Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनासूत्रे 'छल्ली' वल्कलरूपात्वक, 'बहलतरी'-बहुलतरा 'भवेत्, ‘सा छल्ली'-वल्कलरूपा शाखा त्वक 'अणंतजीवाउ'-अनन्त जीवा तु ज्ञातव्या, 'जे यावन्ना तहाविहा' -याऽपि चान्या अधिकृतया अनन्तजीवत्वेन निश्चितया शाखा छल्ल्या समानरूपा छल्ली भवति साऽपि तथाविधा-तथाप्रकारा-अनन्तजीवात्मिका ज्ञातव्या, ___ अथ तासामेव छल्लीनां प्रत्येकजीवन परिज्ञानार्थ गाथा चतुष्टयेन लक्षणानि प्ररूपयितुमाह-'जस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुययरी भवे। परीत्तजीवा उ सा छल्ली, जे यावना तहाविहा । ७६॥' 'जस्त'-यस्य 'मूलस्स' मूलस्य 'कट्ठाओ' काष्ठात्-अन्तर्वतिसारभागात, 'छल्ली' वल्कलरूपा त्वक् 'तणुययरी' तनुतराकृशतरा, 'भवे'-भवेत्, ‘सा छल्ली'-सा वल्कलरूपा मूलत्वक् 'परित्तजीवा उ' परीतजीवा तु-प्रत्येकशरीरजीवात्मिका ज्ञातव्या, 'जे यावन्ना तहाविहा'याऽपि चान्या अधिकृतया प्रत्येकशरीर जीवात्मकत्वेन निश्चितया मूलच्छल्या समानरूपा छल्ली भवति साऽपि छल्ली तथाविधा-प्रत्येकशरीरजीवात्मिका अवसेया, 'जस्स कंदस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुययरी भवे । परित्तजीवा उ सा छल्ली' जे यावना तहाविहा॥७७॥ 'जस्स' यस्य 'कंदस्स' कन्दस्य 'कट्ठाओ'-काष्ठात् अन्तर्वतिसारभागात् 'छल्ली' वल्कलरूपा त्वक् 'तणुययरी'-तनुतरा-कृशतरा 'भवे' भवेत्, 'सा जो भी छाल इसी प्रकार की हो उसे भी अनन्त जीय हो जानना चाहिए।
जिस शाखा के काष्ठ अर्थात् अन्दर के सारमाग की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, उस छाल को अनन्त जीव समझना चाहिए। अन्य जो छाल इसी प्रकार की हो, उसे भी अनन्तजीव जानना चाहिए।
जिन मूल कन्द आदि की छाल प्रत्येक जीव होती है, उसकी पहचान बतलाते हैं।
जिस मूल के काष्ठ से अर्थात् अन्दर के सारमाग की अपेक्षा से उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येक शरीर जीव वाली होती है। इसी प्रकार की जो अन्य छाल हो उसे भी प्रत्येक शरीर जीव वाली ही जानना चाहिए । જાતની હોય તેને પણ અનન્ત જીવ સમજવી જોઈએ.
જે શાખાનું કાષ્ટ અર્થાત્ અંદરના સારભાગ કરતાં છાલ વધારે ઝાડી હેય તે છાલને અનંત જીવાત્મક સમજવી જોઈએ.
જે ભૂલ કબ્દ વિગેરેની છાલ પ્રત્યેક જીવ હોય છે તેની ઓળખ બતાવે છે.
જે મૂળના કષ્ટથી અર્થાત્ અન્દરના સાર ભાગની અપેક્ષાએ તેની છાલ વધારે પાતળી હોય તે છાલ પ્રત્યેક શરીર જીવ વાળી હોય છે. તેવી જાતની જે બીજી છાલ હોય તેને પણ પ્રત્યેક શરીર જીવ વાળી જ જાણવી જોઈએ.
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧