Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छठा शतक : उद्देशक-३ जीवों का कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो चुका है, उनकी हलन-चलन आदि सारी प्रवृत्तियाँ यौगिक (मन-वचन-काययोग से जनित) होती हैं। योगजन्य कर्म को ही ऐर्यापथिक कर्म कहते हैं । अर्थात् ईर्यापथ (गमनादि क्रिया) से बंधनेवाला कर्म ऐर्यापथिक कर्म है। दूसरे शब्दों में जो कर्म केवल हलन-चलन आदि शरीरादियोगजन्य प्रवृत्ति से बन्धता है, जिसके बंध में कषाय कारण नहीं होता है वह ऐर्यापथिक कर्म है। ऐर्यापथिक कर्म का बन्धकर्ता ऐर्यापथिकबन्धक कहलाता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से उपशान्तमोह, क्षीणमोह
और सयोगीकेवली को ऐर्यापथिक कर्म-बंध होता है। यह कर्म इस अवस्था से पहले नहीं बन्धता, इस अवस्था की अपेक्षा से इस कर्म की आदि है, अतएव इसका सादित्व है, किन्तु अयोगी (आत्मा की अक्रिय) अवस्था में अथवा उपशमश्रेणी से गिरने पर इस कर्म का बंध नहीं होता, इस कर्म का अन्त हो जाता है, इस दृष्टि से इसका सान्तत्व है। भवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादि-सान्त है। भवसिद्धिक कहते हैं —सिद्ध (मुक्त) होने योग्य भव्यजीव को। भव्यजीवों के सामूहिक दृष्टि से कर्मबंध की कोई आदि नहीं है—प्रवाहरूप से उनके कर्मोपचय अनादि है, किन्तु एक न एक दिन वे कर्मों का सर्वथा अन्त करके सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करेंगे, इस अपेक्षा से उनका कर्मोपचय सान्त है।
अभवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। अभवसिद्धिक कहते हैं अभव्य जीवों को; जिनके कर्मों का कभी अन्त नहीं होगा, ऐसे अभव्य जीवों के कर्मोपचय की प्रवाहरूप से न तो आदि है और न अन्त है। तृतीयद्वार-वस्त्र एवं जीवों की सादि-सान्तता आदि चतुर्भगीप्ररूपणा -
८. वत्थे णं भंते ! किं सादीए सपज्जवसिते ? चतुभंगो । गोयमा ! वत्थे सादीए सपज्जवसिते, अवसेवा तिण्णि वि पडिसेहेयव्वा ।
[८ प्र.] भगवन् ! क्या वस्त्र सादि-सान्त है ? इत्यादि पूर्वोक्त रूप से चार भंग करके प्रश्न करना चाहिए।
[८ उ.] गौतम ! वस्त्र सादि-सान्त है; शेष तीन भंगों का वस्त्र में निषेध करना चाहिए।
९.[१] जहा णं भंते ! वत्थे सादीए सपजवसिए० तहा णं जीवा किं सादीया सपजवसिया ? चतुभंगो, पुच्छा।
गोयमा ! अत्थेगतिया सादीया सप०, चत्तारि वि भाणियव्वा।
[९-१ प्र.] भगवन् ! जैसे वस्त्र सादि-सान्त है, किन्तु सादि-अनन्त नहीं है, अनादि-सान्त नहीं है और न अनादि-अनन्त है, वैसे जीवों के लिए भी चारों भंगों को ले कर प्रश्न करना चाहिए—अर्थात् (भगवन् ! क्या
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २५५
(ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड २, पृ. २७४