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पुरुषार्थ से सिद्धि ३१ शरीर की उत्तमता आत्मा के सद्गुणों से तथा उसका पवित्रता से जानी जा सकती है। ___तो जो व्यक्ति आत्मा की कीमत जान लेने हैं वे प्रत्येक कार्य आत्मा को कर्म-बन्धनों से मुक्त करने के लक्ष्य को लेकर करते हैं । वे पूण्यशील पुरुष अनेकानेक पुण्यों के फलस्वरूप पाए हुए मानव-जीवन को निरर्थक नहीं जाने देते । उनका विश्वास होता है कि अगर पूर्वकृत पुण्य को इसी जीवन में भोगकर समाप्त कर दिया और नवीन पुण्य का तथा धर्म का संचय न किया तो अनन्तकाल तक उनकी आत्मा को पुनः संसार-भ्रमण करना पड़ेगा तथा नरक, निगोद तथा तिर्यंच गति की दुस्सह और भीषण यातनाएँ भुगतनी पड़ेगी। अगर मानव-जीवन रूपी यह अवसर एक बार हाथ से चला गया तो इसका फिर से प्राप्त करना कठिन ही नहीं वरन् असम्भव हो जायेगा। उन महामानवों की दृष्टि में यह जीवन और जीवन में भोगे जाने वाले सुख एक मधुर स्वप्न से अधिक महत्त्व नहीं रखते जो निद्रा भंग होते ही विलीन हो जाते हैं। पूज्यप द श्री अमीऋषि जी ने अपने एक पद्य में बड़े सुन्दर ढंग से यही बात बताई है। कहा हैएक निरधन नर देख्यो है सुपन रेन,
__तामें एक धम को भंडार तिन पायो है। बांधी है हवेली सार देश देश गाम-गाम,
कीनी है दुकान अति वणज चलायो है ॥ पुर में आदरमान खमा-खमा कहे सहु,
चाकर अनेक नारी संग में लुभायो है। जाग्यो तब निरधन मिलत न पूरो अन्न,
अमीरिख कहे ऐसो संसार कहायो है ॥ इस संसार का रूप कवि ने कैसा बताया है ? जैसे एक निर्धन व्यक्ति क्षुधा, तृषा, शीत व ताप आदि से व्याकुल हुआ भी किसी समय स्वप्न में देखता है कि उसे धन का एक विशाल कोश प्राप्त हो गया है और उसके द्वारा वह केवल अपने गांव में ही नहीं अपितु ओक गांवों और शहरों में बड़ी-बड़ी हवेलियां चुनना रहा है। बड़े भारी पैमाने पर उसने दुकानें खोली हैं और व्यापार चालू कर दिया है। इतना ही नहीं प्रत्येक व्यक्ति से उसे अ.दर-सम्मान मिलता है तथा नौकर-चाकरों की सेना प्रतिपल उसका हुक्म बजाने के लिये तत्पर है साथ ही रम्भा के समान सुन्दर और सर्वगुण-सम्पन्न पत्नी के साथ भोग-विलास करते हुये समय व्यतीत हो रहा है ।
किन्तु उसका वह सुखमय संसार कितनी देर तक उसे खुशियां प्रदान करता है ? केवल नींद के टूटने तक ही तो? निद्रा-भंग होते ही वह अपनी घोर दरिद्रावस्था में अपने आपको पाता है तथा पुनः उससे जूझने लगता है।
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