Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1002
________________ ९८८ प्रज्ञापनासूत्रे रत्नः अष्टैव चाङ्गुलानि साधिकानि । एषा खलु सिद्धानां जघन्यावगाहना भणिता || १५६ ॥ अवगाहनाः सिद्धानां भवत्रिभागेन भवन्ति परिहीणाः । संस्थान मनित्थंस्थं जरामरणविप्रमुक्तानाम् ॥१५७॥ यत्र च एकः सिद्धस्तत्र अनन्ता भक्षयविमुक्ताः । अन्योन्य समवगाढाः स्पृष्टाः सर्वेऽपि लोकान्ते || १५८ ॥ स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेश नियमतः सिद्धाः । तेऽपि च असंख्येयगुणा देशप्रदेशै ये स्पृष्टाः ॥ १५९ ॥ अशरीराः जीवघनाः उपयुक्ताः दर्शने ज्ञाने च । ( जहन्न ओगाहणा भणिया) जघन्य अवगाहना कही है ॥ १५६ / ( ओगाहणा सिद्धा भवत्तिभागेण होति परिहीणा) सिद्धों की अवगाहना चरम शरीर से विभाग कम होती है (संठाणं) संस्थान ( अणित्थंध) अनियत प्रकार का ( जरामरणविष्यमुक्काणं) जरा और मरण से रहितों का ॥१५७॥ ( जत्थ य एगो सिद्धो) जहां एक सिद्ध है (तत्थ अनंता भवक्खय विमुका) वहां भवक्षय से मुक्त अनन्त जीव होते हैं (अन्नोनसमोगाढा) परस्पर में अवगाहना वाले ( पुट्ठा सवे वि लोगंते) सभी लोकान्त से स्पष्ट होते हैं ॥ १५८ ॥ (फुसइ) स्पर्श करता है (अणते सिद्धे) अनन्त सिद्धों की (सव्व परसेहिं) समस्त प्रदेशों से (नियमसो) नियम से (सिद्धा) सिद्ध (ते वि य असंखिज्जगुणा ) वे सिद्ध असंख्यातगुणा हैं (देसपएसेहिं जे पुट्ठा) जो देश और प्रदेशों से दृष्ट हैं ।। १५९॥ ( असरीरा) शरीर से रहित (जीवघणा) सघन जीव प्रदेश वाले ( ओगाहणाइ सिद्धा भवत्ति भागेण होंति परिहीणा) सिद्धोनी अवगाहुना थरभ शरीरथी भणु लाग सोछी होय छे (संठाणं) संस्थान (अणित्थंथं) अनियत प्रारना (जरामरणविप्पमुक्काणं) ४२ भरणुथी रहिताना ॥ १५७ ॥ ( जत्थ य एगो सिद्धो ) ल्यां मे सिद्ध छे (तत्थ अनंता भवक्खय विमुक्का ) त्यां लवक्षयथी भुक्त अनन्त लव होय छे (अन्नोन्न समोगाढा) परस्परभां अवगाडुनावाणा (पुट्ठा सब्वे वि लोगते) ते अधा बोअन्तथी स्पृष्ट થાય છે ! ૧૫૮ ના (फुसइ) स्पर्श रे छे (अणते सिद्धे) अनन्त सिद्धोना (सव्यप एसेहिं ) समस्त प्रदेशोथी (नियमसो) नियमथी (सिद्ध) सिद्ध (ते वि य असंखिज्ज गुणा ) ते सिद्धी असण्यात गा छे (देस पएसेहिं जे पुट्ठा) ने देश भने प्रदेशोथी સ્પષ્ટ છે ! ૧૫૯ ૫ ( असरीरा) शरीर रडित ( जीव घणा ) सघन व प्रदेशवाजी (उबउत्ता શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧

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