Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू. ४१ समेददेवस्वरूपनिरूपणम्
५३५
षिकाः ३ । अथ के ते वैमानिका: ? वैमानिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कल्पोपगाश्च, कल्पातीताश्च । अथ के ते कल्पोपगाः ? कल्पोपगा द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सौधर्माः १; ऐशानाः २, सनत्कुमाराः ३, माहेन्द्राः ४, ब्रह्मलोका: ५, लान्तकाः ६, महाशुक्राः ७, सहस्राराः ८, आनताः ९, प्राणताः १०, आरणाः ११, अच्युताः १२ । ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पर्याप्तकाश्च १, पर्याप्ता । ते ते कल्पोपगाः १ । अथ के ते कल्पातीताः ? कल्पातीताः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ग्रैवेयकाच, अनुत्तरौपपातिकाश्च । अथ के ते ग्रैवेयकाः ? र्याप्त (सेतं जोइसिया) यह ज्योतिष्क देयों की प्ररूपणा हुई ।
I
(से किं तं वैमाणिया ?) वैमानिक देव कितने प्रकार के हैं ? (दुविहा पण्णत्ता) दो प्रकार के कहे हैं (तं जहा) वे इस प्रकार (कप्पो - गाय कप्पाईया य) कल्पोपपन्न और कल्पातीत (से किं तं कप्पोवगा) कल्पोपपन्न कितने प्रकार के हैं ? (बारसविहा पण्णत्ता) बारह प्रकार के कहे हैं (तं जहा वे इस प्रकार ( सोहम्मा) सौधर्म (ईसाणा) ऐशान (सर्णकुमारा) सनत्कुमार (माहिंदा) माहेन्द्र (बंभलोया) ब्रह्मलोक (लंतगा) लान्तक (महासुक्का) महाशुक्र (सहस्सारा) सहस्रार (आणया) आनत (पाणया) प्राणत ( आरणा) आरण (अच्चुया) अच्युत (ते समासओ दुविहा पण्णत्ता) वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे हैं (तं जहा ) वे इस प्रकार (पज्जत्तगा य अपजत्तगा य) पर्याप्तक और अपर्याप्तक (से त्तं कप्पोवगा) यह कल्पोपपन्न की प्ररूपणा हुई (से किं तं कप्पाईया ?) तेथे या अरे (पज्जत्तगा य अपज्जत्ता य) पर्यायाने अपर्याप्त (से तं जोइसिया) या ज्योतिष्णु देवानी प्र३या था.
(से किं तं वेमाणिया ?) वैभानि देव सा प्रहारना छे ? ( बेमाणिया ) वैभानि देव ( दुविहा पण्णत्ता) में अहारना छे (तं जहा ) तेथे मा रीते ( कप्पोवगाय कप्पाईयाय) पोपपन्न अने उद्यातीत
( से किं तं कप्पोववगा ) उपाययन्न डेटा प्रहारना छे ? (बारस विहा पण्णत्ता) यार प्रहारना छे (तं जहा तेथे या प्रारे (सोहम्मा) सौधर्म (ईसाणा) शान ( सणकुमारा) सनत्कुमार (माहिंदा ) माहेन्द्र ( वंभलोया) ग्रहासेो (लंतगा) सान्त ( महासुक्का) भड्डाशु (सहस्सा रा ) सहसार ( आणया) मानत (पाणया) आयुत (आरणा) अरशु (अच्चुया) अभ्युत ( ते समासओ दुविहा पण्णत्ता) ते संक्षेपे मे प्राश्ना ४ह्या छे (तं जहा ) तेथे आा अरे (पज्जत्तागा य अपजतगा य) पर्याप्त मने अपर्याप्त (से त्तं कप्पोवगा) या उपोपन्ननी प्र३याया કહેવામાં આવેલ છે
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧