Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू.१६ तेजस्कायिकमेदनिरूपणम् २३१ वर्णादेशेन गन्धादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्राग्रशो विधानानि संख्येयानि योनि प्रमुखशतसहस्राणि, पर्याप्तकनिश्रया अपर्याप्तकाः व्युत्क्रामन्ति, यत्र एकस्तत्र निपमात् असंख्येयाः। ते एते बादरतेजस्कायिकाः। ते एते तेजस्कायिकाः॥१६॥
टीका-अथ तेजस्कायिकान् प्रतिपादयिषुराह-से किं तं तेउकाइया ?' 'से' -अय, 'किं तं' के ते कतिविधा इत्यर्थः, तेजस्कायिकाः प्रज्ञप्ता ? भगवानाह'तेजकाइया दुविहा पन्नत्ता' तेजस्कायिका द्विविधाः-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः, (जे ते) जो (अपज्जत्तगा) अपर्याप्त हैं (ते णं) वे (असंपत्ता) अप्राप्त हैं (तत्थ णं) उनमें (जे ते) जो (पज्जत्तगा) पर्याप्त हैं (एएसि) इनके (वण्णादेसेणं) वर्ण की अपेक्षा से (गंधादेसेणं) गंध की अपेक्षा से (रसादेसेणं) रस की अपेक्षा से (फासादेसेणं) स्पर्श को अपेक्षा से (सहस्सग्गसो) हजारों (विहाणाई) भेद हैं (संखेज्जाइ) संख्यात (जोणियप्पमुहसयहस्साई) लाख योनियां हैं (पज्जत्तगणिस्साए) पर्याप्तक के आश्रय से (अपज्जत्तगा) अपर्याप्तक (वक्कमंति) उत्पन्न होते हैं (जत्थ) जहां (एगो) एक है (तत्थ) यहां (नियमा) नियम से (असंखिज्जा) असंख्यात हैं (से तं बायर तेउकाइया) यह बादर तेजस्कापिकों की प्ररूपणा है (से तं तेउकाइया) यह तेजस्कायिकों की प्ररूपणा पूरी हुई ॥१६॥
टीकार्थ-अब तेजस्कायिकों की प्ररूपणा करने की इच्छा से कहते हैं-तेजस्कायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? भगवान् उत्तर देते हैंतेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं-सूक्ष्म
मामा (जे ते) २ (अप्पज्जत्तगा) मस्ति छ (तेण) तेया (असंपत्ता) मप्राप्त छ. (तत्थ ण) तेसोमा (जे ते) । (पज्जत्तगा) पति छ.
(एएसि) तेमाना (वण्णादेसेण) पनी अपेक्षाये (गंधादेसेण) अधिनी मपेक्षाये (रसादेसेण) २सनी मपेक्षाये (फासादेसेण) २५शनी अपेक्षाये (सहस्सग्गसो) । (विहाणाई) मे छ (संखेज्जाइं) संन्यात (जोणियप्पमुहं सहस्साई) सास योनिमा छ (पज्जत्तग णिस्साए) पर्याप्त माश्रयथी (अपज्जत्तगा) २५५र्यात (बस्कमंति) उत्पन थाय छे (जत्थ) न्या (एगो) मे छ (तत्थ) त्यां (नियमा) नियमेथी (असंखिज्जा) अध्यात छ (से तं बायर तेउ काइया) २॥ मा६२ ते४२४यिोनी प्र३५॥छे (से त्तं तेउकाइया) ॥ २४. ચિની પ્રરૂપણું થઈ છે સૂ. ૧૬ છે
ટીકાથ-હવે તેજસ્કાયિકની પ્રરૂપણું કરવાની ઈચ્છાથી કહે છેતેજસ્કાયિક જીવ કેટલા પ્રકારના છે?
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧