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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
विचार आया। इस विचार के आते ही केवल भावना से ही शत्रुओं से युद्ध करने के कारण उन्हें सातवें नरक का बन्ध पड़ने का अवसर आ गया था, किन्तु कुछ क्षण पश्चात् ही जब उनका हाथ अपने मस्तक पर गया तो उन्हें अपनी मुनिवृत्ति का ध्यान आया और कुछ क्षणों पहले ही उदित हुई भावनाओं पर घोर पश्चाताप हुआ । पश्चाताप की भावना आते ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। ___ यह सब चमत्कार केवल भावनाओं का ही था। उन्होंने शत्रुओं से युद्ध किया नहीं था किन्तु मात्र विचारों से हो सातवें नरक का और उन भावनाओं के स्थान पर पुनः पश्चाताप की भावनाओं के पैदा होते ही मोक्ष का मार्ग पाया। __तो मैं आपको बता यह रहा था कि भोजन में दो ग्रास कम खाने का महत्त्व अधिक नहीं है, महत्त्व है खाद्य पदार्थों के प्रति रहो हुई आसक्ति के कम होने का । आसक्ति और लालसा का कम होना ही वास्तव में आंतरिक तप है। तपस्या और आत्मशुद्धि
हमारे जैनागमों में तपश्चर्या का बड़ा भारी महत्त्व और विशद् वर्णन किया गया है तथा आत्म-शुद्धि के साधनों में तप का स्थान सर्वोपरि माना गया है। तपश्चरण साधना का प्रमुख पय है । यह आन्तरिक (आभ्यंतर) और बाह्य दो भेदों में विभाजित है। प्रत्येक साधक तभी अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकता है, जबकि उसका जीवन तपोमय बने ।
तपस्या के द्वारा आत्मा का समस्त कलुष उसी प्रकार धुल जाता है, जिस प्रकार आप साबुन के द्वारा अपने वस्त्रों को धो डालते हैं । दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार अग्नि में तपकर स्वर्ण निष्कलुष हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या की आग में आत्मा का समग्र मैल भी भस्म हो जाता है तथा अत्मा अपनी सहज ज्योति को प्राप्त कर लेती है । तपस्या से मनुष्य अपनी उच्च से उच्च अभिलाषा को पूर्ण कर सकता है । कहा भी है :
यद दूरंयद दुराराध्यं,
यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं,
तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ जो वस्तु अत्यन्त दूर होती है, जिसकी आराधना करना अत्यन्त कठिन दिखाई देती है तथा जो हमारी दृष्टि से बहुत ऊँचाई पर जान पड़ती है और उसे प्राप्त करना हमारी क्षमता से परे मालूम होता है । वह वस्तु भी तप के
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