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कल्याणकारिणी क्रिया १९ पर चलते-चलते जो विचलित हरेक पथ-भ्रष्ट हो गया हो, उसकी संगति वजित की गई है । धर्म-भ्रष्ट व्यक्ति की संगति करने पर उसके कुछ न कुछ दोष आए बिना नहीं रह सकते । कवि वृन्द ने भी कुसंगति को अत्यन्त हानिकारक माना है । कहा है--
आप अकारज आपनो, करत कुसंगति साप ।
पांय कुल्हाड़ा देत है, मूरख अपने हाथ ॥ जो व्यक्ति दुर्जनों की संगति करता है, ऐसा मानना चाहिये कि वह अपने परों में कुल्हाड़ी मारकर अपनी ही हानि करता है।
वस्तुन: संगति का असर हुए बिना कदापि नहीं रह सकता। इसीलिए कवि वर रहिम ने भी अपने विचार प्रकट किये हैं -
रहिमन उजली प्रकृति को नहीं नीच का संग
करिया बासन कर गहे, कारिख लागत अंग ।। उजली प्रकृति अर्थात् उत्तम स्वभाव एवं गुणों वाले व्यक्ति को कभी भी निकृष्ट विचारों वाले व्यक्ति की संगति नहीं करनी चाहिये । अन्यथा जिस प्रकार पूरी सावधानी से भी कालिख लगे बर्तन को हाथ में उठाने से थोड़ीबहुत कालिख हाथों में लग ही जाती है. उसी प्रकार दुगुणी व्यक्ति के संसर्ग में रहने से कुछ न कुछ अवगुण सज्जन व्यक्ति में आ ज ते हैं।
यही कारण है कि हमारे धर्म-ग्रन्थ धर्म-भ्रष्ट व्यक्तियों की संगति मुमुक्ष के लिये वर्जित मानते हैं तथा उनकी संगति से परहेज करने की आज्ञा देते हैं। ___ दूसरा परहेज बताया गया है-- "कुतीर्थीनी संगत बरजे ।" अश्रद्धालु व्यक्ति का समागम भी निषिद्ध है । जिस व्यक्ति के हृदय में सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं है वह अपने ससर्ग में रहने वाले अन्य व्यक्ति को भी नाना प्रकार के कुतर्क करके तथा अपने वाक्जाल में उलझा करके अश्रद्धालु बमाने का प्रयत्न करेगा तथा उसकी श्रद्धा को ढीली बना देगा। अतः ऐसे व्यक्तियों की संगति से परहेज करना ही आत्मार्थी के लिये उचित है। ___ तो बंधुओं, मैं आपको यह बता रहा था कि आत्म-कल्याण के इच्छुक व्यक्ति में क्रिया-रुचि होनी चाहिये। किन्तु जैसा कि मैंने अभी बताया था, क्रिया अंधी होती है और उसका मार्ग-दर्शन ज्ञान और श्रद्धा ही कर सकते हैं । अतः जब तक मनुष्य की श्रद्धा मजबूत नहीं होती उसका ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं कहलाएगा और वह क्रिया को सही मार्ग नहीं बता सकेगा। इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति आत्मा के कष्टों का नाश करने के लिए अभी-अभी बताई गई दोनों दवाओं का सेवन करे तथा दोनों ही प्रकार के परहेजों का ध्यान रखे।
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