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निद्रा त्यागो! ४१
मिथ्यादृष्टि का ज्ञान इसलिये भी अज्ञान कहलाता है कि वह ज्ञान के फल को कभी प्राप्त नहीं कर पाता । ज्ञान का फल है पापपूर्ण कार्यों से विरत हो जाना तथा आत्म-कल्याणकारी कार्यों में लग जाना । किन्तु मिथ्यादृष्टि प्राणी ऐसा नहीं कर पाता । वह पापकार्यों में अधिकाधिक लिप्त होता जाता है तथा पतन के मार्ग पर बढ़ता है। ऐसी स्थिति में उसका ज्ञान सम्यक्ज्ञान कसे कहला सकता है ?
पूज्यवाद श्री अमी ऋषिजी महाराज ने भी मिथ्यावृष्टि के लक्षण बताते हुए कहा है :
करम आधीन मूढ़ विकल अनादिहु से,
____ भयो न प्रकाश ज्ञान, आतम परम को। जो जो पुद्गल के संयोग दिशा चेतन को,
सोही निज मानत न मानत भरम को । ज्ञानादिक गुण से जो होय के विमुख रहे,
जाणे पुद्गल रूप आतम धरम को। ऐसो घट विभाव अज्ञान बसी रह्यो ताके,
कहे अमीरिख वंश बढ़े है करम को ।। मिथ्यादृष्टि जीव अपनी मूढ़ता के कारण अनादि काल से कर्मों के वश में पड़ा हुआ सदा विकलता का अनुभव करता रहा है। उसकी आत्मा में कभी भी ज्ञान का आलोक नहीं हुआ। बाह्य पदार्थों के संयोग से होने वाले क्षणिक सुख और दुःख को ही वह आत्मा का सुख-दुःख मानता रहा है तथा आत्मिक गुणों से विमुख बना रहा है । आत्मा में इस प्रकार की विभाव दशा बनी रहने के कारण उसकी कर्म परम्परा समाप्त होने के बजाय बढ़ती चली जा
बाह्य पदार्थों के संयोग से सुख और उनके वियोग से दुःख का अनुभव करना मढ़ता है। कभी-कभी इसका परिणाम अत्यन्त भयंकर और महान् कर्मबन्धन का कारण बनता है। उदाहरणस्वरूप-पूना में एक बार एक गराब व्यक्ति ने हिम्मत करके रेस में दांव लगा दिया। भाग्यवश उसका घोड़ा जीत गया और उस दरिद्र को पन्द्रह हजार रुपये नकद मिल गये । ___ जीवन में उसने हजारों तो क्या सैकड़ों रुपये भी कभी एक साथ नहीं देखे थे । अतः पन्द्रह हजार रुपयों का ढेर देखकर वह खुशी के मारे बावला-सा हो गया और- "इतने सारे रुपये......।" ये शब्द मुंह से निकालते-निकालते ही खत्म हो गया।
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