Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 976
________________ ९६२ प्रज्ञापनास्त्रे लण्हा, घट्टा, मट्टा, नीरया, निम्मला, निष्पंका, निक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया सउज्जोया, पासाईया, दरिसणि ज्जा अभिरुवा पडिरूवा, एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु वि लोयस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति, सव्वे समिडिया, सव्वे समबला, सव्वे समाणुभावा महासुक्खा, अनिंदा, अप्पेसा अपुरोहिया अहर्मिंदा, नामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो ! ॥ सू० २८ ॥ छाया— कुत्र खलु भदन्त ! अधस्तन ग्रैवेयकाणाम् पर्याप्ता पर्याप्तानात् स्थानानि प्रज्ञप्तानि ! कुत्र खलु भदन्त ! अघस्तनयैवेयका देवाः परिवसन्ति ? गौतम ! आरणाच्युतयोः कल्पयोरुपरि यावत् ऊर्ध्वम् दूरम् उत्पत्य अत्र खलु अस्तन ग्रैवेयकाणां देवानां त्रयो ग्रैवेयकविमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः, प्राचीन प्रतीचीनायताः उदीचीन दक्षिण विस्तीर्णाः प्रतिपूर्णचन्द्र संस्थानसंस्थिताः, अर्चिग्रैवेयकादि स्थानों की वक्तव्यता शब्दार्थ - ( कहि णं भंते ! हिडिमगेविजगाणं पज्जतापज्जन्त्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?) हे भगवन् अधस्तन पर्याप्त अपर्याप्त ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? ( कहि णं भंते ! हिट्टिमगेविजगा देवा परिवसंति ?) हे भगवन् ! अधस्तन ग्रैवेयकदेव कहां निवास करते हैं ? (गोयमा) हे गौतम! (आरणच्चुयाणं कप्पाणं उपिं ) आरण- अच्युत कल्पों के ऊपर (जाव) यावत् (उ) ऊपर (दूरं) दूर (उप्पइन्ता) जाकर ( एत्थर्ण) यहां (हिट्ठिमगेविजगाणं देवाणं) अधस्तन ग्रैवेयक देवों के (तओ) तीन (गेविज्जग विमाणपत्थडा) ग्रैवेयक विमानों के प्रस्तट- पाथडे ત્રૈવેયકાદિસ્થાનાની વક્તવ્યતા शब्दार्थ - (कहिणं भंते ! हिठ्ठिम गेविज्जगाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?) હે ભગવન્ ! અધસ્તન પર્યાપ્ત-અપર્યંત ચૈવેયક દેવાના સ્થાન કયાં કહ્યાં છે? (कहि णं भंते ! हिट्ठिमगेविज्जगा देवा परिवसंति ?) हे भगवन् ! अधस्तन ग्रैवेय द्वेव श्र्यां निवास १रे छे ? ( गोयमा ?) हे गौतम! ( आरणच्चुयाणं कप्पाणं उपिं) भारएणु-अभ्युत उपना यर (जाव) यावत् (उट्ठ) (५२ (दूरं) ३२ ( उप्पइत्ता) माने (एत्थणं) सङि (हिट्ठिमगेविज्जगाणं देवाणं) अधस्तन ग्रैवेयः देवाना (तओ) यु (गेविज्जगविमाणपत्थडा) ग्रैवेय विभानाना પ્રસ્તર–પરથાર શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧

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