Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 854
________________ प्रज्ञापनास्त्रे कल्याणकप्रवरवस्त्रपरिहिताः, कल्याणकावरमाल्यानुलेपनधराः भास्वरवोन्दयः प्रलम्बवनमालाधराः दिव्येन वर्णगन्धादिना दशदिश उद्योतयन्तः प्रभासयन्तः, ते खलु तत्र स्वेषां स्वेषाम् असंख्येयभौमेयनगरावासशतसहस्रादीनाम् आधिपत्यादिकं कुर्वन्तः पालयन्तो महताऽहतनाटयगीतवादिततन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुपवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः विहरन्ति-आसते इत्याशयः, अथ तेषामिन्द्रौ सन्निहितसामन्या नामको प्ररूपयति-'सनिहियसामाणा इत्थ दुवे अणवनिंदा' सन्निहितसामान्यौ अत्र उपर्युक्ताणपर्णिकस्थानेषु द्वौ अणपर्णिकेन्द्रौ 'अणवन्नियकुमाररायाणो' अणपणिककुमारराजानौ 'परिवसंति' परिवसतः, तौ च 'महिड्डिया' महर्टिकौ महाद्युतिको महायशसौ महाबलौ महानुभागौ, महासौख्यौ, हारविराजितवक्षसौ, इत्यादि पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टौ बोध्यौ, ‘एवं जहा कालमहाकालाणं दोहंपि दाहिणिल्लाणं उत्तरिल्लाणं य भणिया' एवं-पूर्वोक्तरीत्या, यथा कालमहाकालयोः द्वयोरपि दाक्षिणात्यौत्तराहयोश्च भणिताः-उक्ताः 'तहा सन्निहियसामाणाणंपि' तथावस्त्र पहनने वाले, कल्याणकारी उत्तम माला और अनुलेपन को धारण करने वाले, देदीप्यमान शरीर वाले और लम्बी वनमाला के धारक होते हैं । वे अपने दिव्य वर्ण एवं दिव्य गंध आदि से दशों दिशाओं को उद्योतित और प्रभासित करते हुए अपने-अपने असंख्यात लाख भौमेयनगरावासों का अधिपतित्व, स्वामित्व, अग्रेसरत्व आदि करते हुए तथा उनका पालन करते हुए, नृत्य, गीत, कुशलवादकों द्वारा वादित वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि वाद्यों की निरन्तर होने वाली ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगते हुए विचरते हैं अर्थात् रहते हैं। अब उनके सन्निहित और सामान्य नामक इन्द्रों की प्ररूपणा કલ્યાણકારી ઉત્તમ વસ્ત્ર પહેરવાવાળા કલ્યાણ કારી ઉત્તમ માલા અને અનુ. લેપનને ધારણ કરનારા દેદીપ્યમાન શરીરવાળા અને લાંબી વનમાળાઓના ધારક હોય છે. તેઓ પિતના દિવ્ય વર્ણ તેમજ દિવ્ય ગંધ આદિથી દશે દિશાઓને ઉદ્યોતિત અને પ્રભાસિત કરતા રહિને પિતપિતાના અસંખ્યાત લાખ ભૌમેય નગરવાસનું અધિપતિત્વ, સ્વામિત્વ. અને અગ્રેસરત્વ આદિ કરતા થકા તથા તેમનું પાલન કરતા, નૃત્ય ગીત, કુશલ વાદિકે દ્વારા વાદિત વીણું તલ તાલ ત્રુટિત, મૃદંગ આદિ વાદ્યોના નિરન્તર થનારા વનિની સાથે દિવ્ય ભોગો પગ ભોગવતા થકા વિચરે છે અર્થાત્ રહે છે. હવે તેમના સન્નિહિત અને સામાન્ય નામક ઈદ્રોની પ્રરૂપણ કરવા માં શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧

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