Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनासूत्रे प्रज्ञप्तानि । उपपातेन सर्वलोके । समुद्घातेन सर्वलोके । स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे । कुत्र खलु भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां पर्याप्तकानामपर्याप्तकानामपर्याप्तकानाञ्च स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका ये ये पर्याप्ता ये अपर्याप्ता स्ते सर्वे एकविधा अविशेषा अनानात्वाः सर्वलोकपर्यापन्नाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! ॥सू०१॥
टीका-पूर्वोत्तरीत्या प्रथमं पदं व्याख्याय अथ द्वितीयं पदं व्यख्यातुमारभते, तत्र प्रथमपदे पृथिवीकायिकादीनां प्ररूपणं कृतम्, अत्र तु तेषामेव स्थानानि बायर पुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता) वहीं बादरपृथिवी कायिक अपर्याप्तकों के स्थान कहे हैं (उववाएणं) उपपात की अपेक्षा (सव्वलोए) सर्व लोक में । (समुग्धाएणं) समुद्घात की अपेक्षा (सव्व लोए) समरत लोक में (सट्टाणेणं) स्वरथान की अपेक्षा (लोयरस असंखेज्जइभागे) लोक के असंख्यातवें भाग में।
(कहि णं भंते ! सुहुम पुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णता ?) हे भगवन ! सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहां कहे गए हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (सुहुमपुढदिकाइया) सूक्ष्मपृथ्वीकायिक (जे पज्जत्तगा जे अपजत्तगा) जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं (ते सम्वे) वे सब (एगविहा) एक प्रकार के हैं (अविसेसा) विशेषता रहित हैं (अणाणत्ता) नानापन से रहित हैं (सव्वलोयपरियावन्नगा पपणत्ता समणाउसो) हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्व लोक में व्याप्त कहे गए हैं। ॥१॥
टीकार्थ-पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम पद की व्याख्या करके अब द्वितीय ९५पातनी अपेक्षा२॥ (सव्वलोए) सभस्तयोमा (समुन्धारण) समुधातनी 24क्षारये (सव्वलोए) समस्त भi (सहाणेणं) २१स्थाननी अपेक्षाये (लोयस्स असंखेज्जइमागे) सेना २५२सयातमा मामा
(कहिणं भंते ! मुहमपुढविकाइयाणं पण्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ?) હે ભગવન સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક પર્યાપ્તકે અને અપર્યાપ્તકના સ્થાન કયાં કહે ei छ ? (गोयमा) गौतम ! (सहुमपुढविकाइया) सूक्ष्म पृथ्वी थि: (जे पज्जत्तगा जे अपज्जत्तगा) 2 पर्यात भने २५५र्यास्त छ (ते सव्वे) तेया
(एगविहा) ४ प्रा२ना छ (अविसेसा) विशेषता २हित छे (अणाणत्ता) नाना पाथी २हित छ (सव्वलोयपरियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो) 3 मायुમન શ્રમણ ! તે સર્વકમાં વ્યાપ્ત કહેલાં છે. જે ૧ છે
ટીકાથ–પૂર્વોક્ત પ્રકારે પ્રથમ પદની વ્યાખ્યા કરીને હવે બીજા પદની
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧