष्य की अभिरुचि ज्ञान की ओर नहीं होगी, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा, और ज्ञान के अभाव में आत्मा का कल्याण सम्भव नहीं होगा । इसीलिये हम ज्ञान के विषय में विस्तृत विचार कर रहे हैं । ज्ञान आत्मा का निजी गुण है तथा बही आत्मा को संसार मुक्त करने की शक्ति रखता है । अन्य किसी भी वस्तु में वह महान् क्षमता नहीं है । इसकी महत्ता के विषय में जो कुछ भी कहा जाय कम है । फिर भी विद्वान् अपने शब्दों में इसके महत्त्व को बताने का प्रयत्न करते हैं । एक श्लोक में कहा गया है :
तमो धुनीते कुरुते प्रकाशं,
शमं विधत्ते विनिहन्ति कोपम् ।
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तनोनि धर्म विधुनोति पापं,
ज्ञानं न कि कि कुरुते नराणाम् ॥
बताया गया है कि एकमात्र ज्ञान ही अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करके आत्मा में अपना पवित्र प्रकाश फैलाता है तथा उसके समस्त निजी गुणों को अलोकित करता है ।
ज्ञान ही आत्मिक गुणों को नष्ट करने वाले क्रोध को मिटाकर उसके स्थान पर समभाव को प्रतिष्ठित करता है तथा पापों को दूर करके आत्मा में धर्म की स्थापना करता है ।
अन्त में संक्षेप में यही कहा गया है कि ज्ञान मनुष्य के लिये क्या-क्या नहीं करता ? अर्थात् सभी कुछ वह करता है जो आत्मा के लिये कल्याणकारी है ।
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