Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
मर्थ-घातिया कर्मनिके क्षयतें उपज्या जो निर्मल केवलज्ञान ताके प्रकाश करि प्रकाशे हैं सर्व पदार्थ जिनने अर तीनलोकके नाथ जे इंद्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती तिन करि पूजित हैं चरणकमल जिनके ऐसे जे जिनेन्द्रचन्द्र तीर्थकर भगवान हैं ते धर्मकरि होय है ॥६१॥ पाराध्यमानस्त्रिदशरनेकविराजते स्वः प्रतिबिंबकेर्वा । धर्मप्रारदेन निलिपराजः, सुरांगनावक्त्रसरोजमृङ्गः ॥६२॥ ____ अर्थ-धर्मके प्रसादकरि अपने प्रतिबिंब समान अनेक देवनि करि सेव्यमान देवनिका राजेन्द्र सौह है, कैसा है इन्द्र देवांगनानिके मुख कमलनि विर्षे भृङ्गसमान है।
भावार्थ- इन्द्रपद धर्म करि मिले है ऐसा जानना ॥६२॥ द्वात्रिंशदुर्वीशस्हनमूद्ध प्रसूनमालापिहिताघ्रिपमः । धर्मेण राज्यं विदधाति चकी, विलम्बमानस्त्रिदशेशलीलाम् ।६३।
ol-धर्मकरि चक्रवर्ती राज्यको धारे हैं, कैसा है चक्रवर्ती बत्तीस हजार राजानिके मस्तकनिकी जे पुष्पनिकी माला तिनकर मिले हैं चरणकमल जाके अर इन्द्रकी लीला को धरे ऐसा चक्रवर्ती धर्म करि होय है ॥५३॥ मनोमवानांतविदग्धरामा, कटानलक्षीकृतकांतकायः । दिगंगनाव्या विशुद्ध कीतिक राजा भवति प्रतापी ॥६४॥
अर्थ-कामकरि भरी अर चतुर जे स्त्री तिनके कटाक्षनि करि निसानारूप किया है दैदीप्यमान शरीर जाका अर दिशारूप स्त्रीनि विर्षे व्यापी है निर्मल कीर्ति जाकी ऐसा प्रतापी राजा धर्म करि होय है ॥६४॥
मतंगजा जंगमर्शललीलास्तुरंगमा, निजितवायुवेगाः। पदातयः शक्रस्वातिकल्पाः, रथा विवस्वद्रथसन्निकाशाः ॥६५॥