Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२२ पिशाचादिव्यन्तरदेव स्थानानि
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सन्निहितसामान्ययोरपि भणितव्याः कथितव्या इत्यर्थ तेषाञ्च व्यन्तरावान्तराष्ट्रजातिभेदानां संग्राहकगाथामाह - 'संगहणीगाहा' संग्रहणीगाथा - 'अणवन्निय पणव न्निय इसिवाइय- भूयवाइया चेव । कंदिय महाकंदिय कोहंडापर्यंग चेव ॥ १४३ ॥ अणपर्णिक पणपर्णिक ऋषिवादित भूतवादिताचैव । स्कन्दिक महास्कन्दिक कूष्माण्डाः पतंगत चैत्र, अथ तेषामेवेन्द्र संग्राहकगाथाद्वयमाह 'इसे इंदा' इमेवक्ष्यमाणाः इन्द्रा :- संनिहिया सामाणधायविधाए इसी इसिवाले । ईसर महेसरा हवइ सुवच्छे विसाले य ॥ १४४ । सन्निहिताः सामान्याः धातोकरते हैं-इन अणपणिक देवों के स्थानों में सन्निहित और सामान्य नामक दो अणपर्णिकेन्द्र, अणपर्णिक राजा हैं । ये दोनों इन्द्र महर्द्धिक महायुतिक, महायशस्वी, महाबल, महानुभाग और महासुख से सम्पन्न हैं। उनके वक्षस्थल हार से सुशोभित रहते हैं, इत्यादि पूर्वोक्त सभी इन्द्रों के विशेषण यहां भी समझ लेना चाहिए। जैसे काल और महाकाल दक्षिण और उत्तर दिशा के पिशाचेन्द्रों के विषय में कहा है, उसी प्रकार सन्निहित और सामान्य नामक इन्द्रों के विषय में भी कहना चाहिए ।
व्यन्तरों के अवान्तर जाति के भेदों की संग्राहिका गाथा करते हैं(१) अणपर्णिक (२) पणपर्णिक (३) ऋषिवादित (४) भूतवादित (५) efore (६) महादित (७) कूष्माण्ड और (८) पतंग ये आठ व्यन्तरों के अवान्तर भेद हैं ||४३||
इनके इन्द्रों के नामों की संग्रहणी गाथा इस प्रकार है - (१) सन्निहित ( २ ) सामान्य (३) धात (४) विधात (५) ऋषि (६) ऋषिवा (पा) આવે છે–આ અણુપણિક દેવેના સ્થાનેામાં સન્નિહિત અને સામાન્ય એ નામના એ અણુપણિ કેન્દ્ર અણુપણિક રાજા છે. આ બન્ને ઇન્દ્ર મહર્ધિક, મહાદ્યુતિક મહાયશસ્વી, મહાખલ મહાનુભાગ અને સુખથી સંપન્ન છે. તેમનુ વક્ષસ્થલ હારથી સુÀાભિત રહે છે. વિગેરે પૂર્વોક્ત બધા ઇન્દ્રોના વિશેષણ અહીં પણ સમજી લેવાં જોઇએ. જેમ કાલ અને મહાકાલ દક્ષિણ અને ઉત્તર દિશાના પિશાચેન્દ્રોના વિષયમાં કહ્યું છે—એજ પ્રકારે સન્નિહિત અને સામાન્ય નામક ઇન્દ્રોના વિષયમાં પણ કહેવુ જોઇએ.
વ્યન્તાના જાતિભેદેની સંગ્રાહિકા ગાથા કહે છે (૧) અણુપણિ ક (२) याशुयाणि (3) ३विवाहित (४) भूतवाहित (4) सुन्हित (६) महासुन्दित (૭) ઇશ્વર કૂષ્માંડ અને પતંગ આ વ્યન્તાના અવાન્તર ભેદ્દો છે. ૫૪૩ા તેના
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શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
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