________________
३२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
इसलिये ज्ञानी पुरुष इस क्षणभंगुर जीवन की अनित्यता को जान लेते हैं तथा समझ लेते हैं कि यह संसार स्वप्नवत् है तथा जीवन समाप्त होते ही न धन उनके साथ जाता है और अपने जिन सम्बन्धियों के लिये वह नाना प्रकार के पाप-कर्म करता है न वे ही रंच मात्र भी उसके सहायक बनते हैं। साथ अगर कोई देने वाला है तो एकमात्र धर्म ही। और इसलिये जीवन में शुभ-कर्मों का करना आवश्यक है। शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है :
कतारमेव अणुजाइ कम्म" अर्थात्-कर्म अपने कर्ता का ही अनुगमन करते हैं । बन्धुओं, हमें शास्त्रों के इन विधानों की ओर दृष्टिपात करते हुए संभल जाना है तथा यह विश्वास रखना है कि अपने कृतकर्मों का फल हमें ही अर्थात् हमारी आत्मा को ही भोगना पड़ेगा। ___ अगर यह विश्वास हमारे हृदय में जम जाता है तो निश्चय ही हमारा उद्यम सत्कर्मों में लग सकेगा तथा हमारा मन मोह, आसक्ति और विकारों से बचता हुआ धर्माराधन की ओर उन्मुख होगा और तब संसार की कोई भी शक्ति सही दिशा में किये जाने वाले हमारे उद्यम को सफल करने में समर्थ नहीं हो सकेगी।
आशा है, मेरे आज के कथन का सारांश आप समझ गये होंगे। वह यही है कि संसार के प्रत्येक व्यक्ति का मनोरथ उद्यम करने पर ही पूर्ण हो सकता है बिना उद्यम या पुरुषार्थ के किसी भी कार्य की पूर्ति सम्भव नहीं है।
किन्तु उद्यम करने से पूर्व व्यक्ति को यह निश्चय भी भली-भाँति कर लेना चाहिये कि किस दिशा में उद्यम करने से उसकी आत्मा का कल्याण हो सकेगा। क्योंकि अगर उसका प्रयास गलत दिशा में होगा तो उस उद्यम से लाभ के बदले महान् हानि उठानी पड़ेगी अर्थात उसकी आत्मा को इस जन्म के पश्चात् भी दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकेगा। आत्मा के कल्याण की सही दिशा धर्माराधना करना है और इसलिये मुमुक्षु को दान, शील, तप, भाव तथा त्याग-प्रत्याख्यान आदि शुभ क्रियाओं को दृढ़ और सफल बनाने में अपनी सम्पूर्ण मानसिक एवं शारीरिक शक्ति लगानी चाहिये तभी वह मोक्ष प्राप्ति के अपने सर्वोत्कृष्ट मनोरथ को पूर्ण कर सकेगा।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org