Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथम परिच्छेद
अर्थ - चालते पर्वतनिकी लीला धरें ऐसे हस्ती, अर जीत्या है पवनका वेग जिनमें ऐसे घोड़े, अर इन्द्रके पयादेसमान पयादे, अर सूर्य के रथके तुल्य रथ ॥ ६५॥
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योषाः स्वशोभाजितदेवयोषाः, निलिपवासप्रतिमा निवासाः । अनन्यलभ्या धनधान्यकोशाः, भवंति धर्मेण पुराजितेन ॥ ६६ ॥
अर्थ - बहुरि अपनी शोभाकरि जीती हैं देवांगना जिननें ऐसी स्त्री, अर इन्द्रके मंदिर समान महल, अर औरनिकरि न पावने योग्य ऐसे धन धान्यनिके भण्डार पूर्वोपार्जित धर्मकरि होय हैं ॥ ६६॥
परेsपि मावा भुवने पवित्रा, भवंति पुण्येन विना जनस्य । विनामृणालैः क्कचनापि दृष्टाः, संपद्यमाना न पयोजखण्डाः । ६७ ।
अर्थ - लोकविषें और भी जे पदार्थ हैं ते पुण्यविना जीवकें न होय हैं जैसे मृणाल जो कमलकी जड़ तिनविना कमलानिके वन कभी प्राप्त भए न देखे ॥६७॥
स्वपूर्वलोकानुचितोऽपि धर्मों, ग्राह्यः सतां चितितवस्तुदायी । पप्रार्थयन्ते न किमीश्वरत्वं, स्वजात्ययोग्यं जनता सदापि । ६८ ।
- अपने पूर्वलोक जे पितादिक तिनके अनुचित भी धर्म सत्पुरुafrat वांछित वस्तुका देनेवाला ग्रहण करना योग्य है, जैसें अपनी जातिके अयोग्य जो ईश्वरपना ताहि लोक कहा अतिशयकरि सदा न चाहे है ? अपितु चाही है ।
मावार्थ- कोऊ कहै हमारे कुलमें जिनधर्म नाहीं हम कैसें ग्रहण करें ताकू कहैं हैं - जो अपने कुलमें जिनधर्म नांही तो भी नवीन ग्रहण करना योग्य है । जैसें कोउकौं नवीन राज्य मिलै तौ कहा ग्रहण न करें ? ॥ ६८ ॥
त्यजंति वंशानतमप्यवद्यं संप्राप्य पुण्यं जनतार्चनीयम् । कुष्टं कुलायातमपि प्रवीणः, कल्पत्वमासाद्य परित्यजंति ॥ ६६ ॥
धर्म- जैसें सुन्दर शरीर निरोगपनांकू पायकरि प्रवीण पुरुष कुल
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