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ऋषभदेव : एक परिशीलन
लेखक परम श्रद्धेय पं० श्री पुष्कर मुनि जी महाराज
के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री 'साहित्यरत्न'
सन्मति ज्ञान-पीठ,आगरा
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
लेखक परम श्रद्धय पं० श्री पुष्कर मुनि जी म०
के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री, 'साहित्यरत्न'
श्री सन्मति शाathe.mar
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पुस्तक : ऋषभदेव : एक परिशीलन भूमिका : उपाध्याय अमर मुनि लेखक : श्री देवेन्द्र मुनि प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा-२ प्रथम संस्करण : अप्रैल १९६७ मुद्रक : श्री विष्णु प्रिंटिङ्गप्रेस, राजामण्डी, आगरा-२ मूल्य : तीन रुपए
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प्रकाशकीय
आर्यसंस्कृति के आदिपुरुष भगवान ऋषभदेव की जीवन-गाथा कला और संस्कृति, शिक्षा और साहित्य, धर्म और राजनीति का आदि-स्रोत है । आर्य संस्कृति का वह महाप्राण व्यक्तित्व दो युगों का सन्धि-काल है, जब अकर्म से जीवन में जड़ता छा रही थी और भोगासक्ति ने जीवन को निःसत्व बना रखा था, तब ऋषभदेव कर्म-युग के आदिसूत्रधार बने, अकर्म को कर्म की ओर प्रेरित किया, भोग को योग से परिष्कृत करने की कला सिखलाई । पुरुषार्थ जगा, कला का विकास हुआ, समाज की रचना हुई, राज्य शासन का निर्माण हुआ, और धर्म एवं संस्कृति की पावन रेखाएँ आकार पाने लगीं।
जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों परम्पराओं में भगवान ऋषभदेव की महिमा के स्वर प्रतिध्वनित होते सुनाई देते हैं और यह प्रतिध्वनि आर्यसंस्कृति की मौलिक एकता का अक्षय चिन्ह है । भले ही ऋषभदेव के विराट व्यक्तित्व को विभिन्न परम्पराओं ने विभिन्न दृष्टियों से देखा हो, किन्तु उससे उनको महानता और सर्वव्यापकता में कोई अन्तर नहीं आता। विभिन्न दिशाओं में बसने वाले यदि हिमालय या सुमेरु के विभिन्न भागों को देखकर अपनी-अपनी दृष्टि से उसका वर्णन करें तो उससे हिमालय या सुमेरु को महान सत्ता में कोई अन्तर नहीं पड़ता, बल्कि उसकी सार्वदेशिकता का ही प्रमाण मिलता है।
आर्य संस्कृति के उस मूल पुरुष को, उनके जीवन-स्रोत की विभिन्न धाराओं में अवगाहन कर गहराई से समझने-परखने की आज अत्यन्त आवश्यकता
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है। हमें प्रसन्नता है कि परम श्रद्धय पं० श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के शिष्य उदीयमान साहित्यकार श्री देवन्द्र मुनिजी शास्त्री ने इस दिशा में यह एक महनीय प्रयत्न किया है। उन्होंने अनेक ग्रन्थों का परिशीलन करके भगवान ऋषभदेव के महान कतृत्व को, जिस संक्षेप किन्तु प्रामाणिक और तुलनात्मक शैली से प्रस्तुत किया है, वह वस्तुतः अभिनन्दनीय ही नहीं, किन्तु अनुकरणीय भी है।
साथ ही अस्वस्थ होते हुए भी श्रद्धय उपाध्याय श्री जी ने भगवान आदिनाथ के महाप्राण व्यक्तित्व के विचार-बिन्दु को नवीन दृष्टि-परिवेश में उपस्थित कर जो महत्वपूर्ण प्रस्तावना से ग्रन्थ की श्रीवृद्धि की है, उसके लिए भी हम उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञ हैं।
सन्मति ज्ञानपीठ के महत्वपूर्ण प्रकाशन आज साहित्य क्षेत्र में अत्यधिक आदर एवं गौरव प्राप्त कर रहे हैं । हमें विश्वास है कि यह प्रकाशन भी हमारी उसी गौरवमयी परम्परा की एक कड़ी बनेगा। पाठक इसे अधिकाधिक अपनाकर हमारा उत्साह बढ़ायेंगे । इसी आशा के साथ
मन्त्री सन्मति ज्ञानपीठ
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भारतवर्ष के जिन महापुरुषों का मानव जाति के विचारों पर स्थायी प्रभाव पड़ा है उनमें भगवान् ऋषभदेव का प्रमुख स्थान है । उनके अनलोद्धत व्यक्तित्व और असाधारण व अभूतपूर्व कृतित्व की छाप जन-जीवन पर बहुत ही गहरी है । आज भी अनेकों व्यक्तियों का जीवन उनके निर्मल विचारों से प्रभावित है । उनके हृदयाकाश में चमकते हुए आकाशदीप की तरह वे सुशोभित हैं । जैन व जैनेतर साहित्य उनकी गौरव गाथा से छलक रहा है । उनका विराट् व्यक्तित्व सम्प्रदायवाद, पंथवाद से उन्मुक्त है । वे वस्तुतः मानवता के कीर्तिस्तम्भ हैं ।
भगवान् ऋषभदेव का समय भारतीय ज्ञात इतिहास में नहीं आता । उनके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए आगम व आगमेतर प्राच्य साहित्य ही प्रबल प्रमाण है । जैन परम्परा की दृष्टि से भगवान् ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे के उपसंहार काल में हुए हैं ।' चौबीसवें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर और ऋषभदेव के बीच का समय असंख्यात वर्ष का है ।
वैदिक दृष्टि से भी ऋषभदेव प्रथम सतयुग के अन्त में हुए हैं और राम व कृष्ण के अवतारों से पूर्व हुए हैं । 3
1
जैन साहित्य में कुलकरों की परम्परा में नाभि और ऋषभ का जैसा स्थान है, वैसा ही स्थान बौद्ध परम्परा में महासमन्त का है । सामयिक परिस्थिति भी दोनों में समान रूप से ही चित्रित हुई है । सम्भवतः बौद्ध परम्परा में ऋषभदेव का ही अपर नाम महासमन्त हो ?
१.
लेखक की कलम से
२.
३.
४.
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
(ख) कल्पसूत्र
कल्पसूत्र
जिनेन्द्र मत दर्पण भाग० १ पृ० १०
दीघनिकाय अग्गज्ञसुत्त भाग - ३
(ख) जैन साहित्य का वृहद इतिहास भाग ० १ प्रस्तावना १० २२
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ऋषभदेव का चरित्र जिस प्रकार जैन और वैदिक साहित्य में विस्तार से चित्रित किया गया है, वैसा बौद्ध साहित्य में नहीं हुआ । केवल कहीं-कहीं पर नाम निर्देश किया गया है । जैसे धम्मपद की 'उसभं पवरं वीर"५ गाथा में अस्पष्ट रीति से ऋषभदेव और महावीर का उल्लेख हआ है।६ बौद्धाचार्य धर्म कीर्ति ने सर्वज्ञ आप्त के उदाहरण में ऋषभ और वद्धमान महावीर का निर्देश किया है और बौद्धाचार्य आर्य देव भी ऋषभदेव को ही जैन धर्म का आद्य-प्रचारक मानते हैं ।
आधुनिक प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य विचारक भी यह सत्य तथ्य नि.संकोच रूप से स्वीकारने लगे हैं कि भगवान् ऋषभदेव से ही जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है।
डाक्टर हर्मन जेकोबी लिखते हैं कि इसमें कोई प्रमाण नहीं कि पाश्र्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे। जैनपरम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक मानने में एक मत है। इस मान्यता में ऐतिहासिक सत्य की अत्यधिक सम्भावना है। __ प्रस्तुत प्रश्न पर चिन्तन करते हुए डाक्टर राधाकृष्णन् लिखते हैं कि "जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पत्ति का कयन करती है, जो बहुत ही शताब्दियों पूर्व हुए हैं । इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव की आराधना होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन धर्म वर्द्धमान महावीर और पार्श्वनाथ से भी बहुत पहले प्रचलित था।"
"यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीनों तीर्थंकरों के नाम आते हैं । भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे।"
५. धम्मपद ४।२२ ६. इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टली भाग ३, पृ० ४७३-७५ ७. इण्डि० एण्डि० जिल्द ६, पृ० १६३
(ख) जैन साहित्य का इतिहास-पूर्वपीठिका पृ० ५ ८. भारतीय दर्शन का इतिहास-डाक्टर राधाकृष्णन् जिल्द १, पृ० २८५
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डाक्टर स्टीवेन्सन,' और जयचन्द्र विद्यालंकार " प्रभृति अन्य अनेक " चिन्तकों का भी यही अभिमत रहा 1
भगवान् ऋषभदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है । मेरा स्वयं का विचार और भी अधिक विस्तार से अन्वेषणाप्रधान लिखने का था किन्तु समयाभाव और साधनाभाव के कारण वह सम्भव नहीं हो सका, जो कुछ भी लिख गया हूँ, वह पाठकों के सामने है |
चन्दन बाला श्रमणी संघ की अध्यक्षा, परम विदुषी स्वर्गीया महासती श्री सोहन कुँवर जी म० को मैं भुला नहीं सकता, उनके त्याग - वैराग्यपूर्ण पावन प्रवचन को श्रवण कर मैंने सद्गुरुवर्य, गम्भीर तत्त्वचिन्तक श्री पुष्कर मुनिजी म० के पास जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की। और इस प्रकार वे मेरे जीवन महल के निर्माण में नींव की ईंट के रूप में रही हैं। उनकी आद्य प्रेरणा से ही प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रणयन हुआ है ।
परम श्रद्ध ेय सद्गुरुवयं के प्रति किन शब्दों में आभार प्रदर्शित करू, यह मुझे नहीं सूझ रहा है । जो कुछ भी इसमें श्रेष्ठता है वह उन्हीं के दिशा-दर्शन और असीम कृपा का प्रतिफल है ।
मेरी विनम्र प्रार्थना को सन्मान देकर श्रद्धय उपाध्याय कविरत्न श्री अमर चन्द्र जी म० ने स्वस्थ न होने पर भी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना लिख कर ग्रन्थ की श्रीवृद्धि की है और साथ ही पुस्तक के संशोधन, एवं परिमार्जन में जिस आत्मीय भाव से मुझे अनुगृहीत किया है, उसे व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द मेरे पास नहीं हैं ।
स्नेहमूर्ति श्री हीरामुनि जी, साहित्यरत्न, शास्त्री गणेश मुनि जी, जिनेन्द्र मुनि, रमेश मुनि और राजेन्द्र मुनि प्रभृति मुनि - मण्डल का स्नेहास्पद व्यवहार, लेखन कार्य में सहायक रहा है । ज्ञात और अज्ञात रूप में जिन महानुभावों का तथा ग्रन्थों का सहयोग लिया गया है, उन सभी के प्रति हार्दिक आभार अभिव्यक्त करता हूँ, और भविष्य में उन सभी के मधुर सहयोग की अभिलाषा रखता हूँ । प्राचार्य धर्मसिंह जैन धर्म स्थानक
छीपापोल अमदाबाद - १
दि० ३-४-६७ आदिनाथ जयन्ती
- देवेन्द्र मुनि
६. कल्पसूत्र की भूमिका - डा० स्टीवेन्सन
१०.
११.
भारतीय इतिहास की रूपरेखा - जयचन्द्र विद्यालंकार पृ० ३४८ (क) जैन साहित्य का इतिहास -- पूर्वपीठिका पृ० १०८ (ख) हिन्दी विश्वकोष भाग० ३ पृ० ४४४
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त्वं देव जगतां ज्योतिः,
त्वं देव जगतां गुरुः ।
त्वं देव जगतां धाता,
त्वं देव जगतां पतिः ।।
-प्राचार्य जिनसेन
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प्रस्तावना
अनन्त असीम व्योममण्डल से भी विराट् ! अगाध अपार महासागर से भी विशाल ! एक अद्भुत, एक अद्वितीय ज्योतिर्धर व्यक्तित्व ! जिधर से भी देखिए, जहाँ भी देखिए, और जब भी देखिए-सहस्र-सहस्र, लक्ष-लक्ष, कोटिकोटि, असंख्य अनन्त प्रकाश किरणें विकीर्ण होती दीखेंगी। महाकाल इतिहास की गणना से परे हो गया, संख्यातीत दिन और रात गुजरते चले गए, परन्तु वह ज्योति न बुझी है, न बुझ सकेगी।
भगवान् ऋषभदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों की सीमा में नहीं, बांधा जा सकता। प्राकृत में, संस्कृत में, अपभ्रंश में, नानाविध अन्यान्य लोक-भाषाओं में ऋषभदेव के अनेकानेक जीवन चरित्र लिखे गए हैं, लिखे जा रहे हैं, परन्तु उनके विराट् एवं भव्य जीवन की सम्पूर्ण छवि कोई भी अंकित नहीं कर सका है। अनन्त आकाश में गरुड़-जैसे असंख्य विहग जीवन-भर उड़ान भरते रहे हैं, पर आकाश की इयत्ता का अता-पता न किसी को लगा है, न लगेगा। क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर, क्या भौतिक और क्या आध्यात्मिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय, क्या नैतिक और क्या धार्मिक-सभी दृष्टियों से उनका जीवन दिव्य है, महतोमहीयान् है। हम जीवन-निर्माण की दिशा में जब भी और जो कुछ भी पाना चाहें, उनके जीवन पर से पा सकते हैं । आवश्यकता है केवल देखने वाली दृष्टि की और उस दृष्टि को सृष्टि के रूप में अवतरित करने की ।
भगवान् ऋषभदेव मानवसंस्कृति के आदि संस्कर्ता हैं, आदि निर्माता हैं। पौराणिक गाथाओं के आधार पर, वह काल, आज भी हमारे मानसचक्षुओं के समक्ष है, जब कि मानव मात्र आकृति से ही मानव था । अपने क्षुद्र देह की सीमा में बँधा हुआ एक मानवाकार पशु ही तो था, और क्या ? न उसे लोक का पता था, न परलोक का । न उसे समाज का पता था, न परिवार का । न उसे धर्म का पता था, न अधर्म का। बिल्कुल कटा हुआ-सा अकेला
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शून्य जीवन | पिता-पुत्र, भाई-बहिन, पति-पत्नी - जैसा कुछ भी लोक व्यवहार नहीं, कोई भी मर्यादा नहीं । साथ रहने वाली नारी को हम भले ही आज की शिष्ट भाषा में पत्नी कह दें, परन्तु सचाई तो यह है कि वह उस युग में एकमात्र नारी थी, स्त्री थी, और कुछ नहीं । स्त्री केवल देह है और पत्नी इससे कुछ ऊपर । पति-पत्नी दो शरीर नहीं हैं, जो वासना के माध्यम से एक दूसरे के साथ हो लेते हैं । वह एक सामाजिक एवं नैतिक भाव है, जो कर्तव्य की स्वर्णरेखाओं से मर्यादाबद्ध है । और यह सब उस आदि युग में कहाँ था ? वन की सभ्यता | अकेला व्यक्तित्व ! भूख लगी तो इधर-उधर गया, कन्द-मूल फल खा आया । प्यास लगी तो झरनों का बहता पानी पी आया । अन्य किसी के लिए न लाना और न ले जाना । न भविष्य के लिए ही कुछ संग्रह । अतीत और अनागत से कट कर केवल वर्तमान में आबद्ध | अपने ही पेट की क्षुधा पिपासा से विरा केवल व्यक्तिनिष्ठ जीवन ! प्रकृति पर आश्रित, वृक्षों से परिपोषित ! कर्तृत्व नहीं, केवल भोक्तृत्व ! श्रम नहीं, पुरुषार्थं नहीं । न अपने पैरों खड़ा होना, और न अपने हाथों कुछ करना । मनुष्य के शरीर में नीचे क्षुधातुरं पेट और ऊपर खाने वाला मुख । बीच हाथ पैरों का कोई खास काम नहीं, उत्पादक के रूप में । यह चित्र है, भगवान् ऋषभदेव से पूर्व मानव
में
सभ्यता का ।
भगवान् ऋषभदेव के युग में यह वन-सभ्यता बिखर रही थी । जनसंख्या बढ़ने लगी । उपभोक्ता अधिक होते जा रहे थे, परन्तु उनकी तुलना में उपभोगसामग्री अल्प | ऐसी स्थिति में संघर्ष अवश्यम्भावी था, और वह हुआ भी । क्षुधातुर जनता वृक्षों के बँटवारे के लिए लड़ने लगी । सब ओर आपाधापी मच गई। भगवान् ऋषभदेव ने उक्त विषम स्थिति में अभावग्रस्त जनता का योग्य नेतृत्व किया । उन्होंने घोषणा की -- अकर्म भूमि का युग समाप्त हो रहा है, अब जनसमाज को कर्मभूमि युग का स्वागत करना चाहिए । प्रकृति रिक्त नहीं है । अब भी उसके अन्तर में अक्षय भण्डार छिपा पड़ा है । पुरुष हो, पुरुषार्थं करो । अपने मन मस्तिष्क से सोचो- विचारो और उसे हाथों से मूर्तरूप दो । श्रम में ही श्री है, अन्यत्र नहीं। एक मुख है खाने वाला, तो हाथ दो हैं खिलाने वाले । भूखों मरने का प्रश्न ही कहाँ है ? अपने श्रम के बल पर अभाव को भाव से भर दो। भगवान् ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया । अनेकानेक शिल्पों की अवतारणा की । कृषि और उद्योग में वह अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया । कर्मयोग की वह
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रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन-जीवन में सब ओर नव-वसन्त खिल उठा, महक उठा । हे मेरे देव, यदि उस समय तुम न होते तो पता नहीं, इस मानव जाति का क्या हुआ होता ? होता क्या, मानव-मानव एक दूसरे के लिए दानव हो गया होता, एक दूसरे को जंगली जानवरों की तरह खा गया होता । "बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?"
भौतिक वैभव एवं ऐश्वर्य के उत्कर्ष में एक खतरा है, वह यह कि मनुप्य स्वयं को भूल जाता है, अन्धरे में भटक जाता है । भोग में भय छिपा है, "भोगे रोगभयम् ।" तन का रोग ही नहीं, मन का रोग भी । मन का रोग तन के रोग से भी अधिक भयावह है। बढ़ती हुई मन की विकृतियाँ मानव को कहीं का भी नहीं छोड़ती-न घर का न घाट का। भगवान् ऋषभदेव ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा। उनका गृहसंसार से महाभिनिष्क्रमण अपनी अन्तरात्मा को परिमार्जित एवं परिष्कृत करने के लिए तो था ही, साथ ही सार्वजनीन हित का भाव भी उसके मूल में था । महापुरुषों की साधना स्व-परकल्याण की दृष्टि से द्व यर्थक होती है- "एका क्रिया ह यर्थक प्रसिद्धा ।" भगवान् ऋषभदेव ने शून्य निर्जन वनों में, एकान्त गिरि-निकुञ्जों में, भयावह श्मशानों में, गगनचुम्बी पर्वतों की शान्त नीरव गुफाओं में तपः साधना की। यह तप जहाँ बाह्य रूप में ऊँचा और बहुत ऊँचा था वहाँ आभ्यन्तर रूप में गहरा और बहुत गहरा भी था । वे शरीर से परे, इन्द्रियों से परे. और मन से परे होते गए-होते गए, और अपने आपके निकट, अपने शुद्ध-निरंजन-निर्विकार स्वरूप के समीप पहुँचते गए-पहुँचते गए। और लम्बी साधना के बाद एक दिन वह मंगल क्षण आया कि अन्तर में कैवल्य ज्योति का अनन्त अक्षय-अव्याबाध महाप्रकाश जगमगा उठा, स्वमंगल के साथ ही विश्वमंगल का द्वार खुल गया । भगवान् ऋषभदेव तीर्थङ्कर बन गए। धर्मदेशना के रूप में उनकी अमृतवाणी का वह दिव्यनाद गूजा कि जन-जीवन में फैलता आ रहा अन्धकार छिन्न-भिन्न होगया, सब ओर आध्यात्मिक भावों का दिव्य आलोक आलोकित हो गया।
भगवान् ऋषभदेव का जीवन समन्वय का जीवन है । वह मानवजाति के समक्ष इहलोक का आदर्श प्रस्तुत करता है, परलोक का आदर्श प्रस्तुत करता है, और प्रस्तुत करता है---इहलोक-परलोक से परे लोकोत्तरता का आदर्श। उनका जीवन-दर्शन उभयमुखी है। जहाँ वह बाह्यजीवन को परिकृत एवं विकसित करने की बात करता है, वहाँ अन्तर्जीवन को भी विशुद्ध एवं प्रबुद्ध
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रखने का परामर्श देता है । उनका अध्यात्म भी निष्क्रिय, जड़ एवं एकांगी नहीं है, वह सचेतन है, प्राणवान है, और देश, काल एवं व्यक्ति की भूमिकाओं को यथार्थ के धरातल पर स्पर्श करता है। इस सन्दर्भ में उनके अपने ही जीवन के एक दो प्रसङ्ग हैं।
साधना-काल में जब भगवान जंगलों एवं पहाड़ों के सूने अंचलों में एकान्त साधनारत रह रहे थे, तो प्रारम्भ में एक वर्ष तक उन्होंने अन्न-जल ग्रहण नहीं किया, अनशनतप की लम्बी साधना चलती रही। प्रभु के लिए तो यह सहज था, परन्तु साथ में दीक्षित होने वाले चार सहस्र साधक विचलित हो गए। वे भूख की वेदना को अधिक काल तक सहन न कर सके । भगवान् की देखादेखी कुछ दूर तक तो अनशन के पथ पर साथ-साथ चले, परन्तु गजराज की गति को कोई पकड़े भी तो कहाँ तक पकड़े ? सब के सब पिछड़ते चले गये, कोई कहीं तो कोई कहीं। पिछड़े ही नहीं, पथ-भ्रष्ट भी हो गये । विवेकज्ञान के अभाव में ऐसा ही कुछ हुआ करता है—देखा-देखी साधे जोग, छोजे काया बाढ़ रोग । भगवान् ऋषभदेव ने वर्ष समाप्त होते-होते जब यह देखा तो उनका चिन्तन मोड़ ले गया। उन्होंने आहार ग्रहण करने का संकल्प किया, अपने लिए उतना नहीं, जितना कि भविष्य के साधकों को साधना के मध्यम मार्ग की दृष्टि प्रदान करने के लिए । भगवान् के तत्कालीन अनक्षर चिन्तन को अक्षरबद्ध किया है-जैन दर्शन के सुप्रसिद्ध तत्त्वचिन्तक महामनीषी भाचार्य जिनसेन ने, अपने महापुराण में
न केवलमयं कायः, कर्शनीयो मुमुक्ष भिः । नाऽप्युत्कटरसः पोष्यो, मृष्ट रिष्ट श्च वल्भनः ॥५॥ वशे यथा स्युरक्षाणि, नोत धावन्त्यनूत्पथम् । तथा प्रयतितव्यं स्याद्, वृत्तिमाश्रित्य मध्यमाम् ॥६॥ दोषनिहरणायेष्टा, उपवासाधु पक्रमाः। प्राणसन्धारणायायम्, प्राहारः सूत्रदर्शितः ।।७।। कायक्लेशो मतस्तावन्, न संक्लेशोऽस्ति यावता। संक्लेशे यसमाधानं, मार्गात् प्रच्युतिरेव च ।।८॥
-पर्व २० -~~-मुमुक्षु साधकों को यह शरीर न तो केवल कृश एवं क्षीण ही करना चाहिए और न रसीले एवं मधुर मन चाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना चाहिए।
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-जिस तरह भी ये इन्द्रियाँ साधक के वशवर्ती रहें, कुमार्ग की ओर न दौड़ें, उसी तरह मध्यम वृत्ति का आश्रय लेकर प्रयत्न करना चाहिए ।
-दोषों को दूर करने के लिए उपवास आदि का उपक्रम है, और प्राण धारणा के लिए आहार का ग्रहण है, 'यह जैन सिद्धान्तसम्मत साधना सूत्र है।
- साधक को कायक्लेश तप उतना ही करना चाहिए, जितने से अन्तर में संक्लेश न हो । क्योंकि संक्लेश हो जाने पर चित्त समाधिस्थ नहीं रहता; उद्विग्न हो जाता है, जिसका किसी न किसी दिन यह परिणाम आता है कि साधक पथभ्रष्ट हो जाता है ।
भगवान् ऋषभ के द्वितीय पुत्र महाबली बाहुबली, युद्ध में अपने ज्येष्ठ बन्धु भरतचक्र-वर्ती को पराजित करके भी, राज्यासन से विरक्त हो गए। कायोत्सर्ग मुद्रा में अचल हिमाचल की तरह अविचल एकान्त वनप्रदेश में खड़े हो गए । एक वर्ष पूरा होने को आया, न अन्न का एक दाना और न पानी की एक बूंद । न हिलना, न डुलना । सचेतन भी अचेतन की तरह सर्वथा निष्प्रकम्प । कथाकारों की भाषा में मस्तक पर के केश बढ़ते-बढ़ते जटा हो गए और उनमें पक्षी नीड़ बनाकर रहने लगे। घुटनों तक ऊँचे मिट्टी के वल्मीक चढ़ गए, और उनमें विषधर सर्प निवास करने लगे। कभी-कभी सर्प वल्मीक से निकलते, सरसराते ऊपर चढ़ जाते और समग्र शरीर पर लीलाविहार करते रहते । भूमि से अंकुरित लताएँ पदयुगल को परिवेष्टित करती हुई भुजयुगल तक लिपट गई। इतना होने पर भी कैवल्य नहीं मिला, नहीं मिला । तप का ताप चरमबिन्दु पर पहुँच गया, फिर भी अन्तर का कल्मष गला नहीं, मन का मालिन्य धुला नहीं। इतनी अधिक उग्र, इतनी अधिक कठोर साधना प्रतिफल की दिशा में शून्य क्यों, यह प्रश्न हर साधक के मन पर मंडराने लगा। भगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी को भेजा, इसलिए कि वह बाहर से अन्दर में प्रवेश करे, अन्दर के अहं को तोड़ गिराए । ब्राह्मी और सुन्दरी के माध्यम से भगवान् ऋषभदेव का सन्देश मुखरित हुआ।
"प्राज्ञापयति तातस्त्वां, ज्येष्ठाय ! भगवानिदम् । हस्तिस्कन्धाधिरूढानाम् उत्पद्यत म केवलम् ॥"
-त्रिषष्टि० ११६७८९ -हे आर्य, पूज्य पिता भगवान् ऋषभदेव तुम्हें सूचित करते हैं कि हाथी पर चढ़े हुओं को केवल ज्ञान नहीं हो सकता।
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कैसा हाथी ? 'मैं बड़ा हूँ, अपने से छोटे बन्धुओं को कैसे वन्दन करू" -- यह अहङ्कार का हाथी । इसी हाथी पर से नीचे उतरना है । बाहुबली के चिन्तन ने अहं से निरहं की ओर मोड़ लिया और ज्योंही वंदन के लिए कदम उठाया किकेवल ज्ञान का महाप्रकाश जगमगा उठा। उक्त उदाहरण से क्या ध्वनित होता है ? यही कि भगवान् ऋषभदेव साधना के केवल बाह्य परिवेश तक ही प्रतिबद्ध नहीं थे । उनकी साधनाविषयक प्रतिबद्धता बाहर की नहीं, अन्दर की थी। उनकी साधना का मुख्य आधार तन नहीं, मन था । मन भी क्या, अन्तश्चैतन्य था । और भगवान् का यह दिव्य दर्शन जैनसाधना का बीज मंत्र हो गया । आदिकाल से ही जैन दर्शन तन का नहीं, मन का दर्शन है, अन्तश्चैतन्य का दर्शन है । वह साधना के बाह्य पक्ष को स्वीकारता है अवश्य, परन्तु अमुक सीमा तक ही । बाह्य सान्त है, अन्तर ही अनन्त है । अतः अनन्त की उपलब्धि बाहर में नहीं, अन्दर में है । जब-जब साधक बाहर भटकता है, बाहर को ही सब कुछ मान बैठता है, तब-तब भगवान् ऋषभदेव के जीवन-प्रसङ्ग साधक को अन्दर की ओर उन्मुख करते हैं, हठ योग से सहज योग की ओर अग्रसर करते हैं ।
भगवान् ऋषभदेव की निर्मल धर्मचेतना आज की भाषा में कहे जाने वाले पन्थों - मतों-सम्प्रदायों से सर्वथा अतीत थी। उनका सत्य इन सब क्षुद्र परिवेशों में बद्ध नहीं था । जब कभी प्रसंग आया, उन्होंने सत्य के इस मर्म को स्पष्ट किया है --- बिना किसी छिपाव और दुराव के । राजकुमार मरीचि भगवान् के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण कर लेता है, पर समय पर ठीक तरह साथ नहीं पाता है । तितिक्षा की कमी, परीषहों के आक्रमण से विचलित हो गया; तो पथ- च्युत हो गया, परिव्राजक हो गया । इस पर, सम्भव है, और सबने धिक्कारा हो, परन्तु भगवान् सर्वतोभावेन तटस्थ रहे । मरीचि जैन श्रमण परम्परा के विपरीत परिव्राजक का बाना लिए समवसरण के द्वार पर बैठा रहता, परन्तु इधर से कोई ननुनच नहीं । इतना ही नहीं, एक बार भरत चक्रवर्ती के प्रश्न के समाधान में घोषणा की कि मरीचि वर्तमान कालचक्र का अन्तिम तीर्थङ्कर होगा । श्रमण परम्परा से उत्प्रव्रजित व्यक्ति के लिए भगवान् की यह घोषणा एक गम्भीर अर्थ की ओर संकेत करती है वेष और पन्य की सीमाएँ सत्य की सीमा को काट नहीं सकतीं । सत्य क्षीरसागर के जल की भाँति सदा निर्मल एवं मधुर होता है, चाहे वह किसी भी पात्र में हो, और जब भी कभी हो । वेष और पन्थ की सीमाओं को लांघ कर व्यक्ति में आज नहीं, तो कल अभिव्यक्त होने वाले सत्य का इस प्रकार उद्घाटन करना, भगवान्
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(
१५ )
ऋभषदेव की निर्मल सत्यनिष्ठा का एक अद्भुत उदाहरण है। मैं अनुभव करता हूँ, यदि कोई और होता तो ऐसी स्थिति में कुछ और ही कहता या मौन रहता। परन्तु भगवान् ऋषभदेव, देव क्या, देवाधिदेव थे । जिन्होंने पथभ्रष्ट मरीचि के धूमिल वर्तमान को नहीं, किन्तु उज्ज्वल भविष्य को उजागर किया और यह सत्य प्रमाणित किया कि पतित से पतित व्यक्ति भी घृणापात्र नहीं है । क्या पता, वह कहाँ और कब जीवन की ऊँची-से-ऊँची बुलन्दियों को छूने लगे, आध्यात्मिक पवित्रता को पूर्णरूपेण आत्मसात् करने लगे । क्या आज हम उक्त घटना पर से अपने प्रतिपक्षी खेमे के लोगों के प्रति सद्भावना का भावादर्श नहीं ले सकते ? ।
भगवान् ऋषभदेव जीवन के हर कोण पर उसी प्रकार दिव्य हैं, जिस प्रकार वैडूर्यरत्ल । उनका जीवन आज की विषम परिस्थितियों में भी अपने निर्मल चरित्र की आभा बिखेर रहा है। सत्य की खोज में चल रहे हर यात्री के मन पर एक गहरी छाप डाल रहा है। उनका स्मरण होते ही तमसाच्छन्न जन-मानस में एक दिव्य एवं सुखद प्रकाश फैल जाता है। उनके जीवन चरित्र मानव चरित्र के निर्माण के लिए हर युग में प्रेरणा स्रोत रहे हैं और रहें गे । यही कारण है कि महाकाल के प्रवाह में कोटि-कोटि दिन और रात बह गये, परन्तु उनके जीवनलेखन को परम्परा अब भी गंगा की धारा के समान प्रवहमान है।
मुझे हार्दिक हर्ष है कि भगवान ऋषभदेव के जीवनचरित्रों के मुक्ताहार में एक और सुन्दर मुक्ता पिरोया गया है। हमारे तरुण साहित्यकार श्री देवन्द्र मुनि ने भगवान ऋषभदेव के चरणकमलों में अपनी भावभरी श्रद्धाञ्जलि अपित की है और इस रूप में भगवान आदिनाथ का एक सुन्दर अनुशीलनात्मक जीवन चरित्र लिखा है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया यह प्रमाणपुरःसर जीवनचरित्र, चरित्रग्रन्थों के संदर्भ में नवीन शैली प्रस्तुत करता है । देवेन्द्र जी का बौद्धिक उन्मेष जो नवीन आलोक पा रहा है, उसका स्पष्ट संकेत उनकी यह कृति है। ____ मैं शुभाशा करता हूँ, भविष्य उनका साथ दे और वे अपने अध्ययन-अनु. शोलन एवं चिन्तन को और अधिक व्यापक बनाते हुए, भविष्य में और भी अधिक सुन्दर एवं विचार पूर्ण कृतियों से जैन साहित्य की श्रीवृद्धि कर यशस्वी हों। जैन स्थानक आगरा
--उपाध्याय १० अप्रेल, १९६७
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अनु क्रम
प्रथम खण्ड
१-५०
श्री ऋषभ पूर्वभव
द्वितीय खण्ड
गृहस्थ जीवन साधक जीवन तीर्थङ्कर जीवन
mm
परिशिष्ट (१)
१७१
,
(४)
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
• प्रथम खण्ड
ऋषभ जीवन की पृष्ठ भूमि
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• श्रमरण संस्कृति
• एक फुलवाड़ी
आस्तिक्य
०
o
सुनहरे चित्र • धन्ना सार्थवाह
• उत्तरकुरु में मनुष्य • सौधर्म देवलोक
०
महाबल
०
ललिताङ्ग देव
वज्रजंघ
०
o
युगल
0
सौधर्म कल्प
o
परिचय-रेखा
जीवानन्द वैद्य
o
अच्युत देवलोक
• वज्रनाभ
• सर्वार्थ सिद्ध ० श्री ऋषभदेव
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श्री ऋषभपूर्वभव : एक विश्लेषण
श्रमण संस्कृति
श्रमण संस्कृति आर्यावर्त की एक विशिष्ट और महान् संस्कृति हैं, जो अज्ञात काल से ही विश्व को प्राध्यात्मिक विचारों का पाथेय प्रदान करती रही है । वे विमल विचार काल्पनिक वायवीय न होकर जीवनप्रसूत हैं, अनुभवपरिचालित हैं । डाक्टर एल. पी. टेसीटरी के शब्दों में- “ इसके मुख्य तत्त्व विज्ञान शास्त्र के आधार पर रचे हुए हैं; यह मेरा अनुमान ही नहीं बल्कि अनुभवमूलक पूर्ण दृढविश्वास है कि ज्यों-ज्यों पदार्थविज्ञान उन्नति करता जायेगा त्यों-त्यों जैन धर्म के सिद्धान्त सत्य सिद्ध होते जायेंगे ।"
एक फुलवाड़ी
श्रमण संस्कृति एक अद्भुत फुलवाड़ी हैं, जिसमें भक्तियोग की भव्यता, ज्ञानयोग का गौरव, कर्मयोग की कठिनता, अध्यात्म योग का आलोक, तत्त्वज्ञान की तलस्पर्शिता, दर्शन की दिव्यता, कला की कमनीयता, भाषा की प्रांजलता, भावों की गम्भीरता और चरित्रचित्रण के फूल खिल रहे हैं, महक रहे हैं, जो अपनी सहज सलौनी सुवास से जन-जन के मन को मुग्ध कर रहे हैं ।
आस्तिक्य
श्रमण संस्कृति की विचारधारा का आधार प्रास्तिकता है । श्रास्तिक और नास्तिक शब्दों को सुधी विज्ञों ने जिस प्रकार विभिन्न विधाओं में संजोया है, पिरोया है, उससे वह चिरचिन्त्य पहेली बनगया है । प्रस्तुत पहेली को संस्कृत व्याकरण के समर्थ आचार्य पाणिनि के
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
"अस्तिनास्ति-दिष्टं मतिः'' सूत्र के रहस्य का उदघाटन करते हुए भट्टोजी दीक्षित ने बड़ी खूबी के साथ सुलझाया है। उन्होंने पूर्वाग्रहरहित सूत्र का निष्कर्ष निर्भीकता के साथ प्रकाशित करते हुए कहा-"जो निश्चित रूप से परलोक व पुनर्जन्म को स्वीकारता है वह आस्तिक है और जो उसे स्वीकारता नहीं वह नास्तिक है।"२ अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो "पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म और इस प्रकार आत्मा के नित्यत्व में निष्ठा रखना ही प्रास्तिक्य है। आस्तिक के अन्तर्मानस में ये विचार-लहरें सदा तरंगित होती हैं कि 'मैं कौन हैं, कहाँ से
आया है, प्रकृत चोले का परित्याग कर कहाँ जाऊँगा और मेरी जीवनयात्रा का अन्तिम पड़ाव कहाँ होगा ?'3 वह प्रात्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है और आत्मा की संस्थिति के स्थान लोक को भी स्वीकारता है, लोक में इतस्ततः परिभ्रमण के कारण कर्म को भी स्वीकारता है और कर्मों से मुक्त होने के साधनरूप क्रिया को भी। श्रमणसंस्कृति का यह दढ मन्तव्य है कि अनादि अनन्त काल से प्रात्मा विराट् विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में इधर-उधर घूम रहा है। गणधर गौतम की जिज्ञासा का
१. अष्टाध्यायी, अध्याय ४, पाद ४, मू० ६० २. अस्ति परलोक इत्येवमतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्तीतिमतिर्यस्य स
नास्तिकः। --सिद्धान्तकौमुदी (निर्णय सागर, बम्बई) पृ० २७३ ३. (क) अत्थि मे आया उववाइए ? नत्थि मे आया उववाइए ? के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ?
___-आचारांग १।१।१ । सू० ३ (ख) कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
___का मे जननी को मे तातः ? इति परिभावय सर्वमसारं, सर्व त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥
~चर्पटपंजरिका-आचार्य शंकर ४. से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी ।
.....आचारांग श्रु त० १, अ० १ उ० १, सू० ५
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श्री ऋषभ पूर्वभव
समाधान करते हुए भगवान श्री महावीर ने कहा- "ऐसा कोई भी स्थल नहीं, जहाँ यह आत्मा न जन्मा हो , और ऐसा कोई भी जीव नहीं, जिसके साथ मातृ, पितृ, भ्रातृ, भगिनी, भार्या, पुत्र-पुत्री-रूप सम्बन्ध न रहा हो। गौतम को सम्बोधित कर भगवान श्री महावीर ने कहा-हे गौतम ! तुम्हारा और हमारा सम्बन्ध भी आज का नहीं, चिरकाल पुराना है। चिरकाल से तू मेरे प्रति स्नेह सद्भावना रखता रहा है। मेरे गुणों का उत्कीर्तन करता रहा है। मेरी सेवा भक्ति करता रहा है, मेरा अनुसरण करता रहा है। देव व मानव भव में एक बार नहीं, अपितु अनेक बार हम साथ रहे हैं। स्पष्ट है कि साधारण सांसारिक आत्मा की तरह ही श्रमण संस्कृति के आराध्यदेव तीर्थङ्कर व बुद्ध भी, तीर्थङ्कर व बुद्ध बनने के पूर्व, नाना गतियों में भ्रमरण करते रहे हैं। श्रमण संस्कृति ने ब्राह्मणासंस्कृति की तरह उन्हें नित्यबुद्ध व नित्यमुक्त रूप ईश्वर नहीं कहा है और न उन्हें ईश्वर का अवतार या अंश ही कहा है। उनका जीवन प्रारम्भ में कालीमाई की तरह काला था, उन्होंने साधना के साबुन से जीवन को माँजकर किस प्रकार निखारा, इसका विशद विश्लेषण प्रागम व आगमेतर साहित्य में किया गया है।
५. जाव किं सव्वपाणा उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असति अदुवा अणंतखुत्तो।
-भगवती सूत्र श० २, उ० ३ ६. जीवे सव्वजीवाणं माइत्ताए, पियत्ताए, भाइत्ताए, भगिणित्ताए, भज्जत्ताए, पुत्तत्ताए, धूयत्ताए, सुण्हत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो ।
--भगवती शतक १२, उद्द० ७ ७. समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-चिरसंसिट्ठोऽसि
मे गोयमा ! चिरसंथुओऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचिमोऽसि मे गोयमा ! चिरजुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा ! चिरागुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सए भवे किं परं........ ।
--भगवती शत० १४, उ०७
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सुनहरे चित्र
श्रमण संस्कृति दो प्रधान धाराओं में प्रवाहित है। एक जैन संस्कृति और दूसरी बौद्धसंस्कृति । दोनों ही धाराओं में अपने-अपने आराध्यदेवों के पूर्वभवों का कथन है। जातककथा में बुद्धघोष ने महात्मा बुद्ध के पाँच सौ-सैंतालीस भवों का निरूपण किया है। उन्होंने बोधिसत्त्व के रूप में तपस्वी, राजा, वृक्ष, देवता, गज, सिंह, तुरङ्ग, शृंगाल, कुत्ता, बन्दर, मछली, सूअर, भैंसा, चाण्डाल, आदि अनेक जन्म ग्रहण किये । बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए उन्होंने कैसा और किस प्रकार जीवन जीया, यह उनके जीवनप्रसंगों के द्वारा बताया गया है । बुद्धत्व की उपलब्धिहेतु एक भव का प्रयत्न नहीं, अपितु अनेक भवों का प्रयत्न अपेक्षित है। जैन संस्कृति के समर्थ आचार्यों ने भी तीर्थङ्करों के पूर्वभवों के सुनहरे चित्र प्रस्तुत किये हैं। उन्हीं ग्रन्थों के आधार से अगली पंक्तियों में भगवान श्री ऋषभदेव के पूर्वभवों का चित्रण किया जा रहा है।
किसी भी महान पुरुष के वर्तमान का सही मूल्यांकन करने के के लिए उसकी पृष्ठभूमि को देखना अत्यन्त आवश्यक है । उससे हमें पता चलता है कि आज के महान पुरुष की महत्ता कोई आकस्मिक घटना नहीं, वरन जन्म जन्मान्तरों में की गई उसकी साधना का ही परिणाम है। पूर्वभवों का वर्णन उसके क्रम-विकास का सूचक है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर जैन इतिहास के लेखकों ने भगवान श्री ऋषभदेव के पूर्व भवों का विवेचन किया है, जिनसे प्रतीत होता है कि किस प्रकार क्रमशः उनकी आत्मा बलवत्तर होती गई और अन्त में उसका श्री ऋषभदेव के रूप में विकास सामने आया। ___आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूणि, आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, और कल्पसूत्र की टीकाओं में श्री ऋषभदेव के तेरह भवों का उल्लेख है और दिगम्बराचार्य जिनसेन ने
८. बौद्ध धर्म क्या कहता है ?
-लेखक कृष्णदत्त भट्ट पृ० २७ ६. धण-मिहुण-सुर-महव्वल-ललियंग य वइरजंघ मिहुणे य ; सोहम्म-विज्ज-अच्चुय चक्की सव्वट्ठ उसभे य।
-आवश्यक मलय० वृत्ति पृ० १५७।२
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श्री ऋषभ पूर्वभव
महापुराण में व प्राचार्य दामनन्दी ने पुराणसारसंग्रह" में दस भवों का निरूपण किया है । अन्य दिगम्बर विज्ञों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है । श्वेताम्बराचार्यों ने श्री धन्ना सार्थवाह के भव से भवों की परिगणना की है और दिगम्बराचार्यों ने महाबल के भव से उल्लेख किया है । इनके अतिरिक्त अनेक जीवनप्रसंगों में भी अन्तर है ।
यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन भवों की जो परिगणना की गई है वह सम्यक्त्व उपलब्धि के पश्चात् की है । " श्री ऋषभदेव के जीव को अनादि काल के मिथ्यात्व रूपी निविड अन्धकार में से सर्वप्रथम धन्ना (धन) सार्थवाह के भव में मुक्ति मिली थी और सम्यग्दर्शन के अमित आलोक के दर्शन हुए थे ।
[१) धन्ना सार्थवाह
भगवान श्री ऋषभदेव का जीव एक बार अपर महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्ना सार्थवाह बनता है । १२ उसके पास विपुल
•
१०. आद्यो महाबलो ज्ञेयो ललिताङ्गस्ततोऽपरः । वज्रजङ्घस्तथाऽऽर्यश्च श्रीधरः सुविधिस्तथा ॥ अच्युतो वज्रनाभोऽहमिन्द्रश्च वृषभस्तथा । दशैतानि पुराणानि पुरुदेवाऽऽश्रितानि वै ॥
- पुराणसार संग्रह सर्ग० ५, श्लो० ५-६ पृ० ७४ ११. सम्प्रति यथा भगवता सम्यक्त्वमवाप्तं यावतो वा भवानवाप्तसम्यक्त्वः संसारं पर्यटितवान् ।
- आवश्यक मल० वृत्ति १५७/२ १२. तेरणं कारणं तेरणं समएणं अवरविदेहवासे धणो नाम सत्थवाही होत्था । - आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० ११५
( ख ) आवश्यक मल ० वृत्ति, पृ० १५८ ।१
(ग)
आवश्यक चूणिः पृ० १३१
(घ) तत्र चाऽऽसीत् सार्थवाहो, धनो नाम यशोधनः ।
आस्पदं सम्पदामेकं सरितामिव सागरः ॥
— त्रिषष्टि० १|१| ३६ | पृ० २
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
वैभव था, सुदूर विदेशों में वह व्यापार भी करता था। एक बार उसने यह उद्घोषणा करवाई कि जिसे वसन्तपुर व्यापारार्थ चलना है वह मेरे साथ सहर्ष चले । मैं सभी प्रकार की उसे सुविधाएँ दूँगा । शताधिक व्यक्ति व्यापारार्थ उसके साथ प्रस्थित हुए।"
फ
धर्मघोष नामक एक जैन आचार्य भी अपने शिष्यसमुदाय सहित वसन्तपुर धर्म प्रचारार्थ जाना चाहते थे। पर, पथ विकट संकटमय होने से बिना साथ के जाना सम्भव नहीं था । आचार्य ने जब उद्घोषणा सुनी तो श्रेष्ठी के पास गये और श्रेष्ठी के साथ चलने की भावना अभिव्यक्त की । " श्रेष्ठी ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए
१३.
(क) सो खितिपइट्टियातो नगरातो वाणिज्जेण वसन्तपुरं पट्टितो. घोसरण करेइ, जहा --- जो मए सद्धि जाइ तस्साहमुदन्तं वहामि, तं जहा - " खाणेण वा पारणेरण वा वत्थेण वा, पत्तेण वा, ओसहेण वा, भेसज्जेण वा अण्णेण वा जो जेण विणा विसूरइ तेरणं" ति ।
१५.
-- आवश्यक मल० वृ० पत्र १५८ । १
(ख) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ११५ (ग) सार्थवाहो धनस्तस्मिन् सकलेऽपि पुरे ततः । डिण्डिमं ताडयित्वोच्चैः पुरुषानित्यघोषयत् ॥ असौ धनः सार्थवाहो, वसन्तपुरमेष्यति । ये केऽप्यत्र यियासन्ति, ते चलन्तु सहाऽमुना ॥ भाण्डं दास्यत्यभाण्डायाऽवाहनाय च वाहनम् । सहायं चाऽसहायायाऽसम्बलाय च सम्बलम् || दस्युभ्यस्त्रास्यते मार्गे, पदोपद्रवादपि । पालयिष्यत्यसो मन्दान् सहगान् बान्धवानिव ॥
१४. तं च सोऊण बहवे तडियकप्पडियातो पयट्टा ।
- त्रिषष्टि० १1१1४५-४८ पृ० ३।१
- आवश्यक मल० वृ० प० १५८.
आवश्यक चूर्णि० पृ० १३१
( ख ) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति प० ११५
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श्री ऋषभ पूर्वभव
अनुचरों को श्रमणों के लिए भोजनादि की सुविधा का पूर्ण ध्यान रखने का आदेश दिया। प्राचार्य श्री ने श्रमणाचार का विश्लेषण करते हुए बताया कि श्रमण के लिए प्रौद्देशिक, नैमित्तिक, आदि सभी प्रकार का दूषित आहार निषिद्ध है। उसी समय एक अनुचर आम का टोकरा लेकर आया, श्रेष्ठी ने ग्राम ग्रहण करने के लिए विनीत विनती की। पर, आचार्य श्री ने बताया कि श्रमण के लिए सचित्त पदार्थ भी अग्राह्य है। श्रमण के कठोर नियमों को सुनकर श्रेष्ठी अवाक था ।१७
प्राचार्य श्री भी सार्थ के साथ पथ को पार करते हुए बढ़े जा रहे थे। वर्षा ऋतु आई । आकाश में उमड़-घुमड़ कर घनघोर घटाएँ छाने लगी एवं गम्भीर गर्जना करती हुई हजार-हजार धाराओं के रूप में बरसने लगी। उस समय सार्थ भयानक अटवी में से गुजर रहा था। मार्ग कीचड़ से व्याप्त था । सार्थ उसी अटवी में वर्षावास व्यतीत करने हेतु रुक गया। प्राचार्य श्री भी निर्दोष स्थान में स्थित हो गये । १९
(ग) नवरं इहं तेण समं गच्छो साहूणं सम्पट्टितो ।
[प्पर्य हायक मल० वृ० पृ० १५८।१ (घ) अत्रान्तरे धर्मघोष आचार: तुम्भं कप्पइ । धर्मेण पावयन् पृथ्वों साथरियमसंकायौ ।।
ग स -त्रिषष्ठि १११।५१३।१ १६. धनेन पृष्टास्त्वाचार्याः समागमनकारणम् ।
वसन्तपुरमेष्यामस् त्वत्सार्थेनेत्यचीकथन् । सार्थवाहोऽप्युवाचवं धन्योऽद्य भगवन्नहम् । अभिगम्या यदायाता मत्साथै न च यास्यथ ।
-त्रिषष्ठि ११११५३-५४।३।१ १७. त्रिषष्ठि ११११५५ से ६१ पृ० ३।२ १८. (क) धणसत्थवाह घोसण,
जइगमरणं अडवि वासठाणं च ।
-आवश्यक नियुक्ति, गा०१६८ (ख) आवश्यक चूणि, जिन पृ० १३१ (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११५
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
- उस अटवी में सार्थ को अपनी कल्पना से अधिक रुकना पड़ा, अतः साथ की खाद्य सामग्री समाप्त हो गई । क्षुधा से पीड़ित सार्थ अरण्य में कन्द मूलादि की अन्वेषणा कर जीवन व्यतीत करने लगा।
वर्षावास के उपसंहार काल में धन्ना सार्थवाह को अकस्मात् स्मृति आई कि "मेरे साथ जो प्राचार्य पाये थे उनकी आज तक मैंने सुध नहीं ली। उनके पाहार की क्या व्यवस्था है, इसकी मैंने जाँच नहीं की। कन्दमूलादि सचित्त पदार्थों का वे उपभोग नहीं करते।" वह शीघ्र ही प्राचार्य के पास गया और पाहार के लिए अभ्यर्थना की।२१
(घ) सो य सत्थो जाहे अडविमझ सम्पत्तो, ताहे वासारत्तो जातो,
ताहे सो सत्थवाहो अतिदुग्गया पन्थ त्ति काऊण तत्थेव सत्थनिवेसं कावासावासं ठितो, तम्मि ठिए सव्वो सत्थो ठिओ।
___-आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० ५० १५८।१ (ङ) त्रिषष्ठि ११११०० ।
त्रिषष्ठि १।१।१०२। २०. (क) जाहे य दीया वलियाणं निट्ठियं भोयरणं, ताहे कन्दमूलाई
समुद्दिन.. " स्तस्मिन्
वोच्च
शाम
-आवश्यक चूणि पृ० ११५ (ख) जाहे य तेसि तत्.दुयाणं भोयणं निट्ठियं, ताहे ते कन्दमूलफलाणि समुद्दिसिउमारद्धा ।
__-आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० १५८।१ (ग) भूयस्त्वात् सार्थलोकस्य दीर्घत्वात् प्रावृषोऽपि च ।
अत्रुट्यत् तत्र सर्वेषां पाथेययवसादिकम् ।। ततश्चेतस्ततश्चेलुः कुचेलास्तापसा इव । खादितु कन्दमूलादि क्षुधार्ताः सार्थवासिनः ॥
___-त्रिषष्ठि १११।१०३-१०४ (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति ११५
आवश्यकनियुक्ति गा० १६८ । (ख) आवश्यकचूणि पृ० १३२ ।
२१.
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श्री ऋषभ पूर्वभव
प्राचार्य श्री ने श्रेष्ठी को कल्प्य और प्रकल्प्य का परिज्ञान कराया । श्रेष्ठी ने भी कल्प्य प्रकल्प्य का परिज्ञान कर उत्कृष्ट भावना से प्रासुक विपुल घृत दान दिया ।२२ फलस्वरूप सम्यकूत्त्व की उपलब्धि हुई 123
२२.
२३.
(ग) एवं काले वच्चति थोवावसेसे वासारते धणस्स चिन्ता जाताको एत्थ सत्थे दुक्खितोत्ति ? ताहे सरियं जहा मए समं साहुणो आगया तेसि कंदाई न कप्पंतित्ति, ते दुक्खिया महातवस्सियो, तोसि कल्लं देमि, ततो पभाए ते निमंतिया ।
(घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११५ ।
(ख)
( ग )
(घ)
- आवश्यक मल० वृ० प० १५८ ।१
बहु बोली वासे चिन्ता घयदाणभासि तया ।
११
- आवश्यक नियुक्ति गा० १६८
आवश्यकचूर्णि पृ० १३२ । आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति ११५ ।
ते भणन्ति - जं अम्हं कप्पियं होज्जा तं गेण्हेज्जामो । तेण पुच्छियं भयवं ! किं पुण तुम्भं कप्पइ ? साहूहि भणियं-जं अम्ह निमित्तमकयमकारियमसंकप्पियमहापवत्तातो पाकातो भिक्खामित्तं " "ततो तेण साहूण फासूयं विउलं घयदारणं दिन्नं ।
(ङ) धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं पुण्योऽहमिति चिन्तयन् । रोमाञ्चितवपुः सर्पिः साधवे स स्वयं ददौ || आनन्दाश्र जलैः पुण्यकन्दं कन्दयन्निव । घृतदानावसानेऽथ धनोऽबन्दत तौ मुनी ॥ सर्वकल्याणसंसिद्धी सिद्धमन्त्रसमं ततः । वितीर्य धर्मलाभं तो जग्मतुनिजमाश्रयम् ॥
-आवश्यक मल० वृ० प० १५८।१
तदानों सार्थवाहेन दानस्याऽस्य प्रभावतः । लेभे मोक्षतरोर्बीजं बोधिबीजं सुदुर्लभम् ||
- त्रिषष्ठि० १।१।१४०-१४२ ५० ६
-- त्रिषष्ठि १।१।१४३५० ६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
[२] उत्तरकुरु में मनुष्य
वहाँ से धन्ना सार्थवाह का जीव आयु पूर्ण कर दान के दिव्य प्रभाव से उत्तरकुरुक्षेत्र में मनुष्य हुआ।२४ [३] सौधर्म देवलोक . वहाँ से भी प्रायुपूर्ण होने पर धन्ना सार्थवाह का जीव सौधर्म कल्प में देव रूप में उत्पन्न हया ।"
२४. सो अहाउयं पालइत्ता तेण दाणफलेण उत्तरकुरुमरगुतो जातो ।
-~-आवश्यक चूणि पृ० १३२ (ख) तेण दाणफलेण उत्तरकुराए मणूसो जाओ।
__ ---आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, पृ० ११६ (ग) सो य अहाउयं पालित्ता कालमासे कालं किच्चा तेण दाणफलेण उत्तरकुराए मणूसो जातो।
--आवश्यक मल० वृत्ति० ५० १५८।१ (घ) कालेन तत्र पूर्णायुः कालधर्ममुपागतः ।
आस्थितकान्तसुषमेषूत्तरेषु कुरुष्वसौ ।। सीताना तरतटे जम्बूवृक्षानुपूर्वतः ।। उत्पेदे युग्मधर्मेण, मुनिदानप्रभावतः ।।
-त्रिषष्ठि १११।२२६-२२७ प० । २५. (क) ततो आउक्खएण उव्वट्टिऊणं सोहम्मेकप्पे तिपलिओवमठितीओ देवो जाओ।
-आवश्यक चूणि पृ० १३२ (ख) ततो आउक्खए सोहम्मे कप्पे देवो उववन्नो ।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६।१ (ग) आवश्यक मल० वृ० ५० १५८।१ (घ) मिथुनायुः पालयित्वा, धनजीवस्ततश्च सः । प्राग्जन्मदानफलतः सौधर्मे त्रिदशोभवत् ।।
-त्रिषष्ठि १।१२३८
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श्री ऋषभ पूर्वभव [४] महाबल२६
वहाँ से च्यवकर धन्ना सार्थवाह का जीव पश्चिम महाविदेह के गंधिलावती विजय में वैतात्य पर्वत की विद्याधर श्रेणी के अधिपति शतबल राजा का पुत्र महाबल हुआ।
आचार्य जिनसेन२८ व आचार्य दामनन्दी ने उसे अतिबल का
२७.
२६. आवश्यक चूणि में आचार्य जिनदास गणि महत्तर ने महाबल, ललिताङ्ग,
वज्रजङ्घ, युगल, सुधर्मदेवलोक इन-पाँच भवों का वर्णन नहीं किया है।
-लेखक तत्तोऽवि चविऊरणं इहेव जम्बुद्दीवे अवरविदेहे गन्धिलावइविजए वेयड्ढपव्वए गन्धारजणवए गन्धसमिद्ध विज्जाहर नगरे"...." सयबलराइणो पुत्तो महाबलो नाम राया जातो।
-~-आवश्यक मल० वृ० ५० १५८।२ (ख) आवश्यक हारिभद्रीया वृ० ५० ११६ (ग) च्युत्वा सौधर्मकल्पाच्च, विदेहेष्वपरेष्वथ ।
विजये गन्धिलावत्यां वैताढ्यपृथिवीधरे ।। गान्धाराख्ये जनपदे, पुरे गन्धसमृद्धके । राज्ञः शतबलाख्यस्य विद्याधरशिरोमणेः ।। भार्यायां चन्द्रकान्तायां पुत्रत्वेनोदपादि सः । नाम्ना महाबल इति, बलेनाऽतिमहाबलः ।।
-त्रिषष्ठि १।१।२३६-२४१ प० १०।१ (घ) उत्तरकुरु सोहम्मे महाविदेहे महब्बलो राया।
--आव० नि० म० वृ० १५६१ तस्याः पतिरभूत्खेन्द्रमुकुटारूढशासनः । खगेन्द्रोऽतिबलो नाम्ना प्रतिपक्षबलक्षयः ॥१२२॥ मनोहराङ्गी तस्याभूत प्रिया नाम्ना मनोहरा ॥१३१॥ तयोर्महाबलख्यातिरभूत्सूनुर्महोदयः ॥१३३॥
-महापुराण पर्व ४। श्लो० १२२, १३१, १३३ पृ० ८२-८३ अलकायां मनोहस्तिनयोऽतिबलस्य च । महाबल इतिख्यातः खेन्द्रोऽभूद् दशमे भवे ।।
-पुराणसार संग्रह २१११
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
पुत्र लिखा है। और आचार्य मलयगिरि व आचार्य हेमचन्द्र ने अतिबल का पौत्र लिखा है।
महाबल के पिता को एक बार संसार से विरक्ति हुई,3२ पुत्र को राज्य दे वह स्वयं श्रमरण बन गये।
एक बार सम्राट महाबल अपने प्रमुख अमात्यों के साथ राज्य
३१.
३०. अइबलरण्णो णत्ता।
-आवश्यकनियुक्ति मल० वृ० १५८ त्रिषष्ठिशला० १।१२५ ३२. अथान्येद्य रसौ राजा निर्वेद विषयेष्वगात् । वितृष्णः कामभोगेषु प्रव्रज्याय कृतोद्यमः ।।
--महापुराण, जिन० ४।१४१।८४ (ख) त्रिषष्ठि १।१।२५० से २६५ । ३३. पुत्र राज्ये निवेश्यैवं स्वयं शतबलस्ततः । आददे शमसाम्राज्यमाचार्यचरणान्तिके ।
-त्रिषष्ठि ११॥२७४ (ख) इति निश्चित्य धीरोऽसावभिषेकपुरस्सरम् ।
सूनवे राज्यसर्वस्वमदितातिबलस्तदा ॥ ततो गज इवापेतबन्धनो निःसृतो गृहात् । बहुभिः खेचरैः साद्ध दीक्षां स समुपाददे ।
___-महापुराण जिन० ४।१५१।१५२ पृ० ८५ ३४. ते स्वयम्बुद्धः सम्भिन्नमतिः शतमतिस्तथा ।
स्वयंबुद्धश्च तत्रासाञ्चक्रिरे मन्त्रिणोऽपि हि ॥
१।१२८७.११
(ख) महामतिश्च सम्भिन्नमतिः शतमतिस्तथा । स्वयंबुद्धश्च राज्यस्य मूलस्तम्मा इव स्थिराः ।।
--महापुराण ४१६१८५
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श्री ऋषभ पूर्वभव
सभा में बैठे हुए मनोविनोद कर रहे थे । उनके प्रमुख चार श्रमात्यों में से स्वयंबुद्ध अमात्य सम्यग्दृष्टि था, संभिन्नमति, शतमति, और महामति ये मिथ्यादृष्टि थे ।
स्वयंबुद्ध ने देखा – सम्राट् भौतिक वैभव की चकाचौंध में जीवन के लक्ष्य को विस्मृत कर चुके हैं। उसने सम्राट् को सम्बोध देने हेतु धर्म के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए कहा- दया धर्म का मूल है । प्राणों की अनुकम्पा ही दया है। दया की रक्षा के लिए ही शेष गुरणों का उत्कीर्तन किया गया है। दान, शील, तप, भावना, योग, वैराग्य उस धर्म के लिंग हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ही सनातन धर्म है । 35
अन्य अमात्यों ने परिहास करते हुए कहा- मंत्रिवर ! जब आत्मा ही नहीं है तब धर्म-कर्म का प्रश्न ही नहीं रहता । जिस प्रकार महुप्रा, गुड़, जल, आदि पदार्थों को मिला देने से उनमें मादक शक्ति पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से चेतना
३५. कदाचिदथ तस्याऽऽसीद्वर्षवृद्धिदिनोत्सवः । मङ्गलैर्गीतवादित्रनृत्यारम्भैश्च संभृतः ।। सिंहासने तमासीनं तदानीं खचराधिपम् |
३६.
स्वयम्बुद्धोऽभवत्तेषु सम्यग्दर्शनशुद्धधीः । शेषा मिथ्याहस्ते मी सर्वे स्वामिहितोद्यताः ॥
१५.
--महापुराण० जिन० प० ५ श्लो० १-२ पृ० ९१
(ख) पुराणसार श्लो० ७, दयामूलो भवेद्धर्मो दयाप्राण्यनुकम्पनम् । दयायाः परिरक्षार्थं गुणाः शेषाः प्रकीर्तिताः ।। धर्मस्य तस्य लिङ्गानि दमः क्षान्तिरहिंस्रता । तपो दानं च शीलं च योगो वैराग्यमेव च ॥ अहिंसा सत्यवादित्वमचौर्यं त्यक्तकामता । निष्परिग्रहता चेति प्रोक्तो धर्मः सनातनः ॥
- महापुराण ४।१६२ | पृ० ८६ सर्ग १ । पृ० १
- महापुराण, पर्व ५, श्लो० २१, २२, २३ पु० ६२
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
उत्पन्न हो जाती है । एतदर्थ ही लोक में पृथ्वी आदि तत्त्वों से बने हुए हमारे शरीर से पृथक् रहने वाला चेतना नामक कोई पदार्थ नहीं है । क्योंकि शरोर से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती । संसार में जो पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से पृथक् सिद्ध नहीं होते उनका अस्तित्व भी आकाशकुसुमवत् माना जाता है । 3 वर्तमान के सुखों को त्याग कर भविष्य के सुखों की कल्पना करना "प्राधी छोड़ एक को धावै, ऐसा डूबा थाह न पावै" की लौकिक कहावत चरितार्थ करना है ।
१६
नास्तिक मत का निरसन करते हुए स्वयंबुद्ध अमात्य ने कहापदार्थों को जानने का साधन केवल इन्द्रिय और मन का प्रत्यक्ष ही नहीं, अपितु अनुभव प्रत्यक्ष, योगि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम भी हैं । इन्द्रिय और मन की शक्ति अत्यन्त सीमित है। इनसे तो चार पाँच पीढी के पूर्वज भी नहीं जाने जा सकते तो क्या उनका अस्तित्व भी न माना जाय ? इन्द्रियाँ केवल शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शात्मक मूर्त द्रव्य को जानती हैं और मन उन्हीं पदार्थों का चिन्तन करता है । यदि मन अमूर्त पदार्थों को जानता भी है तो श्रागम दृष्टि से ही । स्पष्ट है कि विश्व के सभी पदार्थ सिर्फ इन्द्रिय और मन से नहीं जाने जा सकते । आत्मा शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं है ।" वह प्ररूपी सत्ता है । ४° प्ररूपी तत्त्व इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते ।
३७. पृथ्व्यप्तेजः समीरेभ्यः समुद्भवति
३८.
३६.
चेतना |
susोदकादिभ्यो, मदशक्तिरिव स्वयम् ||
४०.
(ख) पृथिव्यप्पवनाग्नीनां सङ्घातादिह चेतना । प्रादुर्भवति मद्याङ्गसङ्गमान्मदशक्तिवत् ॥
- त्रिषष्ठि०, १1१1३३१
ततो न चेतना कायतत्त्वात्पृथगिहास्ति नः । तस्यास्तद्व्यतिरेकेणानुपलब्धेः खपुष्पवत् ॥
अरूवी सत्ता'
- महापुराण पर्व ५, श्लो० ३० पृ० ६३
सेण सद्द े ण रूवे, ण गन्धे, ण रसे, ण फासे ।
"
*******
- महापुराण पर्व ५, श्लो० ३१, पृ० ९३
- आचारांग १।५।६।३३३ - आचारांग ११५२६।३३२
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श्री ऋषभ पूर्वभव
आत्म-सिद्धि के प्रबल प्रमारण प्रस्तुत करते हुए उसने कहास्वसंवेदन से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ यह अनुभूति शरीर को नहीं होती, अतएव इस अनुभूति का कर्ता शरीर से भिन्न ही होना चाहिए।४१ सभी को यह विश्वास होता है कि मैं हूँ, पर किसी को भी यह अनुभव नहीं होता कि मैं नहीं हैं।४२
प्रत्येक इन्द्रिय को अपने विषय का ही परिज्ञान होता है, अन्य इन्द्रिय के विषय का नहीं। यदि आत्म-तत्त्व को न माना जाय तो सभी इन्द्रियों के विषयों का जोड़ रूप [संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, किन्तु पापड़ खाते समय स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-इन पाँचों का संकलित ज्ञान स्पष्ट होता है । एतदर्थ इन्द्रियों के विषयों का संकलनात्मक परिज्ञान करने वाले को इन्द्रियों से पृथक् मानना होगा और वही आत्मा है।
आत्मा और शरीर एक नहीं है । जो चैतन्य है, वह शरीर रूप नहीं है और जो शरीर है, वह चैतन्य रूप नहीं है, क्योंकि दोनों एक दूसरे से स्वभावतः विसदृश हैं। चैतन्य चित्स्वरूप है-ज्ञान दर्शन रूप है और शरीर अचित्स्वरूप है-जड़ है।४३ अात्मा और शरीर का सम्बन्ध
४१. स्वसंवेदनवेद्योऽयमात्माऽस्ति सुखदुःखवित् ।
निषेधित बाधाभावाच्छक्यते न हि केनचित् ।। सुखितोऽहं दुःखितोऽहमिति कस्याऽपि जातुचित् । जायते प्रत्ययो नैव विनाऽऽत्मानमबाधितः ।
-त्रिषष्ठि० १।१।३४७-३४८ । पृ० १३ ४२. सर्वोह्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति ।
---ब्रह्मभाष्य १।१।१ । आचार्य शंकर ४३. कायात्मकं न चैतन्यं, न कायश्चेतनात्मकः । मिथो विरुद्धधर्मत्त्वात्तयोश्चिदचिदात्मनोः ॥
-महापुराण पर्व ५, श्लो० ५१ पृ० ६६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
वस्तुतः तलवार और म्यान की तरह है । आत्मा तलवार है और शरीर म्यान है।४४ ... भूतचतुष्टय से आत्मा की उत्पति होना संभव नहीं है। क्योंकि जो जड़ है उससे चेतन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? वस्तुतः कार्यकारणभाव और गुणगुरिणभाव सजातीय पदार्थों में ही होता है, विजातीयों में नहीं।" पुष्प, गुड और जल के संयोग से मादक शक्ति उत्पन्न होने का उदाहरण देना भी अनुपयुक्त है, क्योंकि गुड़ आदि भी जड़ हैं और उनसे समुत्पन्न मादक शक्ति भी जड़ है । यह तो सजातीय द्रव्य से ही सजातीय द्रव्य की उत्पत्ति हुई, न कि विजातीय द्रव्य की।४६ यदि आप शरीर के साथ ही आत्मा की उत्पत्ति मानते हैं तो जन्मते ही शिशु में दुग्धपान की इच्छा और प्रवृत्ति कैसे होती है ?" अतः यह स्पष्ट है कि प्रात्मा है, वह नित्य है, फलतः पूर्वभव के संस्कारों से ही ऐसा होता है।
-
४४. कायचैतन्ययो क्यं विरोधिगुणयोगतः । तयोरन्तर्बहीरूपनिर्भासाच्चासिकोशवत् ॥
--महापुराण ५१५२।६६ ४५. न भूतकार्य चैतन्यं घटते तद्गुणोऽपि वा। ततो जात्यन्तरीभावात्तद्विभागेन तद्ग्रहात् ॥
--महापुराण ५।५३।६६ ४६. एतेनैव प्रतिक्षिप्तं मदिराङ्गनिदर्शनम् । मदिराङ्गष्वविरोधिन्या मदशक्तेविभावनात् ॥
-महापुराण ५१६५६८ (ख) किञ्च पिष्टोदकादिभ्यो, मदशक्तिरचेतना । अचेतनेभ्यो जातेति दृष्टान्तश्चेतने कयम् ? ॥
-त्रिषष्ठि १।१।३६१ पृ० १४।१ ४७. विना हि पूर्वचैतन्यानुवृत्ति जातमात्रकः ।। अशिक्षितः कथं बालो, मुखमर्पयति स्तने ? ॥
--त्रिषष्टि १।१३५३ (ख) आद्यन्तौ देहिनां देही न विना भवतस्तनू । पूर्वोत्तरे संविदधिष्ठानत्वान्मध्यदेहवत ॥
-महापुराण ५।६८।६८
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श्री ऋषभ पूर्वभव
इस प्रकार स्वयंबुद्ध के अकाट्य तर्कों से नास्तिकवादी अमात्य परास्त हो गये। सभी ने आत्मा के पृथक् अस्तित्व को स्वीकार किया और महाबल राजा भी अत्यन्त आह्लादित हुआ।४८
स्वयंबुद्ध अमात्य ने अन्य अनेक उपनयों के द्वारा सम्राट को यह बताया कि शुभ और अशुभ कृत्यों का फल भी क्रमशः शुभ
और अशुभ ही होता है । ___वार्ता का उपसंहार करते हुए उसने कहा-राजन् ! आज प्रातः मैं नन्दन वन में परिभ्रमणार्थ गया था, वहाँ दो विशिष्ट लब्धिधारी मुनिवर पधारे । मैंने उनसे आपकी अवशेष आयु के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की तो उन्होंने बताया कि वह एक माह की ही शेष है । ५१
४८. इति तद्वचनाज्जाता परिषत्सकलैव सा। निरारेकात्मसद्भावे सम्प्रीतश्च सभापतिः ।।
-महापुराण ५।८६।१०१ (ख) त्रिषष्ठि ११
त्रिषष्ठि १११६४००।४४२ (ख) महापुराण पर्व ५ । श्लोक ८६ से २१२, पृ० १०१-११२ ५०. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला हवन्ति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला हवन्ति ।
-औपपातिक सूत्र ५१. ताभ्यां तु भवतो मासमात्रमायुनिवेदितम् । अतस्त्वां त्वरयाम्यद्य, धर्मायैव महामते !
-त्रिषष्ठि ११११४४६ (ख) मासमात्रावशिष्टञ्च जीवितं तस्य निश्चिनु । तदस्य श्रेयसे भद्र ! घटेथास्त्वमशीतकः ।
-महापुराण ५।२२११११३ (ग) मासावसेसाऊ........
-आव० नि० मल० वृ० पृ० १५८ (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सम्राट् महाबल अमात्य के मुँह से मुनि की भविष्यवाणी सुनकर सकपका गया । मृत्यु के भयानक आतङ्क से वह विह्वल हो गया । अमात्य ने निवेदन किया- राजन् ! घबराइये नहीं, घबराने वाला योद्धा रणक्षेत्र में जूझ नहीं सकता ।
२०
श्रमात्य की प्रेरणा से पुत्र को राज्यभार सँभलाकर महाबल मुनि बने । १२ दुष्कृत्यों की आलोचना की, और बावीस दिन का संथारा कर समाधि पूर्वक आयुष्य पूर्ण किया । ५३
५२. आमेत्युदित्वा स्वसुतं स्वे पदे प्रत्यतिष्ठिपत् । महाबलस्तदाचार्यः प्रासादे प्रतिमामिव ॥
५३.
(ख) सुतायातिबलाख्याय दत्वा राज्यं समृद्धिमत् । सर्वानापृच्छ्य मन्त्र्यादीन् परं स्वातन्त्र्यमाश्रितः ॥
- त्रिषष्ठि १।१।४५२
(क) बावीसदिवसे भत्तपच्चक्खाणं काउं मरिऊण ।
(घ) यावज्जीवं
- महापुराण ५।२२८।११३
( ख )
आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६ । (ग) समाहितः स्मरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । द्वाविंशति दिनान् कृत्वाऽनशनं स व्यपद्यत ।
- आवश्यक मल० वृ० प० १५८/२
- त्रिषष्ठि १|१|४४९ | पृ० १७
कृताहारशरीरत्यागसंगरः । गुरुसाक्षि समारुक्षद् वीरशय्याममूढधीः ॥
- महापुराण ५।२३०।११३
देहाहारपरित्यागव्रतमास्थाय धीरधीः । परमाराधनाशुद्धिं स भेजे सुसमाहितः ॥
- महा० ५।२३३।११४
द्वाविंशतिदिनान्येष कृतसल्लेखना विधिः । जीवितान्ते समाधाय मनः स्वं परमेष्ठिषु || --महा० पर्व ५ । श्लोक २४८ । पृ० ११५
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श्री ऋषभ पूर्वभव
इस प्रकार धन सार्थवाह का जीव, जो अब तक प्राध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका - सम्यग् दर्शन — तक ही पहुँच पाया था, इस भव में अधिक अग्रसर हुआ। इस बार उसने चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर उठ कर छठे - सातवें गुणस्थान की भूमिका पर पाँव रक्खा ।
[५] ललिताङ्ग देव
महाबल का जीव ऐशान कल्प में ललिताङ्ग देव हुआ *४ और वह वहाँ स्वयंप्रभा देवी में अत्यधिक आसक्त बना | जब स्वयंप्रभा देवी वहाँ से च्यव जाती है तब ललिताङ्ग देव उसके विरह में प्राकुलव्याकुल बन जाता है । १५ स्वयं बुद्ध श्रमात्य, जो इसी कल्प में देव बना था, आकर सान्त्वना देता है । 48 स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से
५४.
५५.
५६.
ईसार कप्पे सिरिप्पभविमारणे ललियंगतो नाम देवो जातो । - आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० प० १५८ ( ख ) ईसाणे कप्पे सिरिप्पभेविमाणे ललियंओ नाम देवो जाओ । -- आवश्यक हरिभद्रीयावृत्ति प० ११६
त्रिषष्ठि० १|१|४६०।४६४
( ग ) (घ) देहभारमथोत्सृज्य लघूभूत इव क्षणात् । प्रापत् स कल्पमैशानम् अनल्पसुखसन्निधिम् ।। तत्रोपपादशय्यायाम् उदपादि महोदयः । विमाने श्रीप्रभे रम्ये, ललिताङ्गः सुरोत्तमः ॥
दलं वृक्षादिव दिवस्ततोऽच्योष्ट स्वयम्प्रभा । आयुः कर्मणि हि क्षीणे, नेन्द्रोऽपि स्थातुमीश्वरः ॥ आक्रान्तः पर्वतेनेव, कुलिशेनेव ताडितः । प्रियाच्यवनदुःखेन, ललिताङ्गोऽथ मूच्छितः ॥
इतरच
२१
- महापुराण ५।२५३-२५४।११६
स्वामिमरणोत्पन्न राग्यवासनः ।
स्वयम्बुद्धोऽप्यात्तदीक्ष: श्रीसिद्धाचार्यसन्निधौ ।
-त्रिषष्ठि १|१|५१५- ५१६
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२२
ऋषभदेव : एक परिशीलन
च्यव कर मानवलोक में निर्नामिका नामक बालिका होती है और वहाँ केवली भगवान् के उपदेश से श्राविका बन कर आयु पूर्ण कर पुनः उसी कल्प में ललिताङ्ग देव की प्रिया स्वयंप्रभा देवी बनती है । १७ ललिताङ्ग देव मोह की प्रबलता के कारण पुनः उसमें आसक्त बनता है ।“ अन्त में ललिताङ्ग देव नमस्कार महामन्त्र का जाप करते हुए आयु पूर्ण करता है । ५९
[६] वज्रजङ्घ
वहाँ से च्यवकर ललिताङ्ग देव का जीव जम्बूद्वीप की पुष्कलावती विजय में लोहार्गल नगर के अधिपति सुवर्णजंघ सम्राट् की पत्नीलक्ष्मी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । वज्रजंघ नाम दिया गया । ६१
५७.
५८.
५६.
६०.
सुचिरं निरतीचारं पालयित्वा व्रतं सुधीः । ऐशाने दृढधर्माख्य, इन्द्रसामानिकोऽभवत् ॥ स पूर्वभवसम्बन्धाद् बन्धुवत् प्रेमबन्धुरः । आश्वासयितुमित्यूचे, ललिताङ्गमुदारधीः ।।
- त्रिषष्ठि १।११५२०-५२२
च ।
पल्योपमपृथक्त्वावशिष्टमायुर्यदास्थ तदोदपादि पुण्यैः स्वैः प्रेयस्यस्य स्वयंप्रभा ।।
-
- महापुराण श्लो० २८६ ५०५, पृ० ११८
सैषा स्वयंप्रभाऽस्यासीत् परा सौहार्दभूमिका | चिरं मधुकरस्येव प्रत्यग्रा चूतमञ्जरी ॥
-- महापुराण श्लो० २८८ पर्व ० ५ पृ० ११८ नमस्कारपदान्युच्चैः अनुध्यायन्नसाध्वसः । साध्वसौ मुकुलीकृत्य करौ प्रायाद श्यताम् ॥
- महापुराण श्लो० २५, पर्व० ६, पृ० १२२ (क) पुक्खलावइविजए लोहग्गलणगरसामी वइरजंधो नाम राजा
जाओ ।
- आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति० पृ० ११६ (ख) ततो आउक्खए चइऊण इहेव जंबुद्दीचे दीवे पुक्खलाइविजए लोहग्गल नगरसामी वइरजंघो नाम राया जातो ।
- आवश्यक मल० वृ० १५८
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श्री ऋषभ पूर्वभष
महापुराणकार ने माता का नाम वसुन्धरा और पिता का नाम वज्रबाहु और नगर का नाम उत्पलखेटक दिया है । ६३
६२
स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से प्रायु पूर्ण कर प्राचार्य श्री हेमचन्द्र के अभिमतानुसार पुण्डरीकिणी नगरी के स्वामी वज्रसेन राजा की धर्मपत्नी “गुणवती" रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुई । जन्म के 'पश्चात् उसका नाम 'श्रीमती' रखा । ६४ श्राचार्य श्री जिनसेन व आचार्य
६१.
अथ कन्दलितानन्दावमुष्य दिवसे शुभे । वज्रजङ्घ इति प्रीतौ पितरौ नाम चक्रतुः ।। ६२. वज्रबाहुः पतिस्तस्य वज्रीवाज्ञापरोऽभवत् । कान्ता वसुन्धरास्यासीद् द्वितीयेव वसुन्धरा || तयोः सूनुरभूद्द वो ललिताङ्गस्ततश्च्युतः । वज्रजंघ इति ख्यातिं दधदन्वर्थतां गताम् ॥
(ग) जम्बूद्वीपे ततः पूर्वविदेहेषुपसागरम् । महानद्याश्च सीताभिधानाया उत्तरे तटे || विजये पुष्कलावत्यां लोहार्गल महापुरे । राज्ञः सुवर्णजङ्घस्य लक्ष्म्यां पत्न्यां सुतोऽभवत् ।। - त्रिषष्ठि० १/१/६२४-६२५
६४.
६३. जम्बूद्वीपे महामेरोः विदेहे पूर्वदिग्गते । या पुष्कलावतीत्यासीत् जानभूमिर्मनोरमा || स्वर्गभूनिर्विशेषां तां पुरमुत्पलखेटकम् ।
२३
- त्रिषष्ठि० १।१।६२६
- महापुराण श्लो० २८/२६ ० ६ पृ० १२२
Compon
- महापुराण दलो० २६ । २७ पर्व ० ६। पृ० १२२ स्वयम्प्रभाऽपि दुःखार्ता, कालेन कियताऽप्यथ । धर्मकर्मणि संलीना, व्यच्योष्ट ललिताङ्गवत् ॥ नगर्यां पुण्डरीकियां विजयेऽत्रैव चक्रिणः । वज्रसेनस्य भार्यायां गुगवयां सुताऽभवत् ॥ सर्वलोकातिशायिन्या, श्रियाऽसो संयुता ततः । श्रीमतीत्यभिधानेन पितृभ्यामप्यधीयत 11
- त्रिषष्ठि० १|१|६२७-६२६
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२४
ऋषभदेव : एक परिशीलन
श्री दामनन्दी के मतानुसार उनके पिता का नाम "वज्रदन्त" और माता का नाम "लक्ष्मीमती" था।६५
एक बार "श्रीमती" महल की छत पर धूम रही थी कि उसी समय सन्निकटवर्ती उद्यान में एक मुनि को केवल ज्ञान उत्पन्न हना। केवल महोत्सव करने हेतु देवगण आकाशमार्ग से आ-जा रहे थे ।६६ आकाश मार्ग से जाते हुए देवसमूह को निहार कर श्रीमती को पूर्वभव की स्मृति उबुद्ध हुई, उसने उस स्मृति को एक पट्ट पर चित्रित
(ख) नामतः श्रीमती ख्याता रूपविद्याकलागुणः
-पुराणसार २६।१।६ ६५. ......"तस्याः पतिरभून्नाम्ना बज्रदन्तो महीपतिः ।।
महापुराण श्लो० ५८। पर्व ६, पृ० १२४ लक्ष्मीरिवास्य कान्ताङ्गी लक्ष्मीमतिरभूत्प्रिया ॥
-वही श्लो० ५६ प० ६, पृ० १२४ तयोः पुत्री बभूवासौ विश्रु ता श्रीमतीति या ।
-वही श्लो० ६० पर्व० ६, पृ० १२४ (ख) पुराण सार संग्रह २५।१।६।। ६६. (क) ततो मनोरमोद्याने सुस्थितस्य महामुनेः । उत्पन्ने केवलज्ञाने ददर्शाऽऽगच्छतः सुरान् ।।
--त्रिषष्ठि १।११६३३ (ख) तदेतदभवत्तस्याः संविधानकमीदृशम् ।
यशोधरगुरोस्तस्मिन् पुरे कैवल्यसंभवे ।। मनोहराख्यमुद्यानम्, अध्यासीनं तमचितुम् । देवाः सम्प्रापुरारूढविमानाः सह सम्पदा ।
-महापुराण श्लो० ८५-८६, पर्व ६। पृ० १२७ ६७. दृष्टपूर्व मया क्वेदमित्यूहापोहकारिणी। जन्मान्तरागि पूर्वाणि निशास्वप्नमिवाऽस्मरत् ॥
-त्रिषष्ठि १।१।६३४ (ख) देवागमे क्षणात्तस्याः प्राग्जन्मस्मृतिराश्वमूत् ।
-महापुराण श्लो० ६१, पर्व ६ । पृ० १२७ (ग) पुराणसार संग्रह २६-२७-११६
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श्री ऋषभ पूर्वभव
किया और अपने प्रति स्नेहमूर्ति पण्डिता परिचारिका को प्रदान किया। पण्डिता परिचारिका प्रस्तुत चित्रपट को लेकर राजपथ पर, जहाँ चक्रवर्ती वज्रसेन की वर्षगाँठ मनाने हेतु अनेक देशों के राजकुमार आ-जा रहे थे, खड़ी होगई ।६९ वज्रजंघ राजकुमार भी, जो पूर्वभव में ललिताङ्ग देव था, वहाँ आया हुआ था। उसने ज्यों ही वह चित्र-पट्ट देखा त्योंही उसे भी पूर्वभव की स्मृति जागृत हो गई। उसने चित्रपट्ट का सारा इतिवृत्त पण्डिता परिचारिका को बताया, और पण्डिता परिचारिका ने श्रीमती को निवेदन किया। श्रीमती की प्रेरणा से परिचारिका ने चक्रवर्तीसम्राट् वज्रसेन को श्रीमती और वज्रजंघ के पूर्वभव का परिचय प्रदान किया। चक्रवर्ती वज्रसेन ने 'श्रीमती' का वज्रजंघ के साथ पाणिग्रहण कर दिया।
६८. मया विलिखितं पूर्वभवसम्बन्धिपट्टकम् ।
-महापुराण श्लो० १७० पर्व ६, पृ० १३३ ६६. चक्रिणो वज्रसेनस्य वर्षग्रन्थिरभूत् तदा ।
प्रस्तावादाययुस्तत्र, भूयांसो वसुधाधवाः ॥ पण्डिता राजमार्गेऽथ, तमालेख्यपटं स्फुटम् । विस्तार्य तस्थौ श्रीमत्या मनोरथमिवाऽल घुम् ।।
-त्रिषष्ठि ११११६४६-६५० ७०. अत्रास्मद्भवसम्बन्धः पूर्वोऽलेखि सविस्तरम् ।
श्रीप्रभाधिपतां साक्षात् पश्यामीवेह मामिकाम् ।। अहो स्त्रीरूपमत्रेद नितरामभिरोचते । स्वयम्प्रभाङ्गसंवादि विचित्राभरणोज्ज्वलम् ॥
-महापुराण श्लो० १२१-१२२ पर्व ७, पृ० १४८ (ख) आमेति पण्डिताऽप्युक्ता श्रीमत्याः पार्श्वमेत्य च । तत्सर्वमाख्यत् हृदयविशल्यकरणौषधम् ।।
-त्रिषष्ठि १३१६८२ ७१. पितुर्व्यज्ञपयत् तच्च, श्रीमती पण्डितामुखा । अस्वातन्त्र्यं कुलस्त्रीणां, धर्मो नैसर्गिको यतः ॥
-त्रिषष्ठि १।१।६८३ ७२. तदगिरामुदितः सद्यः स्तनितेनेव वहिणः ।
वनसेननुपो वनजङ्घमाजूहवत् ततः ॥
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
. महापुराणकार ने भी प्रस्तुत प्रसंग को कुछ हेर-फेर के साथ निरूपित किया है, पर तथ्य यही है ।
श्रीमती के साथ वज्रजंघ पुनः भोगों में आसक्त हुआ।४ सम्राट सुवर्णजंघ ने वज्रजंघ को राज्य देकर स्वयं दीक्षा ग्रहण की। और चक्रवर्ती वज्रसेन ने भी अपने पुत्र पुष्कलपाल को राज्य देकर दीक्षा ली। वह तीर्थङ्कर हुए। चक्रवर्ती वज्रसेन के संयम
कुमारमूचे भूपालोऽस्मत्पुत्री श्रीमतीत्यसौ । भवत्विदानी भवतो, गृहिणी पूर्वजन्मवत् ।। तथेति प्रतिपन्ने च, कुमारेणोदवाहयत् । श्रीमती भूपतिः प्रीतो, हरिणेवोदधिः श्रियम् ॥
-त्रिषष्ठि १११।६८५ से ६८७ (ख) ततः पाणौ महाबाहुः वज्रजङ्घोऽग्रहीन्मुदा। श्रीमती तन्मृदुस्पर्शसुखामीलितलोचनः ।।
-महापुराण श्लो० २४६, पर्व० ७, पृ० १६० ७३. महापुराण पर्व ६-७, पृ० १२२ से १६० । ७४. (क) विलसन् वज्रजङ्घोऽपि, श्रीमत्या सह कान्तया । उवाह लीलया राज्यमम्भोजमिव कुञ्जरः ॥
___-त्रिषष्ठि १।११६६१ (ख) महापुराण श्लो० १-३२, पर्व ८, पृ० १६७-१६६ ७५. योग्यं ज्ञात्वा वज्रजङ्घ, स्वर्णजङ्घोऽथ भूपतिः । राज्ये निवेशयामास, स्वयं दीक्षामुपाददे ।।
-त्रिषष्ठि ११११६६६ (ख) अभिषिच्य सुतं राज्ये वज्रजङ्घमतिष्ठिपत् ॥५६
स राज्यभोगनिविण्णः तूर्णं यमधरान्तिके । नृपः साद्धं सहस्रार्द्ध मितैर्दीक्षामुपाददे ।
-महापुराण श्लो० ५६-५७, पर्व ८ पृ० १७१ सूनोः पुष्कलपालस्य, दत्त्वा राज्यश्रियं निजाम् । प्रावाजीद् वज्रसेनोऽपि, जज्ञे तीर्थकरश्च सः ॥
-त्रिषष्ठि १।११६६० ७७. त्रिषष्ठि ११११६६० ।
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श्री ऋषभ पूर्वभव
लेने के पश्चात् सीमाप्रान्तीय राजा पुष्करपाल की प्राज्ञा का उलंघन करने लगे । वज्रजंघ उसकी सहायतार्थ गया और शत्रुओं पर विजय वैजयन्ती फहराकर पुनः अपनी राजधानी लौट रहा था कि उसे ज्ञात हुआ कि प्रस्तुत अरण्य में दो मुनियों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है और उनके दिव्य प्रभाव से दृष्टिविष सर्प भी निर्विष हो गया है। वज्रजंघ मुनियों के दर्शन हेतु गया । उपदेश सुन वैराग्य उत्पन्न हुआ पुत्र को राज्य देकर संयम ग्रहण करूंगा, इस भावना के साथ वह वहाँ से प्रस्थान कर राजधानी पहुँचा ।" इधर पुत्र ने सोचा कि पिताजी जीते जी मुझे राज्य देंगे नहीं, तदर्थ उसने उसी रात्रि को वज्रजंघ के महल में जहरीला धुआँ फैलाया, जिसकी गंध से वज्रजंघ और 'श्रीमती' दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए | "
७९
महापुराणकार आचार्य जिनसेन ने प्रस्तुत घटना का इस रूप में चित्रण किया है - "वज्रदन्त चक्रवर्ती ने अपने लघुभ्राता अमिततेज
७८.
उत्पेदे
केवलज्ञानं,
द्वयोरत्राsनगारयोः ।
तत्र देवागमोद्योताद् दृग्विषो ( निर्विषोऽभवत् ॥
-त्रिषष्ठि १|१|७०२
७६. त्रिषष्ठि १1१1७०८-७०६ ।
८०. तदिदानीं पुरीं गत्वा, दत्त्वा राज्यं च सूनवे । हंसस्येव गति हंसः श्रयिष्येऽहं पितुर्गतिम् ॥ संवादिन्या व्रतादानेऽनुस्यूतमनसेव सः । सहितः श्रीमतीदेव्या, प्राप लोहार्गलपुरम् ॥
- त्रिषष्ठि १1७१०-७११
८१. पुण रज्जकंखिणा वासघरे जोगघूवप्पयोगेण मारितो ।
-आव० मल० वृ० प० १५८ विषधूपं व्यधात् पुत्रस्तयोस्तु सुखसुप्तयोः । कस्तं निरोद्ध मीशः स्याद, गृहादग्निमिवोत्थितम् ? तद्ध पधूमैरधिकैर्जीवाकर्षाङकुरैरिव ।
घ्राणप्रविष्टस्तो सद्यो, दम्पती मृत्युमापतुः ॥
- त्रिषष्ठि १।१।७१४-७१५
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ऋषभदेव : एक परिशीलम
के पुत्र पुण्डरीक को राज्य देकर दीझा ली । पुण्डरीक अल्पवयस्क था, अतः चक्रवर्ती की पत्नी लक्ष्मी ने वनजंघ को सन्देश भेजा।२ उस सन्देश से वह सहायतार्थ प्रस्थान करता है कि मार्ग में दो चारण लब्धिधारी मुनिवरों के दर्शन होते हैं। वह उन्हें आहार दान देता है।" और मुनि वज्रजंघ व श्रीमती के आगामी भावों का निरूपण
८२. चक्रवर्ती वनं यातः सपुत्रपरिवारकः ।
पुण्डरीकस्तु राज्येस्मिन् पुण्डरीकाननः स्थितः ।। क्व चक्रवर्तिनो राज्यं क्वायं बालोऽतिदुर्बलः । तदयं पुङ्गवैर्ये भरे दम्यो नियोजितः ।। बालोऽयमबले चावां राज्यञ्चेदमनायकम् । विशीर्णप्रायमेतस्य पालनं त्वयि तिष्ठते । अकालहरणं तस्मात् आगन्तव्यं महाधिया । त्वयि त्वत्सन्निधानेन भूयाद् राज्यमविप्लवम् ।।
-महापुराण श्लो० ६५-६८ पर्व० ८ पृ० १७५ (ख) नगर्या पुण्डरीकाह्न प्रतिष्ठाप्य स्वपुत्रजम् ।
प्रवव्राज नरेन्द्रोन्दो बहुभिः क्षत्रियैरसौ ।।
-पुराणसार संग्रह दामनन्दी श्लोक० ३२, स० २, पृ० २४ ८३. तस्मिन्नेवाह्नि सोऽह्नाय प्रस्थानमकरोत् कृती।
--महापुराण श्लो० ११८ पर्व०८ पृ० १७७ (ख) चिन्तागतिमनोगत्योस्तयोः श्रुत्वा तु वाचिकम् । निरगातां ससैन्यौ तु तूर्णं मतिवरोदितौ ॥
-पुराणसार श्लो० ३६ सर्ग २, पृ० २४ ५४. ततो दमधराभिख्यः श्रीमानम्बरचारणः । समं सागरसेनेन तन्निवेशमुपाययी ।।
-महापुराण इलो० १६७, पर्व० ८, पृ० १८१ श्रद्धादिगुणसम्पत्या गुणवभ्यां विशुद्धिभाक् । दन्त्वा विधिवदाहारं पञ्चाश्चर्याण्यवाप सः ।।
-महापुराण श्लो० १७३, पर्व ८, पृ० १८२
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श्री ऋषम पूर्वभव
करते हुए बताते हैं कि सम्राट् आप आठवें भव में तीर्थङ्कर बनेंगे ।" 'श्रीमती' का जीव प्रथम दानधर्म का प्रवर्तक श्रेयांस होगा । ६ मुनि की भविष्यवाणी को सुनकर दोनों प्रत्यन्त आह्लादित होते हैं ।
वहाँ से सम्राट् वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरी जाकर महारानी को आश्वस्त करते हैं और उनके राज्य की सुव्यवस्था कर पुनः अपने नगर लौटते हैं।
एक दिन सम्राट् का शयनागार अगर आदि सुगन्धित द्रव्यों की तीव्र गन्ध से महक रहा था । द्वारपाल उस दिन गवाक्ष खोलना भूल गया, जिसमें धूप के धुएँ के कारण श्वास रुक जाने से दोनों की मृत्यु हो गई
८५.
८६.
८७.
८५.
( ख ) दत्वा सागरसेनाय दानं दमवराय च । आदाय नवपुण्यानि सम्प्राप्तौ पुण्डरीकिणीम् ॥
RE
-- पुराणसार श्लो० ३८ सर्ग २, पृ० २४
इतोष्टमे भवे भाविन्यपुनर्भवतां भवान् । भवितामी च तत्रैव भवे सेत्स्यन्त्यसंशयम् ॥ - महापुराण श्लो० ० २४४ । पर्व ८, पृ० १८७ दानतीर्थप्रवर्तकः ।
भवत्तीर्थे
श्रीमती च श्रयान् भूत्वा परं श्रयः श्रयिष्यति न संशयः ॥
-- महापुराण श्लो० २४६ पर्व ८, पृ० १८७ दृष्ट्वा देवीं कुमारञ्चाप्यनुशिष्य वचोऽमृतैः । किञ्चित्कालमुषित्वात्र जग्मतुः स्वपुरं पुनः ॥
- पुराणसार श्लोक ४० द्वि० स० पू० २४ कालागुरुकधूपाढ्य शयितो गर्भवेश्मनि । मृत्वोत्तरकुरुष्वास्तामाशु दानेन दम्पती ॥
(ख) अथ कालागुरूद्दामधूपधूमाधिवासिते । मणिप्रदीपकोद्योतदूरीकृततमस्तरे ॥
—पुराणसार श्लो०
० ४१ पर्व ० २, पृ० २४
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३०
[७] युगल
वहाँ से दोनों ही आयु पूर्ण कर उत्तर कुरु में युगल-युगलिनी बने ।" इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर ग्रन्थों में अन्य वर्णन नहीं है ।
९०
महापुराण व पुराणसार के मन्तव्यानुसार उस समय उस युगलयुगलिनी को सूर्य - प्रभदेव के गगनगामी विमान को निहारकर जाति स्मरण होता है " और उसी समय वहाँ पर लब्धिधारी मुनि श्राते हैं ।" नमन कर वे उनसे पूछते हैं कि 'हे प्रभो ! श्राप कौन हैं और कहाँ से आये हैं ?"
८६.
६०.
ऋषभदेव : एक परिशीलन
तत्र
वातायनद्वारपिधानारुद्धधूमके
1
केशसंस्कारधूपोद्यद्भूमेन क्षणमूच्छितो ॥ निरुद्धोच्छ्वासदौः स्थित्यात् अन्तः किञ्चिदिवाकुलौ । दम्पती तौ निशामध्ये दीर्घनिद्रामुपेयतुः ॥
- महापुराण श्लो० २१, २६, २७, २८ पर्व ६, पू० १६२ अथोत्तरकुरुष्वेतावुत्पन्नौ युग्मरूपिणी । एकचिन्ताविपन्नानां गतिरेका हि जायते ।
- त्रिषष्ठि १।१।७१६
(ख) मरिऊण उत्तरकुराए सभारियो मिहुणगो जातो ।
- आवश्यक मल० वृ० पु० १५६ (ग) मरिऊण उत्तरकुराए सभारिओ मिहुणगो जाओ ।
- आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० ११६।१ सूर्यप्रभस्य देवस्य नभोयायि विमानकम् । दृष्ट्वा जातिस्मरो भूत्वा प्रबुद्धः प्रियया समम् ॥
- महापुराण श्लो० ६५, पर्व ६, पृ० १६८ (ख) कदाचित्सूर्यदेवस्य दृष्ट्वा यान [य] विमानकम् । सस्मरतुर्जातिमन्योऽन्यप्रियवर्तिनी ॥
अथ
- पुराणसार दाम० श्लो० ४४ पर्व २, पृ० २६
६१. तावच्चारणयोर्युग्मं दूरादागच्छक्षत । तञ्च तावनुगृह्णन्तो व्योम्नः समवतेरतुः ।
- महापुराण श्लो० ९६ पर्व ६, पृ० १९८
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श्री ऋषभ पूर्वभव
उत्तर में ज्येष्ठ मुनि ने बतलाया कि 'पूर्व भव में जिस समय तुम्हारा जीव महाबल राजा था उस समय मैं तुम्हारा स्वगंबुद्ध मन्त्री था।२ संयम धारण कर मैं सौधर्म स्वर्ग में स्वयंप्रभ विमान में मणिचूल नामक देव बना। वहाँ से प्रच्युत होकर मैं पुण्डरीकिरणी नगरी में राजा प्रियसेन का ज्येष्ठपुत्र प्रीतिकर हुआ । मेरी माता का नाम सुन्दरी है और लवुभ्राता का नाम प्रीतिदेव है, जो संप्रति मेरे साथ ही हैं ।९३ हम दोनों ही भ्राताओं ने स्वयंप्रभ जिनराज के समीप दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि प्राप्त की है। आपको यहाँ जानकर हम आपको सम्यक्त्व रूपी रत्न देने के लिए आये हैं।'
(ख) आगतो चारणो वीक्ष्य सन्निविष्टो शिलातले । मूर्ना प्रणम्य पप्रच्छ, के यूयमागताः कुतः ?
-पुराणसार श्लो० ४५, पर्व २, पृ० २६ ६२. त्वं विद्धि मां स्वयंबुद्ध यतोऽबुद्धाः प्रबुद्ध धीः । महाबलभवे जैनं धर्म कर्मनिवर्हणम् ॥
-महापुराण श्लो० १०५, पर्व० ६, पृ० १६६ (ख) उवाचाहं स्वयंबुद्धस्तत्राकाषं सुसंयमम् । सौधर्मे मणिचूलाख्यो देव आसं स्वयम्प्रभे ॥
-पुराणसार ४६।२।२६ ६३. महापुराण श्लो० १०८-१०६ पर्व० ६ पृ० १६६ । (ख) प्रच्युतः पुण्डरीकिण्यां सुन्दरी-प्रियसेनयोः । भ्राता प्रीतिसुदेवोऽयं ज्यायान् प्रीतिकरोऽस्म्यहम् ।।
-पुराणसार ४७।२।२६ ६४. स्वयम्प्रभजिनोपान्ते दीक्षित्वा वामलप्स्वहि । सावधिज्ञानमाकाशचारणत्वं . तपोबलात् ॥
.-महापुराण ११०।६।१६६ (ख) स्वयम्प्रभाहंतः पार्श्वे दीक्षिती प्राप्तलीलिको ।
-पुराणसार ४८।२।२६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सम्यक्त्व रूपी रत्न से बढ़कर विश्व में न कोई वस्तु है, न हुई है और न होगी ही । इसी से भव्य प्राणियों ने मुक्ति प्राप्त की है तथा आगे प्राप्त करेंगे । अतएव सम्यक्त्व सबसे श्रेष्ठ है । " जब देशनालब्धि और काललब्धि प्रादि बहिरंग कारण और करण लब्धिरूप अन्तरंग कारण मिलता है तभी भव्यप्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का पात्र बन सकता है । जो पुरुष एक अन्तर्मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसार रूपी बेल को काट कर बहुत ही लघु कर देता है ।" इस प्रकार सम्यग्दर्शन के महत्त्व को समझाकर और दोनों को रत्नत्रय में आद्य रत्न सम्यक्त्व को देकर वे चारणमुनि अपने स्थान चले गये ।"
飲
६५.
६.
इतोऽन्यदुत्तरं नास्ति न भूतं न भविष्यति । इह सेत्स्यन्ति सिद्धाश्च तस्मात्सम्यक्त्वमुत्तमम् ।।
£5.
देशनाकाललब्ध्यादिबाह्यकारणसम्पदि । अन्तःकरणसामग्रयां भव्यात्मा स्याद् विशुद्धकृत् ॥
६७. लब्धसद्दर्शनो जीवो मुहूर्तमपि पश्य यः । संसारलतिकां छित्त्वा कुरुते हासिनीमसो ॥
--पुराणसार ४६।२।२६
(ख) इति प्रीतिङ्कराचार्यवचनं स सजानिरादधे सम्यग्दर्शनं
- महापुराण ११६/९/१९६
दत्वा ताभ्यां त्रिरत्नाद्य गताम्बरचारिणौ ।
-- महापुराण १३५।६।२०१
- पुराणसार ५१।२।२६
प्रमाणयन् ।
प्रीतमानसः ॥
पुनर्दर्शनमस्त्वार्यं ! सद्धर्म मा स्म विस्मरः ।
इत्युक्त्वान्तर्हितौ सद्यः चारणी व्योमचारणौ ।।
- महापुराण १४८।१५७।६। पृ० २०२ - २०३
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श्री ऋषभ पूर्वभव
[८] सौधर्मकल्प
वहाँ से वे आयु पूर्ण कर सौधर्मकल्प में देव बने ।१९ महापुरार तथा पुराणसार में उनका नाम श्रीधर देव लिखा है ।१०० [C] जीवानन्द वैद्य ___ वहाँ से च्यवकर धन्नासार्थवाह का जीव जम्बूद्वीप के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में सुविधि वैद्य का पुत्र जीवानन्द वैद्य बना।१०१ उस समय वहाँ पाँच अन्य जीव भी उत्पन्न होते हैं। प्रथम सम्राटपुत्र महीधर,
६६. ततो सोहम्मे कप्पे देवो उववन्नो।
-आवश्यक नियुक्ति, मल० वृ० १५८ (ख) तओ सोहम्मे कप्पे देवो जाओ।
—आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० ११६।१ (ग) क्षेत्रानुरूपमायुश्च पूरयित्वा तथा युतौ । तौ विपद्योदपद्यतां, सौधर्मे स्नेहलौ सुरौ ॥
-त्रिषष्ठि १११७१७ (घ) अन्ते गृहीतसम्यक्त्वौ मृत्वा सौधर्ममीयतुः ।
-पुराणसार ५१।२।२६ १००. विमाने श्रीप्रभे तत्र नित्यालोके स्फुरत्प्रभः । स श्रीमान् बज्रजङ्घार्यः श्रीधराख्यः सुरोऽभवत् ।!
-महापुराण १८५।६।२०६ (ख) श्रीप्रभे श्रीधरो जज्ञे आर्यो देवः स्वयम्प्रभे । सम्यक्त्वात्स्त्रणमुज्झित्वा साऽऽर्या जातः स्वयंप्रभः ।।
-पुराणसार ५२।२।२६ १०१. ततो आउक्खए चइऊण महाविदेहवासे खितिपइट्ठिते नगरे विज्जपुत्तो आयातो।
—आवश्यक मल० वृत्ति० पृ० १५८ (ख) आवश्यक चूर्णि० पृ० १३२ ।
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3x
ऋषभदेव : एक परिशीलन
द्वितीय मन्त्रीपुत्र सुबुद्धि, तृतीय सार्थवाहपुत्र पूर्णभद्र, चतुर्थ श्रेष्ठिपुत्र गुणाकर और पाँचवाँ ईश्वरदत्तपुत्र केशव [श्रीमती का जीव] इन छहों में पय-पानी सा प्रेम था।१०२ ___ अपने पिता की तरह जीवानन्द भी आयुर्वेदविद्या में प्रवीण था।१०3 उसकी प्रतिभा की तेजस्विता से सभी प्रभावित थे। एक दिन सभी स्नेही साथी वार्तालाप कर रहे थे कि वहाँ एक दीर्घतपस्वी भिक्षा के लिए आये । वे गृहस्थाश्रम में पृथ्वीपाल राजा के पुत्र थे, जिन्होंने राज्यश्री को त्यागकर उग्रतपस्या प्रारम्भ की थी। असमय व अपथ्य भोजन के सेवन से वे कृमि-कुष्ठ की भयंकर व्याधि से ग्रसित हो गये थे। १०४ उन्हें निहारकर समान पुत्र महीधर ने कहा--मित्रवर !
१०२. (क) उत्तरकुरु सोहम्मे विदेह तेगिच्छियस्स तत्थ सुतो। रायसुयसेट्टिमच्चासत्थाहसुया वयंसा से ॥
-आवश्यक नियुक्ति गा० १६६ जद्दिवसं तु जातो तद्दिवसमेगाहजाया से इमे चत्तारि वयंसया अणुरत्ता अविरत्ता, तं जहा--रायपुत्तो, सेट्टिपुत्तो, अमच्चपुत्तो, सत्थवाहपुत्तोत्ति ! ते सहसंवढिता सहपंसुकीलिया, धणसत्थवाहजीवोऽवि महाविज्जो जातो ।
---आवश्यक मल० वृ० ५० १५८ (ग) आवश्यक चूर्णि, पृ० १३२।। (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० ११६ (ङ) त्रिषष्ठि ११११७१६ से ७२८
(च) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी--राजेन्द्रसूरि० पृ० २२१ १०३. विदाञ्चकाराऽऽयुर्वेदं जीवानन्दोऽपि पैतकम् । अष्टाङ्गमौषधींश्चाऽपि, रसवीर्यविपाकतः ।।
-त्रिषष्ठि १११७२६ १०४. एकदा वैद्यपुत्रस्य, जीवानन्दस्य मन्दिरे ।
एतेषां तिष्ठतामेकः साधुभिक्षार्थमाययौ ।। पृथ्वीपालस्य राज्ञः . स, सूनुर्नाम्ना गुणाकरः । राज्यं मलमिवोत्सृज्य शमसाम्राज्यमाददे ॥
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श्री ऋषभ पूर्वभव
३५
आप अन्य की चिकित्सा करते हैं, चिकित्सा करने में कुशल भी हैं, पर मुझे अत्यन्त परिताप है कि आपके अन्तर्मानस में दया की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित नहीं हो रही है। कृमिकुष्ठ रोग से ग्रसित मुनि को देखकर भी आप चिकित्साहेतु प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं । १०५
प्रत्युत्तर में जीवानन्द ने कहा-मित्र ! तुम्हारा कथन सत्य है ;
१०५.
सरिदोघ इव ग्रीष्मातपेन तपसा कृशः । कृमिकुष्ठाभिभूतस्य सोऽकालापथ्यभोजनात् ।। सर्वाङ्गीणं कृमिकुष्ठाधिष्ठितोऽपि स भेषजम् । ययाचे न क्वचित् कायानपेक्षा हि मुमुक्षवः ।। गोभूत्रिकाविधानेन, गेहाद् गेहं परिभ्रमन् । षष्ठस्थ पारणे दृष्टः, स तैर्निजगृहाङ्गणे ।।
-त्रिषष्ठि १११ ७३२ से ७३६ वेज्जसुयस्स य गेहे किमिकुट्ठोवदुयं जई दर्छ। बॅति य ते विज्जसुयं करेहि एयस्स तेगिच्छं ।।
-आवश्यकनियुक्ति गा० १७० (ख) आवश्यक चूणि पृ० १३२ (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६
ते वयंसया अन्नया कयाइ तस्स विज्जस्स घरे एगतो सहिया सन्निसन्ना अच्छन्ति, तत्थ साहू महप्पा किमिकुट्टण गहितो भिक्खानिमित्तमइगतो, तेहिं सप्पणयं सहासं सो विज्जो भण्णइ-तुम्भेहिं नाम सव्वो लोगो खाइयव्वो, न तुम्भेहि तवस्सिस्स वा अणाहस्स वा किरिया कायव्वा ।
-आवश्यक मल० वृ० पृ० १५८ महीधर कुमारेण, स किञ्चित् परिहासिना । जीवानन्दो निजगदे, जगदेकभिषक् ततः । अस्ति व्याधेः परिज्ञानं ज्ञानमस्त्यौषधस्य च । चिकित्साकौशलं चाऽस्ति, नास्ति वः केवलं कृपा ॥
---त्रिषष्ठि ११७३७-७३८ (च) कल्पार्थ प्रबोधिनी पृ० २२१ ।
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
पर इस रोग की चिकित्सा के लिए जिन औषधियों की आवश्यकता है, वे मेरे पास नहीं हैं ।१०६
मित्रों ने कहा-बताइये किन-किन औषधियों की आवश्यकता है ? वे कहाँ पर उपलब्ध हो सकेंगी? हम मूल्य देंगे और जैसे भी होगा, लाने का प्रयास करेंगे।
जीवानन्द ने कहा-रत्नकम्बल, गोशीर्षचन्दन, और लक्षपाक तैल । पूर्व की दो औषधियाँ मेरे पास नहीं हैं । १०० ___उसी क्षण वे पाँचों साथी औषध लाने के लिए प्रस्थित हुए।
औषधियों की अन्वेषणा करते हुए एक श्रेष्ठी की विपरिण पर पहुँचे । १०८ श्रेष्ठी से औषधहेतु जिज्ञासा व्यक्त करने पर श्रेष्ठी ने
१०६. सो भणइ-करेमि, किं पुण मम ओसहाणि काइवि नत्थि ।
-आवश्यक मल० वृ० पृ० १५८ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १३२ (ग) चिकित्सनीय एवाऽहो !, महामुनिरयं मया । औषधानामसामग्री, किन्तु यात्यन्तरायताम् ॥
-त्रिषष्टि० ११११७४५ १०७. ते भणन्ति अम्हे मोल्लं देमो, कि ओसह ? जाइज्जउ, सो भणइ
कम्बलरयणं गोसीसचन्दणं, तइयं पुण जं सयसहस्सपागतेल्लं तं ममवि अत्थि।
--आवश्यक मल० वृ० पृ० १५८ (ख) आवश्यकचूणि पृ० १३२ । (ग) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति पृ० ११६ ।
तत्रकं लक्षपार्क मे, तैलमस्तीह नाऽस्ति तु । गोशीर्षचन्दनं रत्नकम्बलश्चाऽऽनयन्तु तत् ॥
-त्रिषष्ठि १।११७४६ १०८. ताहे मग्गिउ पवत्ता, आगमियं च रोहिं जहा अमुगस्स वाणियगस्स अत्थि दोऽवि एयाणि, ते गया तस्स सगासं दो लक्खाणि घेत्तु ।
--आवश्यक मल० वृत्ति पृ० १५८
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श्री ऋषभ पूर्वभव
कहा-प्रत्येक वस्तु का मूल्य एक-एक लाख दीनार है । वे उस मूल्य को देने के लिए ज्योंही प्रस्तुत हुए, त्योंही श्रेष्ठी ने प्रश्न किया-ये अमूल्य वस्तुएँ किस लिए चाहिएँ ? उन्होंने बताया--मुनि की चिकित्सा के लिए । मुनि का नाम सुनते ही श्रेष्ठी सोचने लगा कि "इन युवकों की धार्मिक निष्ठा अपूर्व है।"१०९ उसने बिना मूल्य लिये औषधियाँ देदीं। वे उन वस्तुओं को लेकर वैद्य के पास गये। __जीवानन्द वैद्य भी अपने स्नेही साथियों के साथ उन औषधियों को तथा मृत-गोचर्म को लेकर उद्यान में पहुँचा, जहाँ मुनि ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे। उन्होंने मुनि को वन्दन किया और उनकी स्वीकृति
(ख) आवश्यकचूणि पृ० १३२ ।। (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति ११६ ।
आनेष्यामो वयमिति, प्रोच्य पञ्चाऽपि तत्क्षणम् । ते ययूविपणिश्रणी स्वस्थानं सोऽप्यगान्मुनिः ।। रत्नकम्बल-गोशीर्ष, मूल्यमादाय यच्छ नः । इत्युक्तस्तैर्वणिग्वृद्धस्ते ददानोऽब्रवीदिदम् ।।
—त्रिषष्ठि ११७४७-७४८ १०६. ततो वाणियगो ससंभन्तो भणति--कि देमि ? ते भणन्ति-कम्बल
रयरणं गोसीसचन्दणं च । तेण भण्णइ कि एएहि कज्जं? ते भणन्ति साहुस्स किरिया कायव्वा । तेण भण्णइ–एवं, तो अलाहि मम मोल्लेणं, इहरहा चेव गेण्हह, करेह साहुणो किरियं ।
-आवश्यक मल० पृ० १५६ (ख) तेल्लं तेगिच्छिसुतो कम्बलगं चन्दणं च वाणियतो ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १७१ (ग) आवश्यक चूणि, पृ० १३३ (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० ११६ ।
(ङ) त्रिषष्ठि १११७५०-७५६ । ११०. (क) ते विज्जसुयप्पभिइणो सो घेतूण ताणि ओसहाणि गया
साहुणो पासं जत्थ सो उज्जाणे पडिमं ठितो, पासन्ति पडिमागवं साहुँ।
-आवश्यक मल० ५० १५६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
लिए बिना ही आरोग्य प्रदान करने हेतु सर्वप्रथम लक्षपाक तैल से मर्दन किया। उष्णवीर्य तैल के प्रभाव से शरीरस्थ कृमियाँ बाहर निकलने लगी तो उन्होंने शोतवीर्य रत्नकम्बल से मुनि के शरीर को आच्छादित कर दिया, जिससे वे शरीरस्थ कृमि रत्न-कम्बल में आगई। उसके पश्चात् रत्न कम्बल की कृमियों को मृत-गोचर्म में स्थापित कर दिया, जिससे उनका प्राणघात न हो । उसके पश्चात् पुनः मर्दन किया और रत्नकम्बल से आच्छादित करने पर मांसस्थ कृमियाँ निकल आई । तृतीय बार पुनः मर्दन किया और रत्नकम्बल ओढ़ा देने पर अस्थिगत कृमियाँ निकल गई । जब शरीर कृमियों से मुक्त हो गया तो उस पर गोशीर्षचन्दन का लेप किया, जिससे मुनि पूर्ण स्वस्थ हो गये।
मुनि की स्वस्थता देखकर छहों मित्र अत्यन्त प्रमुदित हुए। मुनि के तात्त्विक प्रवचन को सुन कर छहों को संसार से विरक्ति हुई, उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और उत्कृष्ट संयम की साधना की ।१२
१११. ताहे तेल्लेण सो साहू पढमं अभिगितो, त चेद तेल्लं रोमकूवेहि
सव्वं अइगयं, तम्मि य अइगए किमिया सव्वे संखुद्धा ताहे ते निग्गए, ठूण कंबलरयरगरण सो साहू पाउत्तो, तं सीयलं, तेल्लं च उण्हवीरियं ते किमिया तत्थ लग्गा, ताहे पुवाणिय गोकडेवरे पप्फोडियं, ते सव्वे पडिया, ततो सो साहू चन्दगण लित्तो, जातो समासत्थो, एवं तिन्निवारे अभंगिऊण सो साहू तेहि नीरोगो कतो।
-आवश्यक मल० वृ० १० १५६ (ख) त्रिषप्ठि ११११७५८ से ७७६ । ११२. (क) पच्छा ते सड्ढा जाया, पच्छा समणा ।
-आवश्यक नि० मल० वृत्ति, पृ० १५६ (ख) ते पच्छा साहू जाता।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० ११७ (ग) ते षडप्येकदा जातसंवेगाः साधुसन्निधौ । धीमन्तो जगृहुदीक्षां, मयंजन्मतरोः फलम् ।।
-त्रिषष्ठि ११७८०
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श्री ऋषभ पूर्वभव
१६
महापुराण और पुराणसार में जीवानन्द वैद्य का भव नहीं बताया है। उन्होंने लिखा है कि देवलोक से च्युत होकर जम्बूद्वीपस्थ वत्सकावती देश की सुसीमा नगरी में वह सुदृष्टि राजा और सुन्दरनन्दा रानी की कुक्षि से सुविधि पुत्र हुआ, और श्रीमती का जीव उसी का पुत्र केशव हुआ।13 केशव के प्रेम के कारण प्रारम्भ में उसके पिता सुविधि ने संयम न लेकर श्रावक ब्रत स्वीकार किया१४ और अन्त में दीक्षा लेकर संलेखनायुक्त समाधि मरण प्राप्त किया।११५ [१०] अच्युत देवलोक
आयु पूर्ण कर जीवानन्द का जीव तथा अन्य साथी बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए।१६
११३. श्रीधरोऽथ दिवश्च्युत्वा जम्बूद्वीपमुपाश्रिते ।
प्राग्विदेहे महावत्सविषये स्वर्गसन्निभे ॥ सुसीमानगरे जज्ञे सुदृष्टिनृपतेः सुतः । मातुः सुन्दरनन्दायाः सुविधिर्नाम पुण्यधीः ।।
-महापुराण श्लो० १२१-१२२ पर्व १०, पृ० २१८ (ख) स समुद्रोपमं भोगं भुक्त्वाऽतः श्रीधरश्च्युतः ।
प्राग्विदेहेषु वत्साह्व सुसीमायामुभौ पुरी ।। देव्यां सुन्दरनन्दायां सुदृष्टे: सुविधिः सुतः । तत्सूनुः केशवो नाम्ना सुन्दर्यामितरोऽभवत् ।।
-पुराणसार ६१।६२।२।२८ ११४. नृपस्तु सुविधिः पुत्रस्नेहाद् गार्हस्थ्यमत्यजन् । उत्कृष्टोपासकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरम् ॥
-महापुराण १५८।१०।२२२ (ख) सुविधिः केशवस्नेहादुत्कृष्ट: श्रावकोऽभवत् ।
-पुराणसार ६५।२।३० ११५. अथावसाने नम्रन्थी प्रव्रज्यामुपसेदिवान् । सुविधिविधिनाराध्य, मुक्तिमार्गमनुत्तरम् ।।
–महापुराण १६६।१०।२२२ ११६. साहु तिगिच्छिऊणं सामन्नं देवलोगगमणं च ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १७२
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४०
ऋषभदेव : एक परिशीलन
महापुराण और पुराणसार के अनुसार भी सुविधि का जीव बारहवें देवलोक में ही उत्पन्न हुआ।१७ [११] वज्रनाभ
जीवानन्द का जीव देवलोक की आयु समाप्त होने पर पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के अधिपति वज्रसेन राजा की धारिणी रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। ११८ उत्पन्न होते
(ख) अहाउयं पालइत्ता तम्मूलागं पंचवि जणा अच्चुए उववण्णा ।
-आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, ११७ (ग) ततो अहाउयं पालइत्ता सामण्णं, तं मूलागं पंचवि जणा अच्चुए कप्पे देवा उववन्ना।
-आवश्यक मल० वृ० ५० १५६ षडपि द्वादशे कल्पेऽच्युतनामनि तेऽभवन् । शकसामानिकास्तादृग् , न सामान्यफलं तपः ।।
__-त्रिषष्टि० १११७८९ ११७. समाधिना तनुत्यागात् अच्युतेन्द्रोऽभवद् विभुः । द्वाविंशत्यब्धिसंख्यातपरमायुर्महद्धिकः ॥
-महापुराण, १७०।१०।२२२ (ख) समुत्पेदेऽच्युते कल्पे प्राप्य तत्र प्रतीन्द्रिताम् ।।
-पुराणसार ६६।२।३० पुण्डरिगिणिए य चुया ततो सुया वयरसेणस्स।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १७२ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १३३ ।
आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११७। (घ) ततो देवलोगातो आउक्खए चहऊण इहैव जम्बुद्दीवे दीवे
पुव्वविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरिगिणीए नयरीए वइरसेणरन्नो धारिणीए देवीए उदरे पढमो वइरनाभो नाम पुत्तो जातो, जो पुव्वभवे विज्जो आसि ।
---आवश्यक मल० वृ० पृ० १५६
११८. पूण्डरिम
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श्री ऋषभ पूर्वभव
ही माता ने चौदह महास्वप्न देखे । जन्म होने पर पुत्र का ना नाम "वज्रनाभ" रखा । पूर्व के पाँचों साथियों में से चार क्रमशः बाह, सुबाहु, पीठ और महापीठ, नामक उनके भ्राता हुए और एक उनका सारथी हुा ।१९ ___ अपने ज्येष्ठ पुत्र वज्रनाभ को राज्य देकर सम्राट् वज्रसेन ने संयम ग्रहण किया, उत्कृष्ट संयम की साधना कर कैवल्य प्राप्त किया तथा तीर्थ की संस्थापना कर वे तीर्थङ्कर बने । १२० ।
सम्राट् वज्रनाभ पूर्वभव में मुनि की सेवा शुश्र षा करने के फलस्वरूप षट्खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् बने और शेष भ्राता माण्डलिक राजा हुए ।१२१ दीर्घकाल तक राज्य श्री का उपभोग करने के पश्चात् अपने पूज्य पिता तीर्थङ्कर वज्रसेन के प्रभावपूर्ण प्रवचनों को सुनकर उनके मानस में, वैराग्य का उदधि उछाले मारने लगा।
११६. पढमोऽत्थ वयरनाहो बाहु सुबाहु य पीढ महपीढे ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १७३ (ख) त्रिषष्ठि० १।१।७६१ से ७६५ । (ग) आद्य : पीठो महापीठः सुबाहुश्च तृतीयकः । तूर्योऽथ महाबाहु तरः पूर्वबान्धवाः ।।
पूराणसार ७०।२।३० १२०. तेसि पिया तित्थयरो निक्खता तोऽवि तत्थेव ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १७३ १२१. (क) वइरो चक्की जाओ, तेणं साहुवेयावच्चेण चक्कवट्टीभोया उदिण्णा, अवसेसा चत्तारि मंडलिया रायाणो ।
-आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति ११८।१ वयरनाभो चक्कवट्टी जातो, इयरे चत्तारि मंडलिया रायणो, एवं सो वयरनाभो साहुवेयावच्चप्पभावेण उइन्ने चक्कवट्टिभोगे भुजइ ।
--आवश्यक मल० वृ० पृ० १५६
(ख)
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
अपने प्रिय लघु-भ्राताओं तथा सारथी के साथ वज्रनाभ चक्रवर्ती ने प्रव्रज्या ग्रहण की।२२
संयम ग्रहण करने के पश्चात् वज्रनाभ ने आगमों का गम्भीर अनुशीलन-परिशीलन करते हुए चौदह पूर्व तक अध्ययन किया और अन्य शेष भ्राताओं ने एकादश अङ्गों का ।१२3 अध्ययन के साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट तप तथा अनेक चामत्कारिक लब्धियाँ प्राप्त की तथा अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन-प्रभृति बीस निमित्तों की आराधना से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया।१२४
१२२. इतो य तित्थयरवयरसेणस्स समोसरणं सो पिउपायमूलं चउहिंवि सहोअरेहि सम्मं पव्वइतो।
-आवश्यक मल० वृ० १० १५६ (ख) दत्वैश्यं वज्रदन्ताय पीठाद्यः भ्रातृभिः सह । संयमे स्वपितुस्तीर्थे तस्थौ सधनदेवकः ।
-पुराणसार ७४।२।३० १२३. पढमो चउदसपुवी
-आवश्यक नियुक्ति० गा० १७४ (ख) तत्थ वइरनाभेण चौदस पुव्वाणि अहिज्जियाणि ।
--आवश्यक चूणि पृ० १३३ (ग) तत्थ वइरनाभेण चोद्दसपुवा अहिज्जिया, सेसावि चउरो एक्कारसंगविऊ जाया ।
-आवश्यक मल० वृ० १६०११ श्रुतसागरपारीणो, वज्रनाभोऽभवत् क्रमात् । प्रत्यक्षा द्वादशाङ्गीव, जङ्गमकाङ्गतां गता ।। एकादशाङ्ग याः पारीगा, जाता बाह्वादयोऽपि ते। क्षयोपशमवैचित्र्याच्चित्रा हि श्रुतसम्पदः ॥
त्रिषष्ठि० ११११८३६।८३७ १२४. वयरनाभेग विसुद्धपरिणामेणं वीसहि ठाणेहिं तित्थयरनामगोत्त कम्मं बद्ध।
-आवश्यक मल० वृ० १० १६०१ (ख) त्रिषष्ठि० ११११८८२
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श्री ऋषभ पूर्वभव
आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि आदि के अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के जीव ने बीस ही स्थानों की आराधना व साधना की। अन्य तीर्थङ्करों के जीवों ने एक, दो, तीन आदि१२५ की आराधना करके ही तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया।
महापुराण व पुराणसार प्रभृति दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में बीस१२६ स्थानों के बदले सोलह भावनाओं का उल्लेख किया गया है१२० किन्तु शाब्दिक दृष्टि से अन्तर होने पर भी दोनों में भावना की दृष्टि से विशेष कोई अन्तर नहीं है।
१२५. पढमो तित्थयरत्त वीसहि ठाणेहि कासीय ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १७५ (ख) पुरिमेण य पच्छिमेण य एते सव्वेऽवि फासिया । ठाणा मज्झिमएहिं जिणेहिं एगं दो तिन्नि सव्वे वा ।।
-आवश्यक चूणि २-१०६ पृ० १३५ १२६. अरहंत सिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुएतवस्सीसु ।
वच्छल्लया य एसि अभिक्खनाणोवयोगे य ।। दसणविणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अप्पुवनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया । एएहि कारणेहिं तित्थयरत्त लहइ जीवो ।
-आवश्यक नियुक्ति० १७६ से १७८ (ख) णाया धम्मकहाओ श्रु० १०८ १२७. ततोऽसौ भावयामास भावितात्मा सुधीरधीः ।
स्वगुरोनिकटे तीर्थकृत्त्वस्या ङ्गानि षोडश ।। सद्दृष्टि विनयं शीलवतेष्वनतिचारताम् । ज्ञानोपयोगमाभीक्ष्प्यात संवेगं चाप्यभावयत् ।। यथाशक्ति तपस्तेपे स्वयं वीर्यमहापयन् । त्यागे च मतिमाधत्त ज्ञानसंयमसाधने । सावधानः समाधाने साधूनां सोऽभवन् मुहुः । समाधये हि सर्वोऽयं परिस्पन्दो हितार्थिनाम् ।।
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
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जैनसंस्कृति की तरह ही बौद्धसंस्कृति ने भी बुद्धत्व की उपलब्धि के लिए दान, शील, नैष्कर्म्य, प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति, सत्य अधिष्ठान [दृढ़ निश्चय], मैत्री ; उपेक्षा [सुख दुख में समस्थिति ] दस पारमिताएँ [ पाली रूप पारमी] अपनाना आवश्यक माना है । 2 दस पारमिताओं और बीसस्थानों में भी अत्यधिक समानता है । तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रमरण संस्कृति की दोनों ही धाराम्रों ने तीर्थङ्कर व बुद्ध, बनने के लिए पूर्वभवों में ही ग्रात्म-मन्थन, चित्तग्रंथन, गुणों का उत्कीर्तन तथा गुणों का धारण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना है ।
वज्रनाभ मुनि ने भी विशुद्ध परिणाम से श्वेताम्बर ग्रंथानुसार
४४
व्रतस्थेवमादिषु ।
स वैयावृत्यमातेने, अनात्मतरको भूत्वा तपसो हृदयं हि तत् ॥ स तेने भक्तिमर्हत्सु पूजामर्हत्सु निश्चलाम् । आचार्यान् प्रश्रयी भेजे मुनीनपि बहुश्रुतान् ॥ परां प्रवचने भक्ति आप्तोपज्ञे ततान सः । न पारयति रागादीन् विजेतुं सन्ततानसः ॥ अवश्यमवशोऽ प्येष वशी स्वावश्यकं दधौ । षड्भेद' देशकालादिसव्यपेक्ष मनूनयन् 11 मार्ग प्रकाशयामास तपोज्ञानादिदीधितीः । दधानोऽसौ मुनीनेनो भव्याब्जानां प्रबोधकः ॥ वात्सल्यमधिकं चक्रे स मुनिर्धर्मवत्सलः । विनेयान् स्थापयन् धर्मे जिनप्रवचनाश्रितान् ॥
- महानुराग श्लोक ० ६० से ७७, पर्व ९१ पृ० २३३-३४ (ख) दर्शनवि युद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी सङ्घ साधुसमाधिव' या नृत्य कर मदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहानिर्मार्गप्रभावना प्रवचन वत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य । -तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० २३
१२८. बौद्धधर्म दर्शन पृ० १८१-१८२ ।
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श्री ऋषभ पूर्वभव
४५
बीस स्थानकों की और दिगम्बर ग्रन्थानुसार सोलह भावनाओं की आराधना कर तीर्थङ्कर नाम गोत्र का अनुबन्धन किया। अन्त में मासिक संलेखनापूर्वक पादपोपगमसंथारा करसमाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण किया। ___ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि वज्रनाभ के शेष चारों लघु भ्राताओं में से बाहुमुनि मुनियों की वैयावृत्य करता और सुबाहु मुनि परिश्रान्त मुनियों को विश्रामरणा देता--१३१ अर्थात् थके हुए मुनियों के अवयवों का मर्दन आदि करके सेवा करता। दोनों की सेवा भक्ति को निहार कर वज्रनाभ अत्यधिक प्रसन्न हुए
१२६. तत्थ पढमेण वइरणाभेण वीसाए कारणेहि तित्थयरत्त निबद्ध।
—आवश्यक चूणि० पृ० १३४ (ख) वइरणाभेण य विसुद्धपरिणामेण तित्थगरणामगोत्तं कम्म बद्ध ति ।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० ११८ १३०. इत्यमूनि महाधैर्यो मुनिश्चिरमभावयत् । तीर्थंकृत्त्वस्य सम्प्राप्तौ कारणान्येष षोडश ।।
-महापुराण ७८।११।२३४ (ख) जगदग्रंश्यपण्यानि त्रैलोक्यक्षोभणानि च । कारणानि च जैनस्य भावयामास षोडश ॥
--पुराणसार ७१२।३२ १३१. (क) तत्थ बाहू सो तेसिं सवेसि वेयावच्चं करेति । जो सो सुबाहु, सो भगवन्ताणं कितिकम्मं करेति ।
-आवश्यक चूणि पृ० १३३ (ख) तत्थ बाहु तेसि वेयावच्चं करेति, जो सुबाहू सो साहुणो बीसामेति ।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० २१८ (ग) तत्थ वाहू तेसि अन्नेसि च साहूणं वेयावच्चं करेइ, जो सुबाहू सो साहुणो विस्सामेइ ।
-आवश्यक मल० वृत्ति
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
और उनकी प्रशंसा करते हुए बोले-तुमने सेवा और विश्रामणा के द्वारा अपने जीवन को सफल किया है।३२
ज्येष्ठ भ्राता के द्वारा अपने मझले भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर पीठ, महापीठ मुनि के अन्तर्मानस में ये विचार जागृत हुए कि हम स्वाध्याय आदि में निरन्तर तन्मय रहते हैं, पर खेद है कि हमारी कोई प्रशंसा नहीं करता, जबकि वैयावृत्य करने वालों की प्रशंसा होती है । 33 इस ईर्ष्याबुद्धि की तीव्रता से मिथ्यात्व आया और उन्होंने
१३२. एवं ते करेंति वइरनाभो भगवं अणुवहति-अहो सुलद्ध
जम्मजीवियफलं जं साधूणं वेयावच्चं कीरइत्ति, परिसन्ता वा साधुणो वीसामिज्जन्ति, एवं पसंसति ।
-आवश्यक चूणि पृ० १३३ आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११८ । एवं ते करते भयवं वयरनाभो-अणुवहइ अहो सुलद्ध जम्म सहलीकयं जीवियं जं साहूण वेयावच्चं कीरइ, परिस्सन्ते वा साहुणो विस्सामेइ ।
-आवश्यक मल० वृत्ति० ५० १६०१ (घ) अहो ! धन्याविमौ वैयावृत्यविश्रामणाकरौ । इति बाहुसुबाहू तौ वज्रनाभस्तदाऽस्तवीत् ॥
त्रिषष्ठि० १११९०६ १३३. एवं पसंसिज्जन्तेसु तेसु तेसिं दोण्हमग्गिल्लारणं अपत्तियं भवति, अम्हे सज्झायन्ता ण पसंसिज्जामो, जो करेइ सो पसंसिज्जइ ।
-आवश्यक चूणि पृ० १३३-१३४ (ख) एवं पसंसिज्जतेसु तेसु तेसि पच्छिमारणं दोण्हवि
पीढमहापीढाणं अप्पत्तियं भवइ, अम्हे सज्झायन्ता न पसंसिज्जामो जो करेइ सो पसंसिज्जइ, सच्चो लोगववहारोत्ति ।
___आवश्यक मल० वृ० ५० १६०१ (ग) तौ तु पीठ-महापीठो, पर्यचिन्तयतामिति ।
उपकारकरो यो हि स एवेह प्रशस्यते ॥ आगमाध्ययनध्यानरतावनुपकारिणौ । को नौ प्रशंसत्वथवा, कार्यकृद्गृह्यको जनः ।।
१०७-६०८
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श्री ऋषभ पूर्वंभव
स्त्री वेद का बन्धन किया । आलोचन-प्रतिक्रमण न करने पर स्वल्प दोष भी अनर्थ का कारण बन जाता है ।136 -- सेवा के कारण बाहुमुनि ने चक्रवर्ती के विराट् सुखों के योग्य कर्म उपार्जित किये13५ और सुबाहु मुनि ने विश्रामणा के द्वारा लोकोत्तर बाहुबल को प्राप्त करने योग्य कर्पबन्धन किया।११६
प्रस्तुत प्रसंग महापुराण में नहीं है। [१२] सर्वार्थसिद्ध
आयु पूर्ण कर वज्रनाभ आदि पाँचों भाई सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए, वहाँ वे तेतीस सागरोपम तक सुख के सागर में तरते रहे ।१३७
१३४. एवं ताभ्यां गुरुषु मात्सर्यमुद्वहद्भ्यां तथाविधतीव्रामर्षवशान्मिथ्या
त्वमुपगम्य स्त्रीत्वमुपचितं, स्वल्पोऽपि दोषोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तो महानर्थफलो भवति।
-आवश्यक मल० वृ० १६०।१ (ख) ताभ्यामनालोचयट्यामितीकृितदुष्कृतम् । मायामिथ्यात्वयुक्ताभ्यां, कर्म स्त्रीत्वफलं कृतम् ।।
-त्रिषष्ठि १३१६०६ १३५. बहुनाऽपि च साधूनां वैयावृत्यं वितन्वता । चक्रवर्तिभोगफलं कर्मोपार्जितमात्मनः ।
-त्रिषष्ठि० १११९०४ १३६. विश्रामणां महर्षीणां कुर्वाणेन तपोजुषाम् । - सुबाहुना बाहुबलं लोकोत्तरमुपाजितम् ।।
-त्रिषष्ठि १।१।६०५ १३७. ततो पंचवि अहाउयं पालइत्ता कालं काऊण सव्वट्ठ सिद्धिमहाविमाणे तेत्तीस सागरोवमट्ठिइया देवा उववण्णा ।
-आवश्यक नियुत्ति मल• वृ० १६२
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
[१३] श्री ऋषभदेव
सर्वार्थसिद्ध की आयु समाप्त होने पर सर्वप्रथम वज्रनाभ का जीव च्युत हुआ और वह जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र की इक्ष्वाकुभूमि में अन्तिम कुलकर " नाभि " की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि में आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र के योग में उत्पन्न हुआ | १३ चैत्र कृष्णा अष्टमी
संलेखनाद्वयपुरः सरमेकधीरास्,
प्रपद्य ।
ते पादपोपगमनानशनं सर्वार्थसिद्धिमधिगम्य दिवंत्रयस्त्रिशाब्ध्यायुषः सुरवराः षडपिह्यभूवन् ॥
- त्रिषष्ठि० १|१|११
(ग) उपशान्तगुणस्थाने कृतप्राणविसर्जनः । सर्वार्थसिद्धिमासाद्य सम्प्रापत् सोऽहमिन्द्रताम् ॥
- महापुराण १११।११।२३७ (घ) चक्रवर्ती स्वकालं स्वपञ्चभावनकं तपः । कृत्वान्ते श्रीप्रभं शैलमारुह्य प्राक्तनैः सह || आराधनां तत्र चतुष्प्रकाशमाराध्य मासानशनो जगाम । सर्वार्थसिद्धि स निनाय तत्र कालं त्रयस्त्रिशदथार्णवानाम् ॥ - पुराणसार ७८ ७६/२/३२
१३८. उववातो सव्वट्ट े सव्वेसि पढमतो चुतो उसभो । रिक्खेण असाढाहिं असाढबहुले चउत्थी |
- आवश्यक नियुक्ति गा० १८२ (ख) उस गं अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे, सत्तमे पक्खे, आसाढबहुले, तस्स आसाढबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं सव्वसिद्धाओ महाविमाणाओ तेत्तीस सागरोमद्वितीयाओ अरणंतरं चयं चत्ता इहेव जम्बुद्दीवे भारहे वासे इक्खागभूमीए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदेवीए भारियाए पुव्वरत्ताव रत्तकालसमयंसि आहारवक्कंतीए जाव गव्भताए Satara |
-- कल्पसूत्र, सू० १६१ । पृ० ५६
(ग) आषाढमासस्य पक्षे, प्रवृत्ते धवलेतरे । चतुर्थ्यामुत्तराषाढानक्षत्रस्थे निशाकरे ||
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श्री ऋषभ पूर्वभव
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को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के योग में उनका जन्म हुआ । १३९ "श्री ऋषभ" यह नाम रखा गया।
उसके पश्चात् बाहुमुनि का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवकर पर्वभव के वैयावत्य के दिव्य प्रभाव से श्री ऋषभदेव का पूत्र भरत चक्रवर्ती हुआ।१४० सुबाहुमुनि का जीव पूर्वभव में मुनियों को
प्रपाल्याऽऽयुस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमसम्मितम् । जीवः श्रीवज्रनाभस्य च्युत्वा सर्वार्थसिद्धितः ।। श्री नाभिपल्या उदरे मरुदेव्या अवातरत् । मानसात् सरसो हंस, इव मन्दाकिनी तटे ॥
-त्रिषष्ठि १।२।२०६-२१० १३६. चेत्तबहुलट्ठमीए जातो उसभो असाढनक्खते । जम्मणमहो य सव्वो नेयन्वो जाव घोसणयं ।।
--आवश्यक नियुक्ति, १८४ (ख) ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च ।
गतेषु चैत्रबहुलाष्टम्यामनिशाक्षणे ॥ उच्चस्थेषु ग्रहेष्विन्दावुत्तराषाढया युते । सुखेन सुषुवे देवी, पुत्रं युगलर्मिणम् ॥
-त्रिषष्ठि १।२।२६४-२६५ १४०. बाहुजीवपीठजीवौ, च्युत्वा सर्वार्थ सिद्धतः । कुक्षौ सुमङ्गलादेव्या युग्मत्वेनाऽवतेरतुः ॥
-त्रिषष्ठि० ११२।८८४ (ख) बाहुणा वेयावच्चकरणेण चक्किभोगा णिव्वत्तिया ।
--आवश्यक मल० वृ० १६२ (ग) बाहुणा वेयावच्चकरणेण चक्किभोगा णिव्वत्तिया ।
-आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, १२० ततः सर्वार्थसिद्धिस्थो योऽसौ व्याघ्रचरः सुरः । सुबाहुरहमिन्द्रोऽतः चुत्वा तद्गर्भमावसत् ।। प्रमोदभरतः प्रेमनिर्भर बन्धुता तदा । तमाह्वद्भरतं भावि समस्तभरताधिपम् ।।
-महापुराण १२८।१५८।१५।३३६-३३६
(घ)
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
विश्रामरणा देने से श्री ऋषभ के पुत्र बाहुबली हुए जो विशिष्ट बाहुबल के अधिपति थे । १४१
५०
पीठ और महापीठ मुनि के जीवों का ईर्ष्या करने से क्रमशः श्री ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में जन्म हुआ
| १४२
भगवान् श्री ऋषभदेव के विराट् व्यक्तित्व और कृतित्व की झाँकी अगले खण्ड में प्रस्तुत है । यहाँ तो श्रीऋषभदेव के पूर्वभवों का संक्षिप्त रेखा-चित्र उपस्थित किया गया है जो पतनोत्थान का जीवित भाष्य है | श्रमण संस्कृति का यह उद्घोष रहा है कि जब आत्मा पर - परिणति से हटकर स्व-परििित को अपनाता है तब शनैः शनैः शुद्ध बुद्ध निर्मल होता हुआ एक दिन परमात्मा बन जाता है । कर्मपाश से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त होने का नाम ही परमात्मअवस्था है । १४3
इस प्रकार श्रमण संस्कृति ने निजत्व में ही जिनत्त्व की पावन - प्रतिष्ठा कर जन-जन के ग्रन्तर्मानस में प्राशा और उल्लास का संचार किया । प्रसुप्त-देवत्त्व को जगाकर आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान् और नर से नारायण बनने का पवित्र संदेश दिया ।
१४१. त्रिषष्ठि० १२८८६-८८८ । (ख) सुबाहुणा बाहुबलं ।
१४३.
( ग ) सुबाहुणा वीसामणाए बाहुबलं निव्वति ।
१४२. त्रिषष्ठि० १।२१८८४ से ८८६ | (ख) पच्छिमे हिं दोहिं कम्ममज्जितं ति ।
कर्म - बद्धो भवेज्जीवः, कर्ममुक्तस्तथा जिनः ।
- आवश्यक मल० वृ० १६२
- आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति० १२० । १
ताए मायाए इथिनामगोत्
- आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति० १२०
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
. द्वितीय खण्ड
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परिचयरेखा
• महापुरुषों का देश
० साधना के पथ-पर ० युग-पुरुष
० दान • भारतीय संस्कृति के प्राद्य निर्माता ० महाभिनिष्क्रमण • जन्म से पूर्व
• विवेक के अभाव में • शासनव्यवस्था
० साधक जीवन • कुलकरों की संख्या
० विशिष्ट लाभ • दण्डनीति
• अक्षय तृतीया • हाकारनीति
० अरिहन्त के पद पर • माकारनीति
• सम्राट् भरत का विवेक • धिक्कारनीति
० मां मरुदेवी की मुक्ति • स्वप्न-दर्शन
• धर्म चक्रवर्ती • जन्म
• उत्तराधिकारी ० नाम
• प्राद्य परिव्राजक मरीचि • आदिपुरुष
• सुन्दरी का संयम ० वंश उत्पत्ति
• अठानवें भ्राताओं की दीक्षा • विवाह परम्परा
• भरत और बाहुबली • विधवाविवाह नहीं
• सफलता नहीं मिली • भरत और बाहुबली का विवाह • बाहुबली को केवल ज्ञान • सर्वप्रथम राजा
० अनासक्त भरत • राज्यव्यवस्था का सूत्रपात ० भरत से भारतवर्ष ० खाद्यसमस्या का समाधान • भरत को केवल ज्ञान ० कला का अध्ययन
• भगवान् के संघ में • वर्ण-व्यवस्था
० निर्वाण
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प्रथम अध्याय
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गृहस्थ-जीवन
महापुरुषों का देश ___ भारतवर्ष महापुरुषों का देश है, इस विषय में संसार का कोई भी देश या राष्ट्र भारतवर्ष की तुलना नहीं कर सकता। यह अवतारों की जन्मभूमि है, सन्तों की पुण्यभूमि है, वीरों की कर्मभूमि है, और विचारकों की प्रचार-भूमि है। यहाँ अनेक नररत्न, समाजरत्न एवं राष्ट्ररत्न पैदा हुए हैं, जिन्होंने मानव मन की सूखी धरणी पर स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की। जन-जीवन में अभिनव जागृति का संचार किया। जन-मन में संयम और तप की ज्योति जगाई । अपने पवित्र चरित्र के द्वारा और तपः पूत वाणी के द्वारा, कर्तव्य मार्ग में जूझने की अमर प्रेरणा दी।
युग-पुरुष
गगन-मण्डल में विचरती हुई विद्युत तरंगों को पकड़ कर जैसे बेतार का तार उन विद्युत्तरंगों को भाषित रूप देता है, अव्यक्त वाणी को व्यक्त करता है, वैसे ही समाज में या राष्ट्र में जो विचारधाराएँ चलती हैं, उन्हें प्रत्येक विचारक अनुभव तो करता है किन्तु अनुभूति की तीव्रता के अभाव में अभिव्यक्त नहीं कर सकता। युग-पुरुष की अनुभूति तीव्र होती है और अभिव्यक्ति भी तीब्र होती है। वह जनता जनार्दन की अव्यक्त विचारधारात्रों को बेतार के तार की भाँति मुखरित ही नहीं करता बल्कि उसे नूतन स्वरूप प्रदान करता है। उनकी विमल-वाणी में युग की समस्याओं का समाधान निहित होता है। उसके कर्म में युग का कर्म क्रियाशील होता है और उसके चिन्तन में युग का चिन्तन चमकता है । युग-पुरुष अपने युग का सफल प्रतिनिधित्व करता है। जन-जन के मन का
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
साधिकार नेतृत्व करता है एवं वह युग की जनता को सही दिशा-दर्शन देता है। भूले-भटके जीवन राहियों का पथप्रदर्शन करता है। अतः वह समाज रूपी शरीर का मुख भी है और मस्तिष्क भी है।
भगवान् श्री ऋषभदेव ऐसे ही युगपुरुष थे, जिन्होंने अपने युग की भोली-भाली जनता को "सत्यं, शिवं सुन्दरम्" का पाठ पढ़ाया, जनजीवन को नया विचार, नयी वाणी एवं नया कर्म प्रदान किया ।भोगमार्ग से हटाकर कर्ममार्ग, प्रवृत्तिमार्ग और योगमार्ग पर लगाया । अज्ञानान्धकार को हटाकर ज्ञान का विमल आलोक प्रज्ज्वलित किया । मानव-संस्कृति का नव-निर्माण किया । यही कारण है कि अनन्त-अतीत की धूलि भी उनके जीवन की चमक एवं दमक को आच्छादित नहीं कर सकी। भारतीय संस्कृति के आद्यनिर्माता
आज मानवसंस्कृति के प्राद्यनिर्माता महामानव भगवान् श्री ऋषभदेव को कौन नहीं जानता ? वे वर्तमान अवसर्पिणी काल-चक्र में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर हुए हैं।' उन्होंने ही सर्वप्रथम पारिवारिक प्रथा, समाजव्यवस्था, शासनपद्धति, समाजनीति और राजनीति की स्थापना की और मानवजाति को एक नया प्रकाश दिया जिसका उल्लेख अगले पृष्ठों में किया जाएगा। जन्म से पूर्व
भगवान् श्री ऋषभदेव ऐसे युग में इस अवनीतल पर आये जब
१. (क) एत्थणं उसहेणामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली, पढमतित्थयरे, पढम धम्मवर चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था।
-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति . (ख) उसभे इ वा, पढमराया इ वा, पढमभिक्खाचरे इवा, पढमजिणे इवा, पढमतित्थकरे इ वा।।
-कल्पसूत्र० पुण्यविजयजी सू० १६४ पृ० ५७
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गृहस्थ जीवन आर्यावर्त के मानवीय जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा था । जीवन का ढंग पूरी तरह पलट रहा था । निष्क्रिय - यौगलिक काल समाप्त होकर कर्मयुग का प्रारम्भ होने जा रहा था । प्रतिपल, प्रतिक्षण मानव की आवश्यकताएँ तो बढ़ रही थीं पर उस युग के जीवन निर्वाह के एक मात्र साधन कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण हो रही थी । साधनों की अल्पता से संघर्ष होने लगा, वाद-विवाद, लूट-खसोट और छीना-झपटी होने लगी । संग्रहबुद्धि पैदा होने लगी । स्नेह, सरलता, सौम्यता, निस्पृहता प्रभृति सद्गुणों में परिस्थिति की विवशता से परिवर्तन आने लगा । अपराधी मनोभावना के बीज अंकुरित होने लगे ।
शासन व्यवस्था
विख्यात राजनैतिक विचारक टामस्पेन ने लिखा है, “मानव अपनी बुरी प्रवृत्तियों पर स्वयं नियंत्रण नहीं रख सका इसलिए शासन का जन्म हुआ । शासन का कार्य है व्यक्ति की बुरी प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना । अच्छी प्रवृत्ति फूल की लता है, फल का वृक्ष है, जिसे बुरी प्रवृत्ति की झाड़ियाँ घेरती हैं, पनपने नहीं देतीं। शासन का काम इन झाड़ियों को काटना है ।"
प्रस्तुत सन्दर्भ के प्रकाश में हम जैन संस्कृति की दृष्टि से देखें तो भी शासन व्यवस्था का मूल अपराध और ग्रव्यवस्था ही है । अपराध और अव्यवस्था पर नियंत्रण पाने के हेतु सामूहिक जीवन जीने के लिए मानव विवश हुया । मानव की अन्तः प्रकृति ने उसे प्रेरणा प्रदान की । उस सामूहिक व्यवस्था को 'कुल' कहा गया। कुलों का मुखिया जो प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न होता था वह 'कुलकर' कहलाने लगा । वह उन कुलों की सुव्यवस्था करता । 3
२. ज्ञानोदय, वर्ष १७ अङ्क २ अगस्त १६६५, सहचिन्तन,
५५
स्थानांग सूत्रवृत्ति ० सू० ७६७, पत्र ५१८-१ ।
( कन्हैयालाल मिश्र ) पृ० १४४ ।
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
कुलकरों की संख्या
कुलकरों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं । स्थानाङ्ग' समवायांग" भगवती, आवश्यकचूणि,६ आवश्यकनियुक्ति तथा त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र में सात कुलकरों के नाम उपलब्ध होते हैं । पउमचरियं, महापुराण और सिद्धान्त संग्रह" में चौदह के तथा
४. स्थानांग सूत्र वृत्ति सू० ७६७ पत्र ५१८-१ । ५. समवायांग १५७ । (ख) जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाए __ कइ कुलगरा होत्था ? गोयमा ! सत्त।
-भगवती श० ५, उद्द० ६, सू० ३ आवश्यक चूणि पत्र १२६ । पढमेत्थविमलवाहण, चक्खुम जसमं चउत्थमभिचन्दे । तत्तो य पसेणइए, मरुदेवे चेव नाभी य ।।
-आवश्यक नि० मल० वृ० गा० १५२ पृ० १५४ ८. त्रिषष्ठि० पर्व० १, स० २, श्लो० १४२-२०६।। ६. पउमचरियं उद्दे० ३, श्लो० ५०-५५
(१) सुमति, (२) प्रतिश्रु ति, (३) सीमङ्कर, (४) सीमन्धर, (५) क्षेमंकर, (६) क्षेमंधर, (७) विमलवाहन, (८) चक्षुष्मान्, (६) यशस्वी, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित्, (१३) मरुदेव, (१४) नाभि । आद्यः प्रतिश्रु तिः प्रोक्तः, द्वितीयः सन्मतिर्मतः । तृतीयः क्षेमकृन्नाम्ना, चतुर्थः क्षेमधृन्मनुः ॥ सीमकृत्पंचमो ज्ञेयः, षष्ठः सीमधृदिष्यते । ततो विमलवाहाङ्कश् चक्षुष्मानष्टमो मतः। यशस्वान्नवमस्तस्मान् नाभिचन्द्रोऽप्यनन्तरः ॥ चन्द्राभोऽस्मात्परं ज्ञेयो, मरुदेवस्ततः परम् । प्रसेनजित्परं तस्मा, नाभिराजश्चतुर्दशः ।। -महापुराण जिनसेनाचार्य, प्रथम भाग, तृतीय पर्व
श्लो० २२६-२३२, पृ० ६६, ११. सिद्धान्त संग्रह पृष्ठ १८
१०.
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गृहस्थ-जीवन
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में पन्द्रह के नाम मिलते हैं । सम्भवतः अपेक्षा भेद से इस प्रकार हुआ हो। - कुलकरों को आदिपुराण में 'मनु' भी कहा है। वैदिक साहित्य में कुलकरों के स्थान में 'मनु' शब्द ही व्यवहृत हुआ है । मनुस्मृति में स्थानांग की तरह सात मनुओं का उल्लेख है तो अन्यन्त्र चौदह का भी।" संक्षेप में चौदह या पन्द्रह कुलकरों को सात में अन्तर्निहित किया जा सकता है। चौदह या पन्द्रह कुलकरों का जहाँ उल्लेख है, उसमें प्रथम छः सर्वथा नये हैं और ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभ का भी उल्लेख नहीं है। शेष सात वे ही हैं।
१४.
१२. तीसे समाए पच्छिमेतिभाए पलिओवमद्ध
भागावसेसे, एत्थरणं, इमे पण्णरस कुलगरा समुप्पज्जित्था तं जहा-सुमई, पडिस्सुई, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहणे, चक्खुमं, जसमं अभिचन्दे चंदाभे, पसेणई, मरुदेवे, णाभी उसभोत्ति ।
- जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति पत्र० १३२ आदि पुराण ३।१५। (ख) महापुराण ३१२२६। पृ० ६६ । स्वायम्भुवस्यास्य मनोः, षड्वंश्या मनवोऽपरे । सृष्टवन्तः प्रजाः स्वाः स्वाः, महात्मानो महौजसः ।। स्वारोचिषश्चोत्तमश्च, तामसो रैवतस्तथा । चाक्षुषश्च महातेजा, विवस्वत्सुत एव च ॥ स्वायम्भुवाद्याः सप्तैते, मनवो भूरितेजसः । स्वे स्वेऽन्तरे सर्वमिदमुत्पाद्यापुश्चराचरम् ॥
-मनुस्मृति, अ० १। श्लो० ६१-६२-६३ १५. . (१) स्वायम्भुव, (२) स्वारोचिष, (३) ओत्तमि, (४) तापस,
(५) रैवत, (६) चाक्षुष, (७) वैवस्वत, (८) सावर्णि, (६) दक्षसावणि, (१०) ब्रह्मसावणि, (११) धर्मसावर्णि, (१२) रुद्रसावणि, (१३) रोच्य देव सावणि, (१४) इन्द्र सावणि ।।
-मोन्योर-मोन्योर विलियम संस्कृत-इङ्गलिश डिक्शनरी पृ० ७८४
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५८
ऋषभदेव : एक परिशीलन
वण्डनीति
अपराधी मनोवृत्ति जब व्यवस्था का अतिक्रमण करने लगी तब अपराधों के निरोध के लिये कुलकरों ने सर्वप्रथम दण्डनीति६ का प्रचलन किया । वह दण्डनीति हाकार, माकार और धिक्कार थी। हाकार नीति
सात कुलकरों की दृष्टि से प्रथम कुलकर विमल वाहन के समय हाकार नीति का प्रचलन हुआ। उस युग का मानव आज के मानव की तरह अमर्यादित व उच्छृखल नहीं था। वह स्वभाव से ही संकोची और लज्जाशील था। अपराध करने पर अपराधी को इतना ही कहा जाता-"हा ! अर्थात् तुमने यह क्या किया ?" यह शब्द-प्रताड़ना उस युग का महान् दण्ड था । अपराधी पानी-पानी हो जाता। प्रस्तुत नीति द्वितीय कुलकर “चक्षुष्मान्" के समय तक सफलता के साथ चली। माकार नीति
जब "हाकार नीति' विफल होने लगी, तब “माकार नीति" का प्रयोग प्रारम्भ हुअा। तृतीय और चतुर्थ कुलकर “यशस्वी" और
१६. दण्ड: अपराधिनामनुशासनं तत्र तस्य वा स एव वा नीतिः नयो दण्डनीतिः ।
-स्थानांग वृत्ति, प० ३६६-१ १७. हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव दण्डनीतीओ। वोच्छं तासि विसेसं जहक्कम आरगुपुबोए ।।
-आव०नि० गा० १६४ १८. "ह इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हकारः ।
--स्थानाङ्ग सू० वृत्ति० प० ३६६ १६. तेणं मणुआ हक्कारेणं दंडेणं हया समाणा लज्जिआ, विलज्जिआ, वेट्टा भीआ तुसिणीआ विणओणया चिट्ठन्ति ।
-जम्बू० कालाधिकार पृ०७६ २०. मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं अभिधानं माकारः ।
-स्थानाङ्ग वृत्ति प० ३६६
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गृहस्थ-जीवन
५६
"अभिचन्द्र" के समय तक लघु अपराध के लिए "हाकार नीति" और गुरुतर अपराध के लिए "माकार नीति" प्रचलित रही । “मत करो" यह निषेधाज्ञा महान् दण्ड समझी जाने लगी। धिक्कारनीति
मगर जन साधारण की धृष्ठता क्रमशः बढ़ती जा रही थी, अतः माकारनीति के भी असफल हो जाने पर "धिक्कारनीति" का प्रादुर्भाव हुआ।" और यह नीति पाँचवें प्रसेनजित्, छठे मरुदेव तथा सातवें कुलकर नाभि तक चलती रही। इस प्रकार खेद, निषेध और तिरस्कार मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली थे । क्योंकि उस समय का मानव स्वभाव से सरल और मानस से कोमल था। उस समय तक अपराधवृत्ति का विशेष विकास नहीं हुआ था। स्वप्न-दर्शन ___ अन्तिम कुलकर नाभि के समय यौगलिक सभ्यता क्षीण होने लगी, और एक नयी सभ्यता मुस्कुराने लगी। उस सन्धिवेला में श्री ऋषभदेव सर्वार्थविमान से च्यवकर माता मरुदेवी की कुक्षि में आये। उनके पिता नाभि थे ।२3
२१. धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं उच्चारणं धिक्कारः ।
-स्थानांग वृत्ति प० ३६६ २२. तेणं मणुआ पगईउवसन्ता, पगई पयरगुकोह-माण-माया-लोहा, __ मिउ-मद्दवसम्पण्णा, अल्लीणा, भद्दगा, विणीआ, अप्पिच्छा, असणिहिसंचया, विडिमन्तरपरिवसणा जहिच्छिअ कामकामिणो।।
-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार सू० १४ नाभिस्स कुलगरस्स मरुदेवीए भारियाए ।
-कल्पसूत्र पुण्य ० सू० १६१ पृ० ५६ (ख) त्रिषष्ठि पर्व १, सर्ग २, श्लो० ६४७ से ६५३ । (ग) नाभिस्त्वजनयत्पुत्रं, मरुदेव्यां महाद्य तिः । ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥
-वायुमहापुराण पूर्वार्ध ५ अ० ३३
२३.
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६०
ऋषभदेव : एक परिशीलन
जब बालक गर्भ में आता है तब गर्भ का माता के मानस पर, और माता के मानस का गर्भ पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि किसी विशिष्ठ पुरुष के गर्भ में आने पर उसकी माता कोई श्रेष्ठ स्वप्न देखती है। भारतीय साहित्य में स्वप्न-विज्ञान के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण मिलता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के गर्भ में आने पर माता कौशल्या ने चार स्वप्न देखे थे ।२४ कर्मयोगी श्रीकृष्ण के गर्भ में आने पर देवकी ने सात स्वप्न देखे थे ।२५ महात्मा बुद्ध के
(घ) नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं, मरुदेव्या महाद्य तिम् ॥५६॥
ऋषभं पार्थिवं श्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः ।। -- ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्वाद्ध, अनुषङ्गपाद श्लो० ५६-६० अध्याय १४ (ङ) नाभिर्मरुदेव्यां पुत्रमजनयत् ऋषभनामानं ।
__ --वाराह पुराण अध्याय ७४ पुत्रश्च ऋषभः । ----स्कन्ध पुराण, माहेश्वरखण्ड-कौमारखण्ड
श्लो० ५७ अध्याय ३७ (छ) हिमाह्वयं तु यद्वर्ष, नाभेरासीन्महात्मनः । तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो, मेरुदेव्या महाद्य तिः ।।
-कूर्मपुराण श्लो० ३७ अध्याय ४१ २४. (क) चतुरो बलदेवाम्बाथ".............।
-श्री काललोकप्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक ५६ पृ० १६६ (ख) ददर्श सुखसुप्ता च यामिन्याः पश्चिमे क्षणे । चतुरः सा महास्वप्नान् सूचनान् बलजन्मनः ।।
-त्रिषष्ठि० पर्व ४ । सर्ग १, श्लो० १६८ (ग) सेनप्रश्न पृ० ३७६ ।
(घ) जैन रामायण, केशराज जी १६ वी ढाल के दोहे । २५. यामिन्याः पश्चिमे यामे सूचका विष्णुजन्मनः । देव्या दहशिरे स्वप्नाः सप्तैते सुखसुप्तया ॥
-त्रिषष्ठि० ४।१।२१७ (ख) सेनप्रश्न पृ० ३७६ ।
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गृहस्थ-जीवन
गर्भ में आने पर उनकी माता मायादेवा नायक षडदन्त गज का स्वप्न देखा था।२६ उसी प्रकार श्री ऋषभदेव के गर्भ में आने पर माता मरुदेवी ने भी (१) गज, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) पुष्पमाला, (६) चन्द्र, (७) सूर्य (८) ध्वजा, (६) कुम्भ, (१०) पद्मसरोवर, (११) क्षीर-समुद्र, (१२) विमान, (१३) रत्नराशि, (१४) निधूम अग्नि ये चौदह महास्वप्न देखे ।२७ दिगम्बराचार्य जिनसेन ने सोलह स्वप्न देखने का उल्लेख किया है ।२८ उपयुक्त चौदह स्वप्नों में से ध्वजा को
२६. (क) बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन पृ० २, प्रथम संस्क० ।
(ख) ललित विस्तर, गर्भावक्रान्ति परिवर्तन । २७. गय वसह सीह अभिसेय, दाम ससि दिणयरं झयं कुम्भं । पउमसर सागर विमाण-भवण रयणुच्चय सिहिं च ॥१॥
-कल्पसूत्र प० १४ (पुण्यविजय) २८. सापश्यत् पोडशस्वप्नान्, इमान् शुभफलोदयान् ।
निशायाः पश्चिमे यामे, जिनजन्मानुशंसिनः ॥१०३।। गजेन्द्रमैन्द्रमामन्द्रवृहितं त्रिमदस्र तम् । ध्वनन्तमिवसासारं, सा ददर्श शरधनम् ॥१०४।। गवेन्द्र दुन्दुभिस्कन्धं, कुमुदापाण्डुरा तिम् । पीयूषराशिनीकाशं, सापश्यत् मन्द्रनिःस्वनम् ॥१०॥ मृगेन्द्रमिन्दुसच्छायवपुषं
रक्तकन्धरम् । ज्योत्स्नया सन्ध्यया चैव, घटिताङ्गमिवक्षत ॥१०६॥ पद्म पद्ममयोतुङ्गविष्टरे सुरवारणैः । स्न्प्यां हिरण्मयैः कुम्भः अदर्शत् स्वामिव श्रियम् ॥१०७।। दामनी कुसुमामोद, समालग्नमदालिनी । तज्झङ्कृतरिवारब्धगाने सानन्दमैक्षत ॥१०८।। समग्रबिम्बयुज्ज्योत्स्नं, ताराधीशं सतारकम् । स्मेरं स्वमिव वक्त्रानं, समौक्तिकमलोकयत् ॥१०॥ विधूतध्वान्तमुद्यन्तं, भास्वन्तमुदयाचलात् । शातकुम्भमयं कुम्भ मिवाद्राक्षीत् स्वमङ्गले ॥११०॥ कुम्भी हिरण्मयौ पद्मपिहितास्यौ व्यलोकत । स्तनकुम्भाविवात्मीयौ, समासक्तकराम्बुजौ ।।१११॥
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
उन्होंने स्थान नहीं दिया है। शेष तेरह स्वप्न वे ही हैं। उनके अतिरिक्त, (१) मत्स्ययुगल (२) सिंहासन, (३) नागेन्द्र का भवन-ये तीन स्वप्न अधिक हैं। श्वेताम्बरमान्यतानुसार नरक से आने वाले तीर्थङ्करों की माता स्वप्न में भवन देखती हैं और स्वर्ग से आने वालों की माता विमान ।२९ उन्होंने विमान और भवन के स्वप्न को वैकल्पिक माना है।
झषौ सरसि सम्फुल्लकुमुदोत्पलपङ्कजे । सापश्यन्नयनायाम, दर्शयन्ताविवात्मनः ।।११२।। तरत्सरोजकिञ्जल्कपिञ्जरोदकमैक्षत मुवर्णद्रवसम्पूर्णमिव दिव्यं सरोवरम् ॥११३।। क्षुभ्यन्तमब्धिमुलं चलत्कल्लोलकाहलम् । सादर्शच्छीकरैर्मोक्तुम्, अट्टहासमिवोद्यतम् ॥११४॥ सैमासनमुत्तुङ्ग, स्फुरन्मणिहिरण्मयम् । सापश्यन्मेरुशृङ्गस्य, वैदग्धीं दधदूजिताम् ॥११५॥ नाकालयं व्यलोकिष्ट, परामणिभासुरम् । स्वसूनोः प्रसवागार,मिव देवरुपाहृतम् ॥११६।। फणीन्द्रभवनं भूमिम्, उद्भिद्योद्गतमक्षत । प्राग्दृष्टस्वविमानेन, स्पर्धी कत्तु मिवोद्यतम् ॥११७।। रत्नानां राशिमुत्सर्पदंशुपल्लविताम्बरम् । सा निदध्यौ धरादेव्या, निधानमिव दर्शितम् ॥११८॥ ज्वलद्भासुरनिधूमवपुषं विषमाचिषम् । प्रतापमिव पुत्रस्य, मूर्तिरूपं न्यचायत ॥११६।। न्यशामयच्च तुङ्गाङ्ग पुङ्गवं रुक्मसच्छविम् । प्रविशन्तं स्ववक्त्राब्जं स्वप्नान्ते पीनकन्धरम् ॥१२०।। -महापुराण जिनसेनाचार्य, प० १२, श्लो० १०३ से १२०
पृ० २५६-२६० देवलोकाद्योऽवतरति तन्माता विमानं पश्यति, यस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति ।
-भगवती शतक ११, उद्द० ११, अभयदेववृत्ति
२६.
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गृहस्थ-जीवन
जन्म
भगवान् श्री ऋषभदेव का जन्म जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णिी, त्रिषष्ठिशालाकापुरुषचरित्र, प्रभृति श्वेताम्बरग्रन्थानुसार चैत्र कृष्णा अष्टमी को हुआ और दिगम्बराचार्य जिनसेन के अनुसार नवमी को । संभव है अष्टमी की मध्यरात्रि होने से श्वेताम्बर परम्परा ने अष्टमी लिखा हो और प्रातःकाल जन्म मानने से दिगम्बर परम्परा ने नवमी लिखा हो । इस
३०. उसभे अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले
तस्सणं चित्तबहुलस्स अट्ठमीपक्खेणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णारणं अट्ठमाण य राइन्दियाणं जाव आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आरोग्गा आरोग्गं पयाया।
--कल्पसूत्र, पुण्य० सू० १६३ पृ० (ख) चेत्तबहुलट्ठमीए जातो उसभो असाढनक्खते ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० १८४ (ग) .....""चेतबहुलट्टमीए उत्तरासाढाणक्ख तेरणं जाव अरोगा अरोगं पयाता।
-आवश्यक चूर्णि, जिनदासमहत्तर पृ० १३५ (घ) त्रिषष्ठिः सर्ग २, पर्व १ श्लो० पृ० २६४ । (ङ) कल्पलता—समय सुन्दर पृ० १६७ । (च) कल्पद्र म कलिका–लक्ष्मीवल्लभ पृ० १४२ । (छ) कल्पसूत्र कल्पार्थबोधिनी, केशरगणी पृ० १४४ ।
(ज) कल्पसूत्र , कल्पसुबोधिका, पृ० ४८५ । ३१. अथातो नवमासानाम्, अत्यये सुषुवे विभुम् ।
देवी देवीभिरुक्ताभिः, यथास्वं परिवारिता ॥ प्राचीव बन्धुमब्जानां, सा लेभे भास्वरं सुतम् । चैत्रे मास्यसिते पक्षे, नवम्यामुदये रवः ।। विश्बे ब्रह्ममहायोगे, जगतामेकवल्लभम् । भासमानं त्रिभिर्बोधैः शिशुमप्यशिशु गुणैः ।।
–महापुराण जिनसेन स० १३, श्लो० १-३ पृ० २८३
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
भेद का प्रमुख कारण हमारी दृष्टि से उदय और अस्त तिथि की पृथक्-पृथक् मान्यता हो सकती है। नाम
मां मरुदेवी ने जो चौदह महास्वप्न देखे थे। उनमें सर्वप्रथम वृषभ का स्वप्न था और जन्म के पश्चात् भी शिशु के उरु-स्थल पर वृषभ का लांछन था अतः उनका नाम "ऋषभ' रखा गया ।33 भागवत्
३२. (क) सा उसहगयसीहमाईए चोद्दस सुमिणे पासित्ता पडिबुद्धा ।
-आवश्यक नि० मल० वृत्ति० ५० १६३६१ (ख) णवरं पढमं उसभं मुहे अतितं पासति सेसाउ गयं । ।
___-कल्पसूत्र पुण्य० सू० १६२ पृ० ५६ (ग) स्वर्गावतरणे दृष्टः, स्वप्नेऽस्य वृषभो यतः । जनन्यां तदयं देवः, आहूतो वृषभाख्यया ।
--महापुराण, जिनसेन, चतुर्दश पर्व श्लो० १६२
(घ) त्रिषष्टि १।२।२१३। प० ४०।१, पृ० ३१६ ३३. (क) तत्र भगवतो नाम निबन्धनं चतुर्विंशतिस्तवे वक्ष्यति उरुसुउसभलंछणमुसभं सुमिणमि तेण उसभजिणो ।
-आवश्यक मल० वृ० पृ० १६२।१ (ख) ऊरुसु उसभलंछणं उसभो सुमिणमि तेण कारणेण उसभोत्ति णामं कयं ।
-आवश्यक चूणि जिनदास पृ० १५१ (ग) ऊरुप्रदेशे ऋषभो, लाञ्छनं यज्जगत्पतेः ।
ऋषभः प्रथमं यच्च, स्वप्ने मात्रा निरीक्षितः ।। तत्तस्य ऋषभ इति, नामोत्सवपुरः सरम् । तौ मातापितरी हृष्टौ, विदधाते शुभे दिने ।
-त्रिषष्ठि० १।२।६४८-६४६ । प० ५४ (घ) पूर्व स्वप्नसमये वृषभस्य दर्शनात्, पुत्रस्योभयोर्जङ्घयोः रोम्णाम्
आवर्तभ्रमणावलोकाद् वृषभस्याकारस्यलञ्छनाद् नाभिकुलकरेण "ऋषभः" इतिनाम दत्तम् ।
-~~-कल्पसूत्र, व्या० ७ पृ० १४२ कल्पद्र मकलिका (ङ) कल्पसूत्र कल्पार्थबोधिनी पृ० १४४ ।
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गृहस्थ-जीवन के मंतव्यानुसार उनके सुन्दर शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश और पराक्रम प्रभृति सद्गुणों के कारण महाराजा नाभि ने उनका नाम ऋषभ दिया ।३४
भगवती, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायाङ्ग, चतुर्विंशतिस्तव, कल्पसूत्र,९ नन्दीसूत्र,४० निशीथचूणि आदि आगमसाहित्य
३४. तस्य ह वा इत्थं वर्मणा वारीयसा वृहच्छ्लोकेन चौजसा बलेन, श्रिया, यशसा, वीर्यशौर्याभ्यां च पिता ऋषभ इतीद नाम चकार ।।
-श्रीमद्भागवत ५।४।२। प्र० ख० गोरखपुर संस्क० ३, ५० ५५६ ३५. उसभस्स अरहओ कोसलियस्स ।
-----भगवती शत० २०, उद्द० ८ ३६. उसभेणं अरहा कोसलिए ।
-जम्बू० सू० ४६, पृ० ८६ अमोलक० उसभस्स पढमभिक्खा।
-समवायांग (ख) उसभेण लोयणाहेण ।
-समवायांग ३८. उसभमजियं च वन्दे ।
चतुर्विशतिस्तव सूत्र ३६. उसभेणं अरहा कोसलिए ।
-कल्पसूत्र सू० १६१ पृ० ५५ ४०. उसभं अजियं संभवमभिनन्दण-सुमइ-सुप्पभ-सुपासं।
-नन्दीसूत्र गाथा १८ ४१. पुरिमा उसभसामिणो सिस्सा ।
____-निशीथ चूणि, तृतीय भाग पृ० १५३ (ख) पूरिमो रिसभो, पच्छिमो वद्धमाणो ।
--निशीथ चूणि द्वि० भाग, पृ० १३६ सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
में यही नाम आया है। उनके नाम के साथ "नाथ" और "देव" शब्द कब जुड़े, यह कहना कठिन है, तथापि यह स्पष्ट है कि ये शब्द उनके प्रति भक्ति और श्रद्धा के सूचक हैं ।
दिगम्बरपरम्परा में ऋषभदेव के स्थान पर "वृषभदेव" भी प्रसिद्ध है। वृषभदेव जगत् भर में ज्येष्ठ हैं और जगत् का हित करने वाले धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेंगे, एतदर्थ ही इन्द्र ने उनका नाम वृषभदेव रखा ।४२ वृष कहते हैं श्रेष्ठ को। भगवान् श्रेष्ठ धर्म से शोभायमान हैं, इसलिए भी इन्द्र ने उन्हें 'वृषभ स्वामी' के नाम से पुकारा।
श्री ऋषभदेव धर्म और कर्म के प्राद्यनिर्माता थे, एतदर्थ जैन इतिहासकारों ने उनका एक नाम "आदिनाथ" भी लिखा है और यह नाम अधिक जन-मन प्रिय भी रहा है।
श्री ऋषभदेव प्रजा के पालक थे, एतदर्थ प्राचार्य जिनसेन ४८ व प्राचार्य समन्तभद्र ने उनका एक गुण-निष्पन्न नाम
४२. वृषभोऽयं जगज्ज्येष्ठो, वर्षिष्यति जगद्धितम् । धर्मामृतमितीन्द्रास्तम्, अकार्षुवृपभाह्वयम् ।।
---महापुराण, जिनसेन पर्व १४, श्लो० १६०, पृ० ३१६ ४३. वृपो हि भगवान्धर्मः, तेन यद्भाति तीर्थकृत् । ततोऽयं वृषभस्वामीत्याह्वास्तैर्न पुरन्दरः ।।
--महापुराण, जिनसेन पर्व १४, श्लो० १६१, पृ० ३१६ ४४. आषाढमासबहुलप्रतिपद्दिवसे कृती । कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान् ।।
--महापुराण १६०।१६।३६३ ४५. प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविपुः,
शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निर्विविदे विदाम्बरः ।।
-वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र
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गृहस्थ-जीवन
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'प्रजापति' भी लिखा है । इनके अतिरिक्त उनके काश्यप,५६ विधाता, विश्वकर्मा और स्रष्टा आदि अनेक नाम भी प्रसिद्ध हैं। आदिपुरुष
भगवान् श्री ऋषभदेव जैनसंस्कृति की दृष्टि से प्रथम तीर्थङ्कर हैं । श्रीमद्भागवत की दृष्टि से वे विष्णु के अवतार हैं। भगवान श्री विष्णु महाराजा नाभि का प्रिय करने के लिये उनके अन्तःपुर की महारानी मरुदेवी के गर्भ में आये। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया।
शिव महापुराण के अनुसार भगवान् श्री ऋषभदेव शिव के अट्ठाईग योगावतारों में आठवें योगावतार हैं। उन्होंने ऋषभदेव के
४६. कासं-उच्छू, तस्य विकारो-कास्यः-रसः, सो जस्स पारणं सो कासवो----उमभस्वामी।
_--- दशवकालिक - अगस्त्यसिंह चूणि (ख) काश्यमित्युच्यते तेजः काश्यपस्तस्य पालनान् ।
__ -- महापुराण १० १६, श्लो० २६६ पृ० ३७० ४७. विधाता विश्वकर्मा च, स्रष्टा चेत्यादिनामभिः । प्रजास्तं व्याहरन्ति स्म, जगतां पतिमच्युतम् ।।
-महापुराण, आचार्य जिनसेन १६।२६७।३७० ४८. प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया,
तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितकामो, वातरशनानां श्रमणानां ऋषीणाम् ऊर्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततारः ॥
-श्री मद्भागवत पञ्चम स्कन्ध ४६. शिव पुराण, वायुसंहिता, उत्तरखण्ड अ० ६, श्लो० ३, पृ० १३७६
वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई।
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
रूप में अवतार ग्रहण किया। प्रभास पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है।५१
डाक्टर राजकुमार जैन ने “वृषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ"५२ शीर्षक लेख में वेद, उपनिषद्, भागवत प्रभृति ग्रन्थों के शताधिक प्रमाण देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ऋषभदेव और शिव एक ही हैं; पृथक्-पृथक् नहीं । श्रमण और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं के वे आदि पुरुष हैं। वंश-उत्पत्ति ___ जब ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम के थे उस समय वे पिता की गोद में बैठे हुए क्रीड़ा कर रहे थे । शकेन्द्र हाथ में इक्ष लेकर आया।"3 ऋषभदेव ने उसे लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। बालक का इक्ष के प्रति आकर्षण देखकर शक्र ने इस वंश को 'इक्ष्वाकु वंश' नाम से
५०. इत्थंप्रभाव ऋषभोऽवतारः शंकरस्य मे।
सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितस्तव ।। ऋषभस्य चरित्रं हि परमं पावनं महत् । स्वयं यशस्यमायुष्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः ।।
-शिवपुराण ४।४७-४८ कैलाशे विमले रम्ये, वृपभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारं च, सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।।
--प्रभासपुराण ४६ ५२. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ६०६ । ५३. (क) देसूणगं च वरिसं सक्कागमणं च वंसठवणा य ।
---आवश्यक नि० गा० १८५ मल० वृ० पृ० १६२ (ख) इतो य णाभिकुलकरो उसभसामिणो अंकवरगतेणं एवं च
विहरति, सक्को य महप्पमाणाओ इवखुलट्ठीओ गहाय उवगतो जयावेई ।
-आवश्यक चूणि पृ० १५२
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गृहस्थ जीवन
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अभिहित किया। आचार्यों ने व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- इक्षु + श्राकु (भरणार्थे) इक्ष्वाकु |
1996
विवाह परम्परा
सामाजिक रीतिरिवाज, जिसमें विवाहप्रथा भी सम्मिलित है, कोई शाश्वत सिद्धान्त नहीं, किन्तु उन में युग के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। भाई-बहिन का विवाह इस युग में बड़े से बड़ा पाप माना जाता है, किन्तु उस युग में यह एक सामान्य प्रथा थी । यौगलिक परम्परा में भाई और भगिनी ही पति और पत्नी के रूप में परिवर्तित हो जाया करते थे । सुनन्दा के भ्राता की अकाल में मृत्यु हो जाने से
५४.
५५.
(क) सक्को वसवणे इक्खु अगू तेण हुन्ति इक्खागा ।
- आवश्यक नियुक्ति गा० १८६ । ( ख ) भगवता लट्ठीसु दिट्ठी पाडिता, ताहे सक्केण भणियं - कि भगवं ! इक्खुअकु । अकु भवखणे, ताहे सामिणा पसत्थो लक्खणधरो अलंकित विभूसितो दाहिणहत्थो पसारितो, अतीव तम्मि हरिसो जातो भगवन्तस्स, तएरणं सक्क्स्स देविंदस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिते - जम्हा गं तित्थगरो इक्खु अभिलसति तम्हा इक्खागुवंसो भवतु, एवं सक्को वंसं ठवेऊण गतो, अन्नेऽवि तं कालं खत्तिया इक्खु भुञ्जन्ति तेण इक्खागवंसा जाता इति उवरि आहारद्दारे निरुतंमि " आसीय इक्खुभोती इक्खागा तेण खतिया होति" भन्निही ।
- आवश्यक चूर्णि, पृ० १५२
(ग) त्रिषष्ठि शलाका० १/२/६५४ से ६५६ । (घ) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पृ० ४८७ ।
(ङ) कल्पसूत्र, कल्पलता, समयसुन्दर जी, पृ० १६८ । कल्पार्थबोधिनीवृत्ति केसर० पृ० १४४ ।
(च)
O
(छ)
कल्पद्र ुमकलिका पृ० १४३ । मणिसागर पृ० २९६
(ज)
11
पढमो अकालमच्चू तहि, तालफलेण दारको उ हतो । कन्नाय कुलगरोह य, सिट्ठ े गहिया उसभपत्ती ॥
"
"
- आव० नि० गा० १६०, म० वृ० १९३
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७०
ऋषभदेव : एक परिशीलन
ऋषभदेव ने सुनन्दा व सहजात सुमङ्गला के साथ पाणिग्रहण कर नई व्यवस्था का सूत्रपात किया।"६ सुमङ्गला ने भरत और ब्राह्मी को
और सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को जन्म दिया। इसके पश्चात् सुमंगला के क्रमशः अट्ठानवें पुत्र और हुए। दिगम्बर परम्परा निन्यानवें पूत्र मानती है।५९
५६. (क) भोगसमत्थं नाउ, वरकम्मं तस्स कासि देविन्दो । दोण्हं वरमहिलाणं, बहुकम्मं कासि देवीतो ।।
-आव० नि० गा० १६१ प० १६३ (ख) त्रिषष्ठि १।२।८८१ ।। देवी सुमङ्गलाए, भरहो बम्भी य मिहुणगं जायं । देवीए सुनन्दाए, बाहुबली सुन्दरी चेव ।।।
-आवश्यक मूलभाष्य (ख) छप्पुथ्वसयसहस्सा, पुवि जायस्स जिणवरिदस्स । तो भरहबंभिसुन्दरि, बाहुबली चेव जायाइ ।
-आव० नि० गा० १६२ म० वृ० १६४।१ (ग) आवश्यक चूणि पृ० १५३। (घ) सुनन्दा सुन्दरी पुत्री, पुत्रं बाहुबलीशिनम् । लब्ध्वा रुचि परां भेजे, प्राचीवार्क सह त्विषा ।।
-महा० १६।८।३४६ (ङ) तदा बाहुजीवो भरतः, पीठजीवो ब्राह्मी इति सुमङ्गलायाः ___ मिथुनकं जातं । एवं सुबाहुजीवो बाहुबली, महापीठजीवः सुन्दरी इति मिथुनकं सुनन्दायाः जातं ।।
-कल्पलता-समय सुन्दर (च) कल्प० कल्पार्थबोधिनी पृ० १४४-१४५ । (छ) , कल्पद्रु म कलिका, लक्ष्मी० पृ० १४३ । अउणापन्नं ज्यले पुत्ताण सुमङ्गला गो रस ।
-~-आव०नि० गा० १६३ मल० वृ० १९४१ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १५३ । (ब) एवं पुनरपि सुमङ्गलाया एकोनपञ्च शत् युगलानि पुत्ररूपाणि जातानि ।
___ --कल्पलता-समयसुन्दर ५६. इत्येकानशतं पुत्रा, बभूबुवृषभेशिनः ।
भरतस्यानुजन्मानम् चरमाङ्गा महौजसः ।।
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घृहस्थ-जीवन
विधवा विवाह नहीं
कितने ही आधुनिक विचारक कल्पना के गगन में विहरण करते हुए 'सुनन्दा' को विधवा मानकर श्री ऋषभदेव के उसके साथ किए गए विवाह को विधवा विवाह कहते हैं। उन विचारकों को यह स्मरण रखना चाहिए कि प्राचार्य भद्रबाह,६° प्राचार्य जिनदासगरिग महत्तर,६१ प्राचार्य मलयगिरि,६२ प्राचार्य हेमचन्द्र,६३ श्री समय
ततो ब्राह्मी यशस्वत्यां, ब्रह्मा समुदपादयत् । कलामिवापराशायां, ज्योस्नपक्षोऽमलां विधाः ।।
-महापुराण जिन० १६।४-५ पृ० ३४६ ६०. आवश्यक नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहु गा० १६० ।
......"ततो य तलरुक्खाओ तलफलं पक्कं समारणं वातेण आहतं तस्स दारगस्स उवरि पडितं तेण सो अकाले चेव जीवितातो ववरोवितो।
-----आवश्यक चूणि, जिनदास महत्तर पृ० १५२ ६२. भगवतो देशोनवर्षकाल एव किञ्चिन्मिथुनकं सजातापत्यं सत्
तदपत्यमिथुनकं तालवृक्षस्याधो विमुच्य रिरंसया कदलीगृहादि क्रीड़ा गृहमगमत्, तस्माच्च तालवृक्षात् पवनप्रेरितं पक्वं तालफलमपतत्, तेन दारकोऽकाल एव जीविताद् व्यपरोपितः ।
----आवश्यक मल० वृत्ति० पृ० १६३ ६३. अन्येद्य : क्रीडया क्रीडद् बालभावानुरूपया ।
मिथो मिथुनकं किञ्चित् , तले तालतरोरगात् ।। तदैव देवदुर्योगात् , तन्मध्यान्नरमूर्धनि । तडिद्दण्ड इवैरण्डेऽपतत् तालफलं महत् ।। प्रहतः काकतालीयन्यायेन स तु मूर्धनि । विपन्नो दारकस्तत्र, प्रथमेनाऽपमृत्युना ।।
-विष्ठि १।२।७३५ से ७३७
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७२
ऋषभदेव : एक परिशीलन
सुन्दर,६४ उपाध्याय विनय विजय,६५ केशरमुनि,६६ श्री लक्ष्मीवल्लभ,६७ श्री मणिसागर प्रभृति विज्ञोंने प्रस्तुत घटना का उट्टङ्कन करते हुए उस युगल को बालक और बालिका बताया है, न कि युवा-युवती। और जब वे बालक थे तो उनका पारस्परिक सम्बन्ध भी भ्रातृ-भगिनी रूप में ही था, पति-पत्नी के रूप में नहीं, अतः स्पष्ट है कि श्री ऋषभदेव ने सुनन्दा के साथ विवाह किया, वह विधवा विवाह नहीं था। जब उनका पति-पत्नीरूप सम्बन्ध ही नहीं हुआ तो वह विधवा कैसे कही जा सकती है ?
प्राचार्य जिनसेन ने महापुराण में प्रस्तुत घटना का उल्लेख नहीं किया है और न ऋषभसहजात सुमंगला से ही पाणिग्रहण करवाया है। श्री ऋषभ की अनुमति लेकर नाभि ने ऋषभ के विवाह हेतु दो सूयोग्य सुशील कन्यायों की याचना की ।६९ फलस्वरूप कच्छ महाकच्छ की दो बहिनें, जो सुन्दर और यौवनवती थीं, जिनका नाम "यशस्वी और सुनन्दा" था, उनके साथ नाभि ने ऋषभ का विवाह किया। भागवत के अनुसार गृहस्थ धर्म की शिक्षा देने के लिए देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जयन्ती से ऋषभदेव ने विवाह
६४. कल्पसूत्र, कल्पलता, व्या० ७, समयसुन्दर पृ० १६८ ।
कल्पसुबोधिका विनय० पृ० ४८७ सारा० न० ।
कल्पसूत्र कल्पार्थबोधिनी पृ० १४४ । ६७. कल्पसूत्र कल्पद्र म कलिका लक्ष्मी० पृ० १४२ । ६८. कल्पसूत्र पृ० २६७ ।
सुरेन्द्रानुमतात्कन्ये सुशीले चारुलक्षणे । सत्यौ सुरुचिराकारे वरयामास नाभिराट् ॥
-महा० पर्व० १५, श्लो० ६६, पृ० ३३० ७०. तन्व्यो कच्छमहाकच्छजाम्यौ सौम्ये पतिवरे । __ यशस्वतीसुनन्दाख्ये स एवं पर्यणीनयत् ॥
-~-महा० १५१७०। पृ० ३३१
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गृहस्थ-जीवन
किया। संभव है सुनन्दा का ही भागवतकार ने जयन्ती नाम दिया हो। क्योंकि श्वेताम्बर ग्रन्थानुसार वह अरण्य में एकाकी प्राप्त हई थी। उसकी सौन्दर्य-सुषमा अत्यधिक होने के कारण वह वनदेवी के सदृश प्रतीत हो रही थी। उसके सौन्दर्य तथा सद्गुणों के कारण ही भागवतकार ने उसे इन्द्र की पुत्री समझा है। और पुत्री समझकर वर्णन किया है । श्वेताम्बर ग्रन्थों की तरह भागवतकार ने भी उसके सौ सन्तान बताई हैं। भरत और बाहुबली का विवाह
श्री ऋषभदेव ने यौगलिक धर्म को मिटाने के लिये जब भरत और बाहबली युवा हुए तब भरतसहजात ब्राह्मी का पारिगग्रहण बाहुबली से करवाया और बाहुबली सहजात सुन्दरी का पाणिग्रहण भरत से करवाया। इन विवाहों का अनुकरण करके
.
७१. ......."गृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो जयन्त्यामिन्द्रदत्तायामुभय लक्षणं
कर्म समाम्नायाम्नातमातमभियुञ्जनात्मजानामात्मसमानानां शतं जनयामास ।
-भागवत ५।४।८।५५७ सा य अतीव उक्किटुसरीरा देवकण्णाविव तेसु णं वणंतरेसु जह वणदेवता तहा विहरति, तं च एक्कलियं दद्रु केति पुरिसा साहन्ति, ताहे नाभी तं दारियं गहाय भगति-उसभस्स भारिया भविस्स ति त्ति ।
-आवश्यकचूणि जिनदास पृ० १५२-५३ ७३. तए णं सुमङ्गलाए बाहू य पीढो य अरगुत्तरेहितो चइऊरणं मिहणयं
जातं,..."''''ततेणं सा सुमङ्गलादेवी अन्नाणि एगणपन्नं पुत्तजुयलगागि पसवति ।
---अावश्यक चूणि, जिनदास १५३ ७४. भागवत २४।८।५५७ । ७५. युग्मिधर्मनिषेधाय भरताय ददौ प्रभुः ।
सोदर्या बाहुबलिनः सुन्दरी गुणसुन्दरीम् ।। भरतस्य च सोदर्या ददौ ब्राह्मीं जगत्प्रभुः। भूपाय बाहुबलिने तदादि जनताप्यथ ।
-~-~~-श्री काललोक प्रकाश सर्ग० ३२, श्लो० ४७-४८
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७४
ऋषभदेव : एक परिशीलन
जनता ने भी भिन्न गोत्र में समुत्पन्न कन्याओं को उनके माता-पिता आदि अभिभावकों द्वारा दान में प्राप्त कर पाणिग्रहण करना शुरू किया। इस प्रकार एक नवीन परम्परा प्रारम्भ हुई।
प्राचार्य जिनसेन ने ब्राह्मी सुन्दरी के विवाह का वर्णन नहीं किया है। प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलाल जी भी उन्हें अविवाहित मानते हैं+ पर उन्होंने प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों के कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये।
ऋषभदेव का काल भारी उथलपुथल का काल था। उस समय प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ मानवीय व्यवस्था में भी आमूल परिवर्तन हो रहा था। परिस्थितियाँ पलट रही थीं। परिवार प्रथा
(ख) दत्ती व दाणमुसभं दिन्तं दछु जरणमिवि पवत्तं ।
--आव० नियु० गा० २२४ (ग) भगवता युगलधर्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राह्मी वाहुबलिने दत्ता, बाहुबलिना सहजाता सुन्दरी भरताय ।
--आव० मल० वृत्ति पृ० २०० (घ) भरतस्य साथै प्रसूता ब्राह्मी सा बाहुबलाय परिणायिता,
बाहुबलसार्थे जाता सुन्दरी सा भरतस्यापिता । भरतेन स्त्रीरत्नार्थ रक्षिता, एवं युगलधर्मो निवारितः श्री ऋषभदेवेन ।
-कल्पद्र म कलिका, लक्ष्मी० पृ० १४४।१ ७६. (क) भिन्नगोत्रदिकां कन्यां दत्तां पित्रादिभिमुदा। विधिनोपायत प्रायः प्रावर्तत तथा ततः ।।
-श्री काललोक प्रकाश स० ३२, श्लो० ४६, (ख) इति दृष्ट्वा तत आरभ्य प्रायो लोकेऽपि कन्या पित्रादिना दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम् ।
--आव० सू० मल० वृत्ति० पृ० २०० + दर्शन अने चिन्तन, भा० १ 'भगवान् ऋषभदेव अने तेमनो परिवार'
प० २३६ जैन प्रकाश, ८ फरवरी १९६६, जैन परम्परा के आदर्श
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गृहस्थ जीवन
का प्रारम्भ हो रहा था और संग्रह वृत्ति का सूत्रपात हो चला था । ऐसी स्थिति में अपराधवृत्ति का विकास होना भी स्वाभाविक था और वह हो रहा था ।
सर्वप्रथम राजा
पूर्व में यह बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव के पिता 'नाभि' अन्तिम कुलकर थे । जब उनके नेतृत्व में ही धिक्कारनीति का उल्लंघन होने लगा, प्राचीन मर्यादाएँ विच्छिन्न होने लगीं, तब उस अव्यवस्था से यौगलिक घबराकर श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे और उन्हें सारी स्थिति का परिज्ञान कराया ।" ऋषभदेव ने कहा - "जो मर्यादाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं उन्हें दण्ड मिलना चाहिए और यह व्यवस्था राजा ही कर सकता है, क्योंकि शक्ति के सारे स्रोत उसमें केन्द्रित होते हैं ।" समय को परखने वाले नाभि ने यौगलिकों की विनम्र प्रार्थना पर ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर "राजा" घोषित किया ।" ऋषभदेव राजा बने और शेष जनता प्रजा । इस प्रकार पूर्व चली आ रही " कुलकर" व्यवस्था का अन्त हुआ और एक नवीन अध्याय का प्रारम्भ हुआ ।
राज्याभिषेक के समय युगलसमूह कमलपत्रों में पानी लाकर ऋषभदेव के पद-पद्मों का सिंचन करने लगे । उनके विनीत स्वभाव
७७.
७८.
नीतीण अमरणे निवेयणं उसभसामिस्स
( ख )
राया करेइ दंड सि ते बेंति अम्हवि स होउ । मग्गहय कुलगरं, सो य बेइ उसभो य भे राया ॥
- आव० नि० गा० १६३ म० वृ० प० १६४ आवश्यक चूर्णि - पृ० १५३
--
७५
(ख) आवश्यक चूर्णि पृ० १५३-१५४ (ग) विदितानुरागमापौरप्रकृतिजनपदो राजा । नाभिरात्मजं समयसेतु रक्षायामभिषिच्य
...*.*** ||
- आव० नि० गा० १६४ म० वृ० १९४
- श्री मद्भागवत ५|४|५ पृ० ५५६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
को लक्ष्य में रखकर नगरी का नाम "विनीता" रखा, उसका अपर नाम अयोध्या भी है।
उस प्रान्त क नाम विनीत भूमि और "इक्खाग भूमि"८२ पड़ा। कुछ समय के पश्चात् प्रस्तुत प्रान्त मध्यदेश के नाम से प्रख्यात हुआ। राज्य-व्यवस्था का सूत्रपात
इसी प्रकार श्री ऋषभदेव ने मानव जाति को विनाश के गर्त से बचाने के लिए और राज्य की सुव्यवस्था हेतु प्रारक्षक दल की स्थापना की, जिसके अधिकारी 'उग्र' कहलाये। मंत्रिमंडल बनाया जिसके अधिकार 'भोग' नाम से प्रसिद्ध हए । सम्राट के समीपस्थ जन, जो परामर्श प्रदाता थे वे, 'राजन्य' के नाम से विख्यात हुए और अन्य राजकर्मचारी 'क्षत्रिय' नाम से पहचाने गये।४
७६. भिसिणीपत्तोहियरे उदयं घेत्तु छुहन्ति पाएसु । साहु विणीया पुरिसा, विणीयनयरी अह निविट्ठा ।।
- आव० नि० गा० १६६ म० वृ० १६५११ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १५४ । ८०. मध्येऽर्धभरतस्याशु चक्रे वैश्रवणः पुरम् । साकेतं नामतः ख्यातं विनीतजनतावृतम् ।।
-पुराणसार १८।३।३६ ८१. आवश्यक सूत्र मल० वृत्ति० प० १५७-२ ।
(क) आवश्यक सूत्र म० वृत्ति० ५० १६३ ।
(ख) आव० नि० हारिभद्रीय टीका प० १२०-२ । ८३. आवश्यक नियुक्ति हारि० टी० गा० १५१ प० १०६-२ । ८४. (क) उग्गा भोगा रायष्ण खत्तिया संगहो भवं चउहा ।
आरक्खगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ॥
-आव०नि० गा० १६८, म० वृ० ५० १६५।१ (ख) एवं तस्स अभिसित्तस्स चउविहो रायसंगहो भवति, तं जहा
उग्गा भोगा राइन्ना खत्तिया । उग्गा जे आरक्खियपुरिसा,
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गृहस्थ-जावन
७७
दुष्टों के दमन एवं प्रजा तथा राज्य के संरक्षणार्थ चार प्रकार की सेना व सेनापतियों की व्यवस्था की।५ साम, दाम, दण्ड और भेद
तेसि उग्गा दंडणीती ते उग्गा, भोगाणाम जे पितित्थाणिया सामिस्स, राइन्ना नाम जे सामिस्स समन्वया, अवसेसा खत्तिया।
-आवश्यक चूणि, जिनदास पृ० १५४ (ग) तदोग्र-भोग-राजन्य - क्षत्रभेदैश्चतुर्विधान् ।
जनानासूत्रयद् विश्वस्थितिनाटकसूत्रभृत् ।। आरक्षपुरुषा उग्रा, उग्रदण्डाधिकारिणः । भोगा मन्त्र्यादयो भतु स्त्रायस्त्रिशा हरेरिव ॥ राजन्या जज्ञिरे ते ये, समानवयसः प्रभोः । अवशेषास्तु पुरुषा, बभूवुः क्षत्रिया इति ।।
–त्रिषष्ठि १।२।६७४ से ६७६ ओंकार इव मन्त्राणां, नृपाणां प्रथमो नृपः । अपत्यानि निजानीव, पालयामास स प्रजाः ।। असाधुशासने साधुपालने कृतकर्मणः । प्रत्यङ्गानि स्वकानीव, मन्त्रिणो विदधे विभुः ।। चौर्यादिरक्षणे दक्षानारक्षानप्यसूत्रयत् । सुत्रामेव लोकपालान्, राजा वृषभलाञ्छनः ॥ अनीकस्याङ्गमुत्कृष्टमुत्तमाङ्ग तनोरिव । राज्यस्थित्यै राजहस्ती, हस्तिनः स समग्रहीत ॥ आदित्यतुरगस्पर्द्धयेवात्युद्ध रकन्धरान् बन्धुरान् धारयामास, तुरगान् वृषभध्वजः ॥ सुश्लिष्टकाष्ठघटितान्, स्यन्दनान् नाभिनन्दनः । विमानानीव भूस्थानि, सूत्रयामास च स्वयम् ।। सुपरीक्षितसत्त्वानां, पत्तीनां च परिग्रहम् । नाभिसूनुस्तदा चक्रे, चक्रवर्तिभवे यथा ।। नव्यसाम्राज्यसौधस्य, स्तम्भानिव बलीयसः । अनीकाधिपतींस्तत्र, स्थापयामास नाभिभूः ।।
--त्रिषष्ठि० ११२।६२५ से ६३२ प० ६३-६४
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
नीति का प्रचलन किया । चार प्रकार की दण्ड-व्यवस्था निर्मित की । (१) परिभाष, (२) मण्डलबन्ध, (३) चारक, (४) छविच्छेद | Co परिभाष
७८
कुछ समय के लिये अपराधी व्यक्ति को प्राक्रोशपूर्ण शब्दों में नजरबन्द रहने यादि का दण्ड देना ।
मण्डलबन्ध
चारक
सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना ।
छविच्छेद
करादि अंगोपाङ्गों के छेदन का दण्ड देना ।
ये चार नीतियाँ कब चलीं, इसमें विद्वानों के विभिन्न मत हैं । कुछ विज्ञों का मन्तव्य है कि प्रथम दो नीतियाँ ऋषभ के समय चलीं" और दो भरत के समय । श्राचार्य अभयदेव के मन्तव्यानुसार ये चारों नीतियाँ भरत के समय चलीं । ९ श्राचार्य भद्रबाहु और प्राचार्य
८७.
बन्दीगृह में बन्द करने का दण्ड देना ।
८६. स्वामी
८८.
८६.
समादामभेददण्डोपायचतुष्टयम् ।
जगद्व्यवस्थान गरी चतुष्पथमकल्पयत्
!!
— त्रिषष्ठि० १ २६५६
णीतीओ उसभसामिम्मि चेव उप्पनाओ ।
- आवश्यक चूर्णि पृ० १५६
स्थानाङ्ग वृत्ति ७।३।५५७ ।
आमृषभकाले अन्ये तु भरतकाले इत्यन्ये ।
- स्थानाङ्ग वृत्ति ७।३।५५७
परिभासणा उपढमा मण्डलबन्धम्मि होई बीया तु । चार छविछेदावि, भरहस्स चउव्विहा नीई ||
- स्थानाङ्ग वृत्ति ७।३।५५७
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गृहस्थ-जीवन
मलय गिरी के अभितानुसार वन्ध (बेड़ी का प्रयोग) और घात (डण्डे का प्रयोग) ऋषभनाथ के समय प्रारम्भ हो गये थे। और मृत्यु दण्ड का प्रारम्भ भरत के समय हुआ।१ जिनसेनाचार्य के अनुसार वधबन्धन आदि शारीरिक दण्ड भरत के समय चले ।१२
खाद्य समस्या का समाधान
कन्द, मूल, पत्र, पुष्प और फल ये ऋषभदेव के पूर्ववर्ती मानवों का आहार था। किन्तु जनसंख्या की अभिवृद्धि होने पर कन्द मूल
(ख) परिहासणा उ पढमा, मंडलिबंधो उ होइ बीया उ । चारगछविछेयाई भरहस्स चउबिहा नीती ॥
-----आवश्यक भाष्य गा० ३ १०. निगडाइजमो बन्धो, घातो दौंडादितालणया।
___ --आवश्यक नियुक्ति० गा० २१७ (ख) बन्धो निगडादिभिर्यम :-- संयमनं, घातो दण्डादिभिस्ताडना, एतेऽपि अर्थशास्त्रबन्धघातास्तत्काले यथायोगं प्रवृत्ता।
- आव०नि० मल० वृत्ति प० १६६-२ ६१. मारणया जीववहो जन्ना नागाइयाण पूयातो ।
-~-आव० नि० गा० २१८ (ख) मारणं जीववधो-जीवस्य जीविताद् व्यपरोपणं, तच्च भरतेश्वरकाले समुत्पन्न ।
----आव० नि० म० वृ० १० १९६२ ६२. शरीरदण्डनञ्चैव वधबन्धादिलक्षणम् । नृणां प्रबलदोषाणां भरतेन नियोजितम् ।।
---महापुराण-तृतीय पर्व० श्लो० २१६-पृ० ६५ ६३. आसी य कंदहारा मूलाहारा य पत्तहारा य । पुप्फफलभोइणोऽवि य जइया किर कुलगरो उसभो ।।
-आव०नि० गा० २०३ (ख) आव० मूलभाष्य गा० ५ हारिभद्रीया वृत्ति० ५० १६० (ग) आवश्यक चूर्णि-जिनदास० पृ० १५४
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने से मानव ने अन्नादि का उपयोग प्रारम्भ किया। किन्तु पकाने के साधन का उस समय ज्ञान न होने से कच्चे अन्न का उपयोग प्रारम्भ हुना। आगे चलकर कच्चा अन्न दुष्पाच्य होने लगा तो लोग पुनः श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे और उनसे अपनी समस्या का समाधान माँगा। श्री ऋषभदेव ने हाथ से मलकर खाने की सलाह दी। कालक्रम से जब वह भी दुष्पच हो गया तो पानी से भिगोकर और मुठी व बगल में रखकर गर्म कर खाने की राय दी। उससे भी अजीर्ण की व्याधि समाप्त नहीं हुई । श्री ऋषभदेव अग्नि के सम्बन्ध में जानते थे पर वह काल एकान्त स्निग्ध था, अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती थी। अग्नि उत्पत्ति के लिए एकान्त स्निग्ध और एकान्त रुक्ष दोनों ही काल अनुपयुक्त होते हैं। समय के कदम आगे बढ़े। जब काल स्निग्ध-रुक्ष हुआ तब लकड़ियों को घिसकर अग्नि पैदा की और पात्र निर्माण कर तथा पाक-विद्या सिखाकर खाद्यसमस्या का समाधान किया ।१६ संभवतः इसी कारण अथर्ववेद ने
६४. आसीय पाणिघंसी तिम्मिय तंदुलपवालपुडभोई ।
हत्थयलपुडाहारा जइया किल कुलगरो उसभो ।। घंसेऊणं तिम्मण घंसणतिम्मणपवालपुडभोई । घंसणतिम्मपवाले हत्थउडे कक्खसेए य ॥
-आव० नि० गा० २०६-२०७ (ख) आव० सू० हारिभद्रीयावृत्ति० मूल भाष्य ८ प० १३१।१ ६५. (क) तदा कालस्य एकान्तस्निग्धतया सत्यपि यत्ने वह्न युत्पादाभावात्,
भगवांस्तु विजानाति न एकान्तस्निग्धरूक्षयोः कालयोर्वह्न युत्पादः किन्तु विमात्रया स्निग्धरूक्षकाले, ततो नादिष्टवानिति ।
---आव० मल० वृ० १० १६७।१ (ख) आवश्यक चूणि, जिनदास पृ० १५४-१५५ ६६. पक्खेवडहणमोसहि कहणं निग्गमण हत्थिसीसम्मि । पयणारंभपवित्ती ताहे कासीय ते मरण्या ॥
-~~आव०नि० गा० २०९
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ऋषभसूक्त में भगवान् श्री ऋषभदेव की अन्य विशेषणों के साथ "जात वेदस्" [अग्नि] के रूप में भी स्तुति की है।
भगवान् श्री ऋषभदेव सर्वप्रथम वैज्ञानिक और समाजशास्त्री थे। उन्होंने समाज की रचना की। भागवत में प्राता है, कि एक साल वृष्टि न होने से लोग भूखे मरने लगे, सर्वत्र "त्राहि-त्राहि" मच गई, तब ऋषभदेव ने आत्मशक्ति से पानी बरसाया और उस भयंकर अकालजन्य संकट को दूर किया ।+ प्रस्तुत घटना इस बात को प्रकट करती है कि उस समय खाद्य वस्तुओं की कमी आ चुकी थी, जनता पर अभाव की काली घटाएँ घिरी हुई थी, उसे उन्होंने दूर किया । वर्षा बरसाने के कारण वे वर्षा के देवता के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। कला का अध्ययन
सम्राट् श्री ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाओं का और कनिष्ठ पुत्र बाहुबली को प्राणी-लक्षणों का ज्ञान कराया।९ पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का अध्ययन
६७.
+ १८.
अथर्ववेद ६।४।३। श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ५, अ० ४, कण्डिका ३ । देखिए परिशिष्ट । भरहस्स रूवकमं, नराइलक्खणमहोइयं बलिणो ।
-आवश्यक नियुक्ति० गा० २१३ (ख) भरहस्स चित्तकम्म उवदिट्ठ, बाहुबलिस्स लक्खणं थीपुरिसमादीणं, माणं ओमाणं पडिमाणं एवं तदा पवत्तं ।।
-आवश्यक चूर्णि० जिन० पृ० १५६ द्वासप्ततिकलाकाण्ड, भरतं सोऽध्यजीगपत् । ब्रह्म ज्येष्ठाय पुत्राय ब्र यादिति नयादिव ।। भरतोऽपि स्वसोदस्तिनयानितरानपि । सम्यगध्यापयत् पात्रे, विद्या हि शतशाखिका ।। नाभेयो बाहुबलिनं भिद्यमानान्यनेकशः । लक्षणानि च हस्त्यश्वस्त्रीपुसानामजिज्ञपत् ।।
-त्रिषष्ठि ११२।६६० से १६२
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
कराया " और सुन्दरी को गणित विद्या का परिज्ञान कराया । १०१ व्यवहारसाधन हेतु मान [ माप], उन्मान [ तोला, मासा, आदि वजन ]
८२
घ) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति ।
(ङ) कल्पसूत्र सुबोधिनी टीका पृ० ४९६ सारा० नबाव० १००. लेहं लिवीविहारणं जिरगेरण बंभीए दाहिणकरेणं ।
१०१.
(ख)
( ग )
आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, भाष्य० गा० ६, १० १३२ । विशेषावश्यक भाष्य० वृत्ति० १३२ ।
(घ) अष्टादश लिपीब्रहम्या अपसव्येन पाणिना ।
(ङ) बंभीए दाहिणहत्थेण लेहो दाइतो ।
- आव० नि० गा० २१२
(ख) सुन्दरीय वामहत्येण गणितं ।
-- आवश्यक चूर्णि पृ० १५६
(च) कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका० साराभाई पृ० ४६६ । (छ) ऋषभदेव ने ही सम्भवतः लिपि-विद्या के लिए लिपिकौशल
का उद्भावन किया । ऋषभदेव ने ही सम्भवतः ब्रह्म विद्या की शिक्षा के लिए उपयोगी ब्राह्मी लिपि का प्रचार किया था । - हिन्दी विश्व- कोष श्री नगेन्द्रनाथ वसु प्र० भा० पृ० ६४ गणियं संखाणं सुन्दरीए वामेण उवइट्ठ |
- आवश्यक नियुक्ति गा० २१२
- त्रिषष्ठि० १/२/६३
- आवश्यकणि पु० १५६
(ग) विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति० १३२ । (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० १३२ । (ङ) दर्शयामास सव्येन सुन्दर्या गणितं पुनः ।
- त्रिषष्टि० १/२/६६३
(च) विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखम्नक्षरमालिकाम् । उपदिशल्लिप संख्यास्थानं चाङ्क रनुक्रमात् ॥
---महापुराण १६।१०४/३५५
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गृहस्थ जीवन
८३
अवमान [गज, फुट, इंच ] व प्रतिमान [ छटांक, सेर, मन, आदि ] सिखाये | १२ मरिण आदि पिरोने की कला भी बताई । १३
इस प्रकार सम्राट् श्री ऋषभदेव ने प्रजा के हित के लिए, अभ्युदय के लिए पुरुषों को बहत्तर कलाएँ, स्त्रियों को चौंसठ कलाएँ और सौ शिल्पों का परिज्ञान कराया । ४ असि, मषि और कृषि [सुरक्षा, व्यापार, उत्पादन] की व्यवस्था की । १५ अश्व, हस्ती, गायें, आदि
१०२.
१०३.
१०४.
१०५.
मारगुम्माणवमाणपमाणगणिमाइ वत्थूणं ।
- आवश्यक नियुक्ति गा० २१३
मणियाई दोराइस पोता तह सागरंमि वहणाईं । ववहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेयणत्थं वा ॥
- आवश्यक नियुक्ति गा० २१४
( ख ) आवश्यक सूत्र हारिभद्रीयावृत्ति मूल भाष्य गा० ११ ५० १३२ ......रज्जवासमज्भे वसमाणे लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुपज्जवसाणाओ बाहर्त्तारि कलाओ चोवट्ठ महिलागुणे सिप्पसयं चकम्मारणं तिन्निवि पयाहियाए उवदिसइ ।
- कल्पसूत्र, सू० १६५ । पृ० ५७, पुण्यविजय सं० ( ख ) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सू० ३६, पृ० ७७ अमो० सं० । (ग) एतच्च सर्वं सावद्यमपि लोकानुकम्पया ।
स्वामी प्रवर्त्तयामास, जानन् कर्तव्यमात्मनः ॥
-- त्रिषष्ठि १/२/९७१
अमिषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः ॥ तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् । उपादिक्षत् सरागो हि स तदासीज्जगद्गुरुः ॥ तत्रासिक सेवायां मर्षिलिपिविधौ स्मृता । कृषिभू करणे प्रोक्ता विद्या शास्त्रोपजीवने । वाणिज्यं वणिजा कर्म, शिल्पं स्यात् करकौशलम् । चित्रकलापत्रच्छेदादि बहुधा स्मृतम् ॥
तच्च
- महापुराण १७९ से १८२, पर्व १६ पृ० ३६२
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८४
ऋषभदेव : एक परिशीलन
पशुओं का उपयोग प्रारम्भ किया।१०६ जीवनोपयोगी प्रवृत्तियों का विकास कर जीवन को सरस, शिष्ट और व्यवहार योग्य बनाया। वर्णव्यवस्था ____ यौगलिकों के समय में वर्ण-व्यवस्था नहीं थी। सम्राट् श्री ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना की। यह वर्णन आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूणि, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, विषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र-प्रभृति श्वेताम्बर ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से नहीं है । परवर्ती विज्ञों ने उस पर
(ख) प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः । शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।।
-वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र, समन्तभद्राचार्य १०६. आसा हत्थी गावो गहिआई रज्जसंगहनिमित्त । चित्त ण एवमाई चउव्विहं संगहं कुणइ ।।
__-आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति गा० २०१ पृ० १२८ १०७. कलाद्य पायेन प्राप्तसुखवृत्तिकस्य चौर्यादिव्यसनासक्तिरपि न स्यात्,
कर्माणि च कृषिवाणिज्यादीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि, त्रोण्येतानि प्रजाया हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वात्
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-वृत्ति, २ वक्षस्कार (ख) पहुणा उ देसियाई सव्वकलासिप्पकम्माई
-आवश्यक नियुक्ति० गा० २२६ (ग) अन्यदा सुखमासीनं पुरु नाभिप्रचोदिताः ।।
उपतस्थुः प्रजाः सर्वा जीविकोपायमीप्सवः ।। कि नाथ करवामेति स्थिता वीक्ष्यानुकम्पया ।। प्रजाभ्यो दर्शयामाश कर्मशिल्पकलागुणान् ।।
-पुराणसार १५-१६।३।३६ १०८. उत्पादितास्त्रयो वर्णाः तदा तेनादिवेधसा । क्षत्रियाः वगिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिगुणः ।।
-~~महापुराण १८३।१६।३६२
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गृहस्थ जीवन
१८९
अवश्य कुछ लिखा है, ' पर दिगम्बराचार्य जिनसेन की तरह विशद रूप से नहीं । यहाँ यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था की संस्थापना वृत्ति और ग्राजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए थी, न कि ऊँचता व नीचता की दृष्टि से ।
मनुष्य जाति एक है । केवल ग्राजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो गई है जूतसंस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र । ११० कार्य से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं । 191
आचार्य जिनसेन के मन्तव्यानुसार सम्राट् श्री ऋषभदेव ने स्वयं अपनी भुजात्रों में शस्त्र धारण कर मानवों को यह शिक्षा प्रदान की कि तताइयों से निर्बल मानवों की रक्षा करना शक्तिसम्पन्न व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है । श्री ऋषभदेव के प्रस्तुत ग्राह्वान से कितने ही व्यक्तियों ने यह कार्य स्वीकार किया । वे क्षत्रिय नाम से पहचाने गये । ११२
१०६.
अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय-वैश्य शूद्रभेदात् तत्र - 'ब्राह्मणा ब्रह्मचर्येण, क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः, कृषिकर्मकरा वैश्याः शूद्राः प्रेक्षणकारकाः ।'
- कल्पलता समय सुन्दर गणी पृ० १६६ (ख) पउमचरियं विमलसूरि उ० ३ गा० १११-११६ (ग) पश्चाच्चतुर्वर्णस्थापनं कृतम्
- कल्पद्र ुम कलिका० लक्ष्मी० पृ० १४४ जातिनामोदयोद्भवा
1
११०. मनुष्यजातिरेकैव
८५
वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहारनुते
॥
ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्याय्याच्छूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥
१११. कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । asसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ||
-- महापुराण श्लोक० ४५-४६ पर्व ० ३८ पृ० २४३ दि० भा०
११२. स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभुः । क्षतत्राणनियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः ।
-- उत्तराध्ययन २५।३३
- महापुराण २४३।१६।३६८
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
श्री ऋषभदेव ने दूर दूर तक के प्रदेशों की जंघा बल से पदयात्रा कर जन-जन के मन में यह विचारज्योति प्रज्वलित की कि मनुष्य को सतत गतिमान् रहना चाहिए, एक स्थान से द्वितीय स्थान पर वस्तुओं का आयात-निर्यात कर प्रजा के जीवन में सुख का संचार करना चाहिए। जो व्यक्ति प्रस्तुत कार्य के लिए सन्नद्ध हए, वे वैश्य की संज्ञा से अभिहित किये गये ।113
श्री ऋषभदेव ने मानवों को यह प्रेरणा प्रदान की कि कर्म-युग में एक दूसरे के सहयोग के बिना कार्य नहीं हो सकता। अतः ऐसे सेवानिष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता है जो बिना किसी भेदभाव के सेवा कर सकें। जो व्यक्ति सेवा के लिए तैयार हुए उनको श्री ऋषभदेव ने शूद्र कहा । ११४ ___इस प्रकर शस्त्र धारण कर आजीविका करने वाले क्षत्रिय हुए, खेती और पशु पालन के द्वारा जीविका करने वाले वैश्य कहलाये और सेवा शुश्रुषा करने वाले शूद्र कहलाये । ११५
ब्राह्मण वर्ण की स्थापना सम्राट भरत ने की।१६ स्थापना का
११३. ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्राम् अस्राक्षीद वणिजः प्रभुः । जलस्थलादियात्राभिः तद्वृत्तिर्वार्त्तया यतः ॥
-महापुराण २४४।१६।३६८ ११४. न्यग्वृत्तिनियतान् शूद्रान् पद्भ्यामेवासृजत् सुधीः । वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्तिर्नेकधा स्मृता ।।
'२४५११६३६८ ११५. क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वं अनुभूय तदाभवन् । वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः ॥
___-महापुराण १८४।१६।३६२ ११६. ......"ताहे भरहो रज्जं ओयवेत्ता ते य भाउए पव्वइए णाऊण
अद्धितीए भणति-कि मम इयाणि भोगेहि ? अद्धिति करेति, कि ताए पीवराएवि सिरीए ? जा सज्जणा ण पेच्छति (गाथा) जदि भातरो मे इच्छन्ति तो भोगे देमि । भगवं च आगतो, ताहे भाउए भोगेहि निमन्तेति, ते ण इच्छन्ति वंतं असितु । ताहे चितेति एतेसि
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गृहस्थ-जीवन
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इतिवृत्त बताते हुए आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूरिण, अावश्यक मलयगिरि वृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र, और कल्पसूत्र की टीकाओं में लिखा है कि सम्राट भरत के के सभी अनुज सम्राट् भरत की अधीनता स्वीकार न कर भगवान् श्री ऋषभदेव के पास संयम ग्रहण कर लेते हैं तब सम्राट् भरत उनके
चेव इयाणि परिचत्तसंगाणं आहारादिदारोणावि ताव धम्मारगुढारण करेमीति पंचसयाणि सगडाण भरेऊर्ण असणं ४ ताहे निग्गतो, वन्दिऊरणं निमन्तेति, ताहे सामी भणति-इमं आहाकम्मं पुणो य आहडं ण कप्पति साधूणं । ताहे सो भणति - ततो मम पुवपवत्ताणि गेण्हन्तु, तंपि ण कापति रायपिडोत्ति ताहे सो महदुक्खेण अभिभूतो भणति--सवभावेण अहं परिचत्तो तातेहिं, एवं सो ओहयमणसंकप्पो अच्छति,....."ताहे सो त भत्तपारणं आणीतं भणति कि कायव्वं ? ताहे सक्को भणति - जे तव गुरगुत्तरा ते पूएहि"...""ताहे भरहो सावए सहावेत्ता भणति---"मा कम्मं पेसणादि वा करेह, अहं तुभं विति कप्पेमि, तुभेहि पढन्तेहि सुणन्तेहि जिणसाधुसुस्सुमणं कुणन्तेहि अच्छियव्वं । ताहे ते दिवसदेवसियं भुजन्ति, ते य भणन्ति--जहा तुन्भं जिता अहो भवान् वर्द्धते भयं मा हणाहित्ति एवं भणितो सन्तो आसुरुत्तो चिन्तेति--केण हि जितो? ताहे से अप्पणो मती उप्पज्जति कोहादिएहि जितो मिति, एवं भोगपमत्तं संभारेंति एवं ते उप्पन्ना माहणा णाम ।
-आवश्यक चूणि जिन० पृ० २१२-१४ (ख) भरतोऽपि भ्रातृप्रव्रज्याकरर्णनात् सञ्जातमनस्तापोऽधृति चक्र,
कदाचिद्भोगादीन् दीयमानान् पुनरपि गृह्णन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयंश्चता भोगनिराकृतश्चिन्तयामास एतेषामेवेदानी परित्यक्तसङ्गानां आहारदानेऽपि तावद्धर्मांनुष्ठानं करोमीति पञ्चभिः शकटशतविचित्रमाहारमानाय्योपनिमन्त्र्याधाकर्माहतं च न कल्पते यतीनामिति प्रतिषिद्धकृतकारितेनान्येन निमन्त्रितवान् देवराडाह-गुणोत्तरान् पूजयस्व । मोऽचिन्तयत् के मम साधुव्यतिरेकेण जात्यादिभिकतरा ?, पर्यालोचयता ज्ञातं-श्रावका विरताविरतत्वाद् गुणोतराः तेभ्यो दत्तमिति... भरतश्च श्रावकानाहूयोक्तवान् भवद्भिः
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
पास जाते हैं और पुनः राज्य ग्रहण करने के लिए अभ्यर्थना करते हैं किन्तु व्यक्त राज्य को वे वमन के समान जानकर पुनः ग्रहण नहीं करते । तब सम्राट् भरत ने भ्राताओं को भोजन कराने हेतु पाँच सौ शकट भोजन मंगवाया और उन्हें भोजन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया । पर भगवान् श्री ऋषभदेव ने कहा - प्राधाकर्मी, राज्यपिण्ड यदि हार श्रमणों के लिए त्याज्य है । शक्रेन्द्र के निर्देशानुसार वह
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प्रतिदिनं मदीयं भोक्तव्यं कृष्यादि च न कार्यं २ स्वाध्यायपरैरासितव्यं, ३ भुक्ते च मदीयगृहद्वारासन्नव्यवस्थितैर्वक्तव्यम् 'जितो भवान् बद्धते भयं तस्मान्मा हन मा हनेति' ते तथैव
कृतवन्तः ।
आवश्यक मल० वृत्ति० प० २३५।१
(ग) बन्धूनां गृह्णता राज्यमेतेषां किं कृतं मया ? अनार मतृप्तेन भस्मकामयिनेव अन्येभ्योऽपि ददानोऽस्मि, लक्ष्मीं भोगफलामिमाम् । तच्च मे भस्मनि हुतमिव मूढस्य निष्फलम् ॥ काकोऽप्याहूय काकेभ्यो, दत्त्वाऽन्नाद्य ुपजीवति । ततोऽपि हीनस्तदहं भोगान् भुञ्जे विना ह्यमून् ॥ दीयमानान् यदि पुनर्भोगान् भूयोऽपि मच्छुभैः । आददीरनमी भिक्षां, मासक्षपणिका इव ॥ एवमालोच्य भरतः पादमूले जगद्गुरोः । भ्रातृन् निमन्त्रयामास भोगाय रचिताञ्जलिः ॥ प्रभुरप्यादिदेर्शवमृज्वाशय ! विशाम्पते ! भ्रातरस्ते महासत्त्वाः प्रतिज्ञातमहाव्रताः ॥ संसारासारतां ज्ञात्वा परितस्त्यक्त पूर्विणः । न खलु प्रतिगृह्णन्ति भोगान् भूयोऽपि वान्तवत् ।।
X
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हा ! ॥
एवं विचिन्त्य शकटशतैः पञ्चभिरुच्चकैः । अनाय्याऽऽहारमनुजान् न्यमन्त्र्ययत् स पूर्ववत् ॥ स्वामी भूयोऽप्युवाचैवमन्नादि भरतेश्वरः । Eressहृतं जातु यतीनां न हि कल्पते ।।
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गृहस्थ जीवन
भोजन विशिष्ट श्रावकों को प्रदान किया और प्रतिदिन उन्हें भरत के भोजनालय में ही भोजन हेतु निमंत्रण दिया गया, और उन्हें यह आदेश दिया गया कि सांसारिक प्रवृत्तियों का परित्याग कर स्वाध्याय ध्यान आदि में तल्लीन रहें तथा मुझे यह उपदेश देते रहें कि "जितो भवान्, वर्धते भयं तस्मात् मा हन माहन" श्राप जीते जा रहे हैं, भय बढ़ रहा है एतदर्थ आप किसी का हनन न करें । उन श्रद्धालु-श्रावकों ने भरत के प्रदेश एवं निर्देशानुसार प्रस्तुत कार्य स्वीकार किया । सम्राट् भरत ने उनके स्वाध्यायहेतु ग्रार्य वेदों का निर्माण किया । +
जब भोजनलुब्धक श्रावकों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ने लगी, तब सम्राट् भरत ने सच्चे श्रावकों की परीक्षा को, और जो उस परीक्षण प्रस्तर पर खरे उतरे उन्हें सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के प्रतीक रूप में तीन रेखाओं से चिह्नित कर दिया गया । ११७ माहरण का उपदेश देने से वे ब्राह्मण कहलाये, ११८ और वे रेखाएं आगे चलकर यज्ञोपवीत के रूप में प्रचलित हो गईं ।
भरतोऽथ समाहूय, श्रावकानभ्यधादिदम् । गृहे मदीये भोक्तव्यं युष्माभिः प्रतिवासरम् || कृष्यादि न विधातव्यं किन्तु स्वाध्यायतत्परैः । अपूर्वज्ञानग्रहणं कुर्वाणः स्थेयमन्वहम् ॥ भुक्त्वा च मेऽन्तिकगतः पठनीयमिदं सदा । जितो भवान् वर्धते भीस्तस्मान्मा हन मा हन । – त्रिषष्ठि० १।६।१६० से २२६ "वेदे कासीयत्ति" आर्यान् वेदान् कृतवांश्च भरत एव तत्स्वाध्यायनिमित्तमिति ।
- आवश्यक नियुक्ति गा० ३६६ की मलयगिरिवृत्ति पृ० २३६ ११७. ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्ग रेखात्रयं नृपः । वैकक्ष्यमिव काकिण्या विदधे शुद्धिलक्षणम् ||
- त्रिषष्ठि १६ । २४१
+
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(ख) आवश्यक चूर्णि० पृ० २१४ । ११८. क्रमेण माहनास्ते तु ब्राह्मणा इति विश्रुताः । काकिणीरत्नलेखास्तु,
प्रार्यज्ञोपवीतताम् ||
- त्रिषष्ठि १६ । २४८
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
महापुराण के अनुसार सम्राट् भरत पट्खण्ड पर दिविजय प्राप्त कर और अपार धन लेकर जब अयोध्या लौटे तो उनके मानस में यह संकल्प उत्पन्न हया कि इस विराट् धन का त्याग कहाँ करना चाहिए ?१९. इसका पात्र कौन व्यक्ति हो सकता है ? प्रतिभामूर्ति भरत ने शीघ्र ही निर्णय किया कि ऐसे विलक्षण व्यक्तियों को चुनना चाहिए, जो तीनों वर्गों को चिन्तन-मनन का पालोक प्रदान कर सकें।
सम्राट भरत ने एक विराट् उत्सव का आयोजन किया। उसमें नागरिकों को नियंत्रित किया। विज्ञों की परीक्षा के लिए महल के मार्ग में हरी घास फल फूल लगा दिये ।१२० जो व्रतर हित थे वे उस पर होकर महल में पहुँच गये और जो व्रती थे वे वहीं पर स्थित हो गये । १२१ सम्राट ने महल में न पाने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि देव, हमने सुना है कि हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, जो नेत्रों से भी निहारे नहीं जा सकते । यदि हम आपके पास प्रस्तुत मार्ग से आते हैं तो जो शोभा के लिए नाना प्रकार के सचित्त फल-फूल और ग्रंकुर बिछाये गये है उन्हें हमें रौंदना
११६. भरतो भारतं वर्ष निर्जित्य सह पार्थिवः ।
षष्ट्या वर्षसहस्र स्तु दिशां निववृते जयात् ।। कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तेयमुदपद्यत । परार्थे सम्पदास्माकी सोपयोगा कथं भवेत् ।।
- महापुराण ४-५॥३८।२४० द्वि० भा० १२०. हरितरकुरैः पुष्पैः फलश्चाकीर्णमङ्गणम् । सम्म्राडचीकरतेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि ।।
---महापुराण ११।३८।२४० द्वि० भा० १२१. तेष्वव्रता विना सङ्गात् प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् । तानेकतः समुत्सायं शेषानाह्वययत् प्रभुः ।।
–महापुराण १२।३८।२४० द्वि० भा०
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गृहस्थ-जीवन
पड़ता है तथा बहुत से हरितकाय जीवों की हत्या होती है ।२२ सम्राट ने अन्य मार्ग से उनको अन्दर बुलवाया१२३ और उनकी दया वृत्ति से प्रभावित होकर उन्हें ब्राह्मण की संज्ञा दी और दान, मान आदि सत्कार से सम्मानित किया।२४
वर्णोत्पत्ति के सम्बन्ध में ईश्वरकतृत्व की मान्यता के कारण वैदिक साहित्य में खासी अच्छी चर्चा है। उस पर विस्तार से विश्लेषण करना, यहाँ अपेक्षित नहीं है । संक्षेप में-पुरुष सूक्त में एक संवाद है और वह संवाद कृष्ण, शुक्लयजु, ऋक् और अथर्व इन चारों वेदों की संहिताओं में प्राप्त होता है।
प्रश्न है-ऋषियों ने जिस पुरुष का विधान किया उसे कितने प्रकारों से कल्पित किया ? उसका मुख क्या हुआ ? उसके बाहु कौन बताये गये ? उसके (जांघ) उरु कौन हुए ? और उसके कौन पैर कहे जाते हैं ?१२५
उत्तर है :----ब्राह्मण उसका मुख था, राजन्यक्षत्रिय उसका बाह, वैश्य उसका उरु, और शूद्र उसके पैर हुए ।१२६
१२२. सन्त्येवानन्तशो जीवा हरितेष्वङकुरादिषु ।
निगोता इति सार्वज्ञं देवास्माभिः श्रुतं वचः ।। तस्मान्नास्माभिराकान्तम् अद्यत्वे त्वद्गृहाङ्गणम् ।
कृतोपहारमााद्र: फलपुष्पांकुरादिभिः । १२३. कृतानुबन्धना भूयश्चयक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नृपाङ्गणम् ॥
-महापुराण १५।३८।२४१ १२४. इति तद्वचनात् सर्वान् सोऽभिनन्द्य दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीवान्, दानमानादिसत्कृतः ।।
-महापुराण २०१३८।२४१ १२५. यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् । मुखं किमस्य, कौ बाहू, का [व] अरु, पादा [७] उच्येते ?
-ऋग्वेद संहिता १०१६०; ११-१२ १२६. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरु तदस्य यद्वं श्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।
-ऋग्वेद संहिता-१०।१०।१२।
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
यह एक लाक्षणिक वर्णन है । पर पीछे के प्राचार्य लाक्षणिकता को विस्मृत कर शब्दों से चिपट गये और उन्होंने कहा—ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजात्रों से क्षत्रिय, उरुत्रों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। एतदर्थ ब्राह्मण को मुखज, क्षत्रिय को बाहुज वैश्य को उरुज और परिचारक को पादज लिखा है । १२७
६२
वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर भगवान् श्री ऋषभदेव को "ब्रह्मा" कहा है। संभवतः प्रस्तुत सूक्त का सम्बन्ध भगवान् श्री ऋषभदेव से ही हो ।
जैन संस्कृति की तरह वैदिक संस्कृति भी वर्णोत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत रखती है। साथ ही जैन संस्कृति की तरह वह भी प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था जन्म से न मानकर कर्म से मानती थी । १२८
(ख) शुक्ल यजुर्वेद संहिता | ३१।१०-११ किं बाहू किमुरु ?
( ग )
१२८.
- अथर्ववेद संहिता १६ ६ ६
मुखबाहूरुपादजाः
1
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः ।
(घ) विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा
१२७. वक्त्राद् भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे । सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः || मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः । ऊरुजा धनिनो राजन् पादजाः परिचारकाः ।।
- भागवत ११।१७।१३। द्वि० भा० पृ० ८०६
- महाभारत श्लो० ४-६, अध्याय २९६
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥
- महाभारत
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द्वितीय अध्याय
साधक-जीवन
साधना के पथ पर
सम्राट् श्री ऋषभदेव ने दीर्घकाल तक राज्य का संचालन किया, प्रजा का पुत्रवत् पालन किया, प्रजा में फैली हुई अव्यवस्था का उन्मूलन किया, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार किया, नीति मर्यादाओं को कायम किया। वे प्रजा के शोषक नहीं, पोषक थे, शासक ही नहीं सेवक भी थे । श्रीमद्भागवत के अनुसार उनके शासन काल में प्रजा की एक ही चाह थी कि प्रतिपल प्रतिक्षरण हमारा प्रेम प्रभु में
(ख) अप्रवृत्तिः कृतयुगे कर्मणोः शुभपापयोः ।
वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च तदाऽऽसन्न संकरः ।। त्रेतायुगे त्वविकलः कर्मारम्भः प्रसिद्धध्यति । वर्णानां प्रविभागाश्च त्रेतायां तु प्रकीर्तिताः ।। शान्ताश्च शुष्मिणश्चैव कमिणो दुःखिनस्तथा । ततः प्रवर्तमानास्ते त्रेतायां जज्ञिरे पुनः ।।
-वायुपुराण ८।३३।४६।५७ आदि अध्याय (ग) तस्मान्न गोऽश्ववत् किंचिज्जातिभेदोस्ति देहिनाम् । कार्यभेदनिमित्तेन संकेतः कृत्रिमः कृतः ॥
-भविष्य पुराण, अध्याय ४ शिष्टानुग्रहाय, दुष्टनिग्रहाय, धर्मस्थितिसंग्रहाय च, ते च राज्यस्थितिश्रिया सम्यक् प्रवर्तमानाः क्रमेण परेषां महापुरुषमार्गोपदेशकतया चौर्यादिव्यसननिवर्तनतो नारकातिर्यानिवारकतया ऐहिका
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१४
ऋषभदेव : एक परिशीलन
ही लगा रहे । वे किसी भी वस्तु की चाह नहीं करते थे । १२. अन्त में अपना उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र भरत को बनाकर और शेष निन्यानवें पुत्रों को पृथक-पृथक राज्य देकर स्वयं साधना के पथ पर बढ़ने के लिए प्रस्तुत हुए।३०
मुष्मिकसुखसाधकतया च प्रशस्ता एवेति । महापुरुषप्रवृत्तिरपि सर्वत्र परार्थत्वव्याप्ता बहुगुणाल्प-दोषकार्यकारणविचारणापूर्विकैवेति । ....."स्थानाङ्गपञ्चमाध्ययनेऽपि-धम्मं च णं चरमाणस्स पंच निस्सा ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-छक्काया (१) गणे, (२) राया, (३) गाहावई, (४) सरीर (५) मित्याद्यालापकवृत्तौ राज्ञो निश्रामाश्रित्य राजा नरपतिस्तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणादित्युक्तमस्तीति परम-करुणापरीतचेतसः परमधर्मप्रवर्तकस्य ज्ञानत्रितययुक्तस्य भगवतो राजधर्मप्रवर्तकत्वे न कापि अनौचिती चेतसि चिन्तनीया ।
-~-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका-दूसरा वक्षस्कार १२६. भगवतर्षभेण परिरक्ष्यमाण एतस्मिन् वर्षे न कश्चन पुरुषो
वाञ्छत्यविद्यमानमिवात्मनोऽन्यस्मात्कथञ्चन किमपि कहिचिदवेक्षते भर्तर्यनुसेवनं विजृम्भितस्नेहातिशयमन्तरेण ।
-श्री मद्भागवत ५।४।१८ पृ० ५५८-५५६ १३०. (क) उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ ।
-जम्बू० सू० ३६ पृ० ७७ अमोल० (ख) उवदिसइत्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ ।
-कल्पसूत्र सू० १६५ पृ० ५७ पुण्य० (ग) त्रिषष्ठि० । १।३।१ से १७ ५० ६८.
......"स्वतनयशतजेष्ठं परमभागवतं भगवज़्जनपरायणं भरतं धराणपालनायाभिषिच्य स्वयं भवन एवोर्वरितशरीरमात्रपरिग्रहः..."ब्रह्मावर्तात्प्रववाज ।
-श्री मद्भागवत ५।५।२८।५६३
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साधक-जीवन
__ अभिनिष्क्रमण के पूर्व श्री ऋषभदेव ने प्रभात के पुण्य-पलों में एक वर्ष तक एक करोड आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन दान दी।३१ इस प्रकार एक वर्ष में तीन अरब अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया । १२ दान देकर, जन-जन के अन्तर्मानस में दान की भव्य-भावना उद्बुद्ध की। महाभिनिष्क्रमण
भारतीय इतिहास में चैत्र कृष्णा अष्टमी का दिन133 सदा स्मरणीय रहेगा, जिस दिन सम्राट् श्री ऋषभ राज्य-वैभव को ठुकराकर, भोग-विलास को तिलाञ्जलि देकर, परमात्मत्त्व को जागृत करने के लिए “सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि" सभी पाप प्रवृत्तियों का परित्याग करता है, इस भव्य-भावना के साथ विनीता नगरी से निकलकर सिद्धार्थ उद्यान में, अशोक वृक्ष के नीचे, षष्ठ भक्त के तप
१३१. एगा हिरण्णकोडी अट्ठव अणूणगा सयसहस्सा । सूरोदयमाईयं दिज्जइ जा पायरासाओ ।।
--आव० नियु० गा० २३६ (ख) त्रिषष्ठि० १।३।२३ १३२. तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीई अ होति कोडीओ। असियं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिण्णं ।।
-आव० नि० गा० २४२ (ख) त्रिषप्टि० १।३।२४।५० ६८ १३३. जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चेत्तबहुले तस्स णं चेत्तबहुलस्स अट्ठमीपक्षणं ।
-कल्पसूत्र सू० १६५ पुण्य० पृ० ५७ (ख) चेत्तबहुलट्ठमीए चउहि सहस्सेहिं सो उ अवरण्हे । सीया सुदसणाए सिद्धत्थवणम्मि छट्ठरणं ॥
-~~-आव०नि० गा० ३३६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
से युक्त होकर सर्वप्रथम परिबाट बने ।१३४ भगवान् के प्रेम से प्रेरित होकर उग्रवंश, भोगवंश, राजन्य वंश, और क्षत्रिय वंश के चार सहस्र साथियों ने भी उनके साथ ही संयम ग्रहण किया।३५ यद्यपि उन चार
(ग) तदा च चैत्रबहुलाष्टम्यां चन्द्रमसि श्रिते ।
नक्षत्रमुत्तराषाढामह्नो भागेऽथ पश्चिमे ।। भवज्जयजयारावकोलाहलमिषाद् भृशम् । उगिरद्भिमुदमिव, वीक्ष्यमाणो नरामरैः ।। उच्चखान चतसृभिमुष्टिभिः शिरसः कचान् । चतसृभ्यो दिग्भ्यः शेषामिव दातुमना प्रभुः ।।
-त्रिषष्ठि०१।३। ६५ से ६७ १३४. जाव विणीयं रायहाणि मज्झमझेरणं निगच्छइ, निगच्छइत्ता जेणेव
सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता असोगवरपायवस्स अहे जाव सयमेव चउमुट्ठियं लोयं करेइ२त्ता छट्ठणं भत्तेणं अप्पाणएणं
-कल्पसूत्र० सू० १६५ पृ० ५७ (ख) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सू० ३६ पृ० ८०-८१ अमोल १३५.
उग्गाणं भोगाणं राइन्नारणं च खत्तियारणं च । बहि सहस्सेहुसभो सेसाउ सहस्सपरिवारा !
---आव० नि० गा० २४७ (ख) उन्गारणं भोगारणं राइन्नाणं च खत्तियारणं च चउहि सहस्सेहि
सद्धि एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए।
-कल्पसूत्र सू० १६५ पृ० ५७ (ग) उग्गारणं भोगारणं रायग्णारणं च खत्तियारणं च । चउहिं सहस्सेहिं ऊसहो सेसा उ सहस्सपरिवारा ।।
-समवायांग १५ (घ) उग्गाणं भोगाणं राइनाणं खत्तिआणं चउहि सहस्सेहिं सद्धि
-जम्बूद्वीप० सू० ३६ पृ० ८०-८१ अमोल
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साधक - जीवन
सहस्र साथियों को भगवान् ने प्रवृज्या प्रदान नहीं की, किन्तु उन्होंने भगवान् का अनुसरण कर स्वयं ही लुंचन आदि क्रियाएँ कीं । ३६ विवेक के अभाव में
भगवान् श्री ऋषभदेव श्रमरण बनने के पश्चात् अखण्ड मौनवृती बनकर एकान्त-शान्त स्थान में ध्यानस्थ होकर रहने लगे । ३७ जिनसेन के अनुसार उन्होंने छह महीने का अनशन व्रत अंगीकार किया । श्वेताम्बर साहित्य में ऐसा स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । वहाँ भिक्षा के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, वह इस प्रकार है—घोर
(ङ) चतुःसहस्रगणना नृपाः प्रावाजिपुस्तदा । गुरोर्मतमजानाना स्वामिभक्त्यैव केवलम् ॥ यदस्मै रुचितं भर्त्रे तदस्मभ्यं विशेषतः । इति प्रसन्नदीक्षास्ते केवलं द्रव्यलिङ्गिनः ॥
त्रिषष्ठि १२७८ से ५० प० ७० ।
(च) १३६. चउरो साहसीओ, लोयं काऊण अप्पणा चेव । एस जहा काही तं तह अम्हेवि
काहामो ॥
-- आवश्यक नियुक्ति गा० ३३७
6.
- महापुराण पर्व १७ श्लो०२१२ - २१३ पृ० ३६१
१३७. (क) णत्थि गं तस्स भगवंतस्स कत्थइ परिबंधे ।
-- जम्बू ० प्र० २ वक्षस्कार सू० ३६
(ख) अथ कार्य समुत्सृज्य तपोयोगे समाहितः । वाचंयमत्वमास्थाय तस्थौ विश्वेड् विमुक्तये | षण्मासानशनं धीरः प्रतिज्ञाय महाधृतिः । ariarनिरुद्धान्तर्बहिष्करण विक्रियः
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-- महापुराण १८११-२ पृ० ३६७
(ग) जडान्धमूकवधिरपिशाचोन्मादकवदवधूत वेषोऽभिभाव्यमाणोऽपि जनानां गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव ।
--भागवत ५।५।२६ पृ० ५६३
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१८
ऋषभदेव : एक परिशीलन
अभिग्रहों को ग्रहण कर अनासक्त बन भिक्षाहेतु ग्रामानुग्राम विचरण करते थे,१३८ पर भिक्षा और उसकी विधि से जनता अनभिज्ञ थी, अतः भिक्षा उपलब्ध नहीं होती थी। वे चार सहस्र श्रमण चिरकाल तक यह प्रतीक्षा करते रहे कि भगवान् मौन छोड़कर पूर्ववत् हमारी सुधबुध लेंगे, सुख सुविधा का प्रयत्न करेंगे, पर भगवान् आत्मस्थ रहे, कुछ नहीं बोले । वे द्रव्यलिंगधारी श्रमरण भूख-प्यास से संत्रस्त हो सम्राट भरत के भय से१४० पुनः गृहस्थ न बनकर वल्कलधारी तापस
आदि हो गये ।१४१ वस्तुतः विवेक के अभाव में साधक साधना से पथभ्रष्ट हो जाता है। साधक जीवन
भगवान् श्री ऋषभदेव अम्लान चित्त से, अव्यथित मन से भिक्षा के लिए नगरों व ग्रामों में परिभ्रमण करते । भावुक मानव
१३८. उसभी वरवसभगई घेत्तूण अभिग्गहं परमघोरं । वोसट्टचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु ॥
--आवश्यक नियुक्ति गा० ३३८ १३६. न वि ताव जणो जाण इ का भिक्खा केरिसा व भिक्खयरा?
--आवश्यक नि० गा० ३३६ (ख) जदि भिक्खस्स अतीति तो सामितो णे आगतोत्ति वत्थेहि आसेहि य हत्थीहि आभरणेहि कनाहि य निमन्तेत्ति ।
-आवश्यक चूणि पृ० १६२ १४०. भरतलज्जया गृहगमनमयुक्तम्, आहारमन्तरेण चासितुन शक्यते
—आवश्यक नि० मल० पृ० २१६ (ख) जेण जणो भिक्खं ण जाणति दाउ तो जे ते चत्तारि सहस्सा
भिक्खं अलभंता तेण मारणेण घरंपि ण वच्चन्ति भरहस्स य भएणं।
-आवश्यक चूणि पृ० १६२ १४१. ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाता।
---आवश्यक नि० गा० ३३६
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साधक जीवन
भगवान् को निहारकर भक्ति-भावना से विभोर होकर अपनी रूपवती कन्याओं को बढ़िया वस्त्रों को, अमूल्य आभूषणों को और गज, तुरङ्ग, रथ, सिंहासन आदि वस्तुयों को प्रस्तुत करते । १४२ ग्रहरण
( ख ) पच्छा वणमतिगता तावसा जाता, कन्दमूलाणि खातिउमारद्धा । -- आवश्यक चूर्ण, पृ० १६२
गङ्गातीरवनानि ते ।
(ग) सम्भूयाऽऽलोच्य सर्वेऽपि जुबुभुजिरे स्वैरं कन्दमूलफलाद्यथ ॥ प्रावर्तन्त ततः कालात् तापसा वनवासिनः । जटाधराः कन्दफलाद्याहारा इह भूतले ॥ -- त्रिषष्ठि १।२।१२२-१२३
(घ) केचिद् वल्कलिनो भूत्वा, फलान्यादन् पपुः पयः । परिधाय परे जीणं कौपीनं चक्र रीप्सितम् || अपरे भस्मनोद्गुण्ठ्य, स्वान् देहान् जटिनोऽभवन् । एकदण्डधराः केचित् केचिच्चासंस्त्रिदण्डिनः ॥ प्राणरातस्तदेत्यादिवे पर्ववृतिरे चिरम् । वन्यैः कशिपुभिः स्वच्छैः जलैः कन्दादिभिश्च ते । भरताद् बिभ्यतां तेषां देशत्यागः स्वतोऽभवत् । ततस्ते वनमाश्रित्य तस्थुस्तत्र कृतोटजाः ।। तदासंस्तापसाः पूर्वं परिव्राजश्च केचन । पाषण्डिनां ते प्रथमे बभूवुर्मोहदूषिताः ॥
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- महापुराण १८।५५-५६ पृ० ४०२ १४२. भयवमदीणमणसो संवच्छरमणसिओ विहरमाणो । कन्नाहि निमंतिज्जइ वत्थाभरणासहिं च ॥
- आवश्यक नि० गा० ३४१
(ख) आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति प० १४४ । (ग) उत्थायोत्थाय धावित्वा, धावित्वा च ससम्भ्रमम् । पौरैर्देशान्तरायातबन्धुवत् स्वाम्यवेष्ट्यत || कोऽप्युवाचैहि भगवन् ! गृहाण्यनुगृहाण नः । वसन्तोत्सववद् देव !, चिरादसि निरीक्षितः ॥
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१००
ऋषभदेव : एक परिशीलन
करने के लिए अभ्यर्थना करते, पर कोई भी विधिवत् भिक्षा न देता। भगवान् उन वस्तुओं को बिना ग्रहण किये जब उलटे पैरों लौट जाते तो वे नहीं समझ पाते कि भगवान् को किस वस्तु की आवश्यकता है ?
श्रीमद्भागवतकार ने भगवान् श्री ऋषभदेव को श्रमण बनने के पश्चात् अज्ञ व्यक्तियों ने जो दारुण कष्ट प्रदान किये उसका शब्द चित्र उपस्थित किया है,१४3 पर वैसा वर्णन जैन साहित्य में नहीं है। जैन-साहित्य के परिशीलन से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग का मानव इतना क्र र प्रकृति का नहीं था, जितना भागवतकार ने
कोऽप्यवादीदिद सज्जं, स्नानीयं वसनं जलम् । तैलं पिष्टातकश्चेति, स्नाहि स्वामिन् प्रसीद नः ।। कोऽप्यूचे स्वोपयोगेन, स्वामिन् ! मम कृतार्थय । जात्यचन्दनकपूरकस्तुरीयक्षकर्दमान् ॥ कोऽप्युवाच जगद्रत्न ! रत्नालङ्करणानि नः । स्वाङ्गाधिरोपणात् स्वामिन्नलंकुरु दयां कुरु ॥ एवं व्यज्ञपयत् कोऽपि, गृहे समुपविश्य मे । स्वामिन्नङ्गानुकूलानि, दुकूलानि पवित्रय ॥ कश्चिदप्यब्रवीदेवं, देव ! देवाङ्गनोपमाम् । प्रभो ! गृहाण नः कन्यां, धन्याः स्मस्त्वत्समागमात् ।। कोऽप्यूचे पादचारेण, क्रीडयाऽपि कृतेन किम् ? । इममारोह शैलाभं कुञ्जरं राजकुञ्जर ! ।।
-त्रिषष्ठि १।३।२५१-२५८ १४३. तत्र-तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखट-शिविर-व्रजघोषसार्थगिरिवना
श्रमादिष्वनुपथमवनिपसदः परिभूयमानो मक्षिकाभिरिव वनगजस्तर्जनताडनावमेहनष्ठीवनमावशकृद्रजःप्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तस्तदविगणयन्नेवा • सत्संस्थान एतस्मिः, देहोपलक्षणे सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेण स्वमहिमावस्थानेनासमारोपिताहंममाभिमानत्वादविखण्डितमनाः पृथिवीमेकचरः परिबभ्राम ।
--भागवत ५।५।३०१५६४
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साधक जीवन
चित्रित किया है। भागवत का प्रस्तुत वर्णन श्रमण भगवान् महावीर के अनार्य देशों में विहरण के समान है । १४४
विशिष्ट लाभ
एक वर्ष पूर्ण हुआ । कुरुजनपदीय गजपुर के अधिपति बाहुबली के पौत्र एशं सोमप्रभ राजा के पुत्र यांस ने स्वप्न देखा कि सुमेरु पर्वत श्याम वर्ण का हो गया है । उसे मैंने मृत कलश से अभिषिक्त कर पुनः चमकाया । १४५ नगर ष्ठी सुबुद्धि ने उसी रात्रि में स्वप्न देखा कि सूर्य की हजार किरणें अपने स्थान से चलित हो रही थीं कि श्र ेयांस ने उन रश्मियों को पुनः सूर्य में संस्थापित कर दिया ।१४६ राजा
१०१
१४४. तुलना कीजिये - आचारांग प्रथम श्रुत० अध्या० ६ उद्द े० ३ से । १४५. छउमत्थो य वरिसं बहलीचंडबइल्लेहिं विहरिऊरणं गजपुरं गतो, तत्त्थ भरहस्स पुत्तो सेज्जंसो, अन्ने भणन्ति बाहुबलिस्स सुतो सोमप्पभी सेयंसोय, ते य दोऽवि जगा नगरसेट्ठी य सुमिरणे पासन्ति तं तणि, समागताय तिन्निवि सोमस्स समीवे कहेंति, सेयंसो - सुणह अज्जं मया जं सुमिरणे दिट्ठ - मेरु किल चलितो, इहागतो मिलायमाणपभो मया य अमयकलसेण अभिसितो साभावितो जातो
पfseat sहि |
- आवश्यक चूर्णि जिन० पृ० १६२-१६३ (ख) कुरुजणवए गयपुरं नाम नगरं तत्थ बाहुबलिपुत्तो सोमप्पभो राया, तस्स पुत्त सेज्जसो जुवराया, सो सुमिरणे मन्दरं पव्वयं सामवण्णयं पासइ, ततो अरणेण अमयकलसेण अभिसित्तो अमहियं सोभितुमाढतो ।
-- आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० प० २१७
(ग) त्रिषष्ठि १।३।२४४-२४५ ।
१४६. नगरसेट्ठी सुबुद्धिनामो, सो सूरस्स रस्सीसहस्सं ठाणाओ चलियं पासति, नवरं सिज्जसेण हक्खुत्त सो य अहिअयरं तेयसम्पुण्णो जाओ ।
- आवश्यक हारिभद्रोयावृत्ति प० १४५ १
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१०२
ऋषभदेव : एक परिशीलन
सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि एक महान् पुरुष शत्रुओं से युद्ध कर रहा है, श्रेयांस ने उसे सहायता प्रदान की, जिससे शत्रु का बल नष्ट हो गया। ४७ प्रातः होने पर सभी स्वप्न के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने लगे। चिन्तन का नवनीत निकला कि अवश्य ही श्रेयांस को विशिष्ट लाभ होने वाला है।१४८
(ख) नगरसेट्ठी सुबुद्धी नाम, सो सुमिरणे पासइ-सूरस्स रस्सिसहरसं
ठाणातो चलितं, नवरि सेज्जंसेण हुक्खुत्त ततो सो मूरो अहिययरतेयसम्पन्नो जातो।
-आवश्यक मल० वृ० प० २१७-२१८ (ग) त्रिषष्ठि० १।३।२४६-२४७ । नोट-आवश्यक चूणि में जो स्वप्न नगरसेष्ठी का दिया है वह
आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति और त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में राजा सोमप्रभ का दिया है और सोमप्रभ का स्वप्न नगर श्रेष्ठी का दिया है।
-लेखक (घ) सेट्ठी भणती-सुणह जं मया दिट्ठ- अज्ज किल कोऽपि
पुरिसो महप्पमाणो महत्ता रुिवुबलण सह जुज्झन्तो दिट्ठो तो सेज्जंस सामी य से सहायो जातो, ततो अणेण पराजितं परबलं एयं दद्रुण म्हि पडिबुद्धो।
--आवश्यक चूणि १३३ १४७. (क) राइणा एक्को पुरिसो महप्पमाणो मया रिउबलेण सह जुज्झन्तो दिट्ठो।
-आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, प० १४५ (ख) राइणा सुमिणे एक्को पुरिसो महप्पमाणो महया रिउबलेण
जुझतो दिट्ठो, सेज्जंसेण माहज्ज दिणं ततो तेण तब्बलं भग्गं ति।
----आवश्यक मल० वृत्ति० प० २१८।१ (ग) त्रिषष्ठि १।३।२४८ १४८. कुमारस्स महतो कोऽवि लाभो भविस्सइ त्ति ।
-आवश्यक मल० वृ० प० २१८११
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साधक जीवन
अक्षय तृतीया
भगवान् श्री ऋषभदेव उसी दिन विचरण करते हुए गजपुर पधारे । चिरकाल के पश्चात् भगवान् को निहार कर पौरजन प्रमुदित हुए। श्रेयांस भी अत्यधिक ग्राह्लादित हुआ । भगवान् परिभ्रमण करते हुए श्रेयांस के यहाँ पधारे । १४९ भगवान् के दर्शन और भगवदरूप के चिन्तन से श्रेयांस को पूर्वभव की स्मृति उद्बुद्ध हुई | 190 स्वप्न का सही तथ्य परिज्ञात हुआ । उसने प्रेमपरिपूरित करों से ताजा प्राये हुए इक्षु रस के कलशों को ग्रहरण कर भगवान् के कर कमलों में रस प्रदान किया । इस प्रकार भगवान् श्री ऋषभदेव को
१
१५०. जाइस्सरणं जायं
१४६. भगवंपि अणाउलो संवच्छ रखमांसि अडमाणो सेयंसभवणमइगतो । आव० म० वृ० २१८
(ख) उसभस्स उ पारणए
( ख ) सम्प्रेक्ष्य भगवद्र ूपं श्रयाञ्जातिस्मरोऽभवत् ।
- महापुराण जिन० ७८।२०।४५२ १५१. (क) गयपुर सेज्जंस खोयरसदाग वसुहार पीढ गुरुनूया । -आव० नियुक्ति० गा० ३४५
(ग) उसमस्स पढमभिक्खा,
- आव० म० वृ० २१८
इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स ।
१०३
-आव० नि० गा० ३४४
खोयरसो आसि लोगणाहस्स ।
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(घ) ततो विज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः स तु गृह्यतां कल्पनीयोऽयं रस इत्यवदद् विभुम् । प्रभुरण्यञ्जलीकृत्य पाणिपात्र मधारयत् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सोऽपीक्षुरसकुम्भानलोठयत् ॥ भूयानपि रसः पाणिपात्रे भगवतो ममौ । यांसस्य तु हृदये ममुर्न हि मुदस्तदा ॥
- समवायांग
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१०४
ऋषभदेव : एक परिशीलन
एक सम्वत्सर के पश्चात् भिक्षा प्राप्त हुई१५२ और सर्व प्रथम इक्षुरस का पान करने के कारण वे काश्यप के नाम से भी विश्र त हुए।१५3
स्त्यानो नु स्तम्भितोन्वासीद् व्योम्नि लग्नशिखो रसः । अञ्जली स्वामिनोऽचिन्त्यप्रभावाः प्रभवः खलु ।। ततो भगवता तेन, रसेनाऽकारि पारणम् । सुरासुरनृणां नेत्रः पुनस्तदर्शनामृतः ॥
__-त्रिषष्ठि० १।३।२६१-२६५ (ङ) श्रेयान् सोमप्रभेणामा, लक्ष्मीमत्या च सादरम् । रसमिक्षोरदात् प्रासुमुत्तानीकृतपाणये ।।
-~-महापुराण जिन० १००।२०१४५४ (च) एएसि णं चउव्वीसाए तित्थगराण चउव्वीसं पढमभिक्खादायारो होत्था तं जहा सिज्जंस"" ।
-समवायाङ्ग १५२. संवच्छरेण भिक्खा लद्धा
उसभेण लोगनाहेण । सेसेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० ३४२ (ख) संवच्छरेण भिक्खा लद्धा, उसभेण लोयणाहेण ।
-समवायांग १५३. कासं-उच्छू, तस्स विकारो-कास्यः रसः सो जस्स पारणं सो कासवो उसभ स्वामी।
-दशवकालिक-अगस्त्यसिंह चूणि (ख) काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा त इवखु पिबंति तेन काश्यपा अभिधीयन्ते ।
___-दशवकालिक-जिनदास चूणि पृ० १३२ (ग) पुठवगा य भगवतो इक्खुरसं पिविताइता तेण गोत्त कासवं ति ।
-आवश्यक चूणि जिनदास पृ० १५२
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प्राचार्य जिनसेन के शब्दों में काश्य तेज को कहते हैं। भगवान् श्री ऋषभदेव उस तेज के रक्षक थे अतः काश्यप कहलाये। ५४
प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में सर्व प्रथम वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयांस ने इक्षु रस का दान दिया अतः वह तृतीया इक्षु-तृतीया या अक्षय तृतीया पर्व के रूप में प्रसिद्ध हुई ।१५५ दान से वह तिथि भी अक्षय हो गई।
(घ) वर्षीर्यान् वृषभो ज्यायान्,
पुरुराद्यः प्रजापतिः । ऐक्ष्वाकुः [कः] काश्यपो ब्रह्मा, गौतमो नाभिजोऽग्रजः ॥
--धनञ्जय नाममाला ११४ पृ० ५७ १५४. काश्यमित्युच्यते तेजः काश्यपस्तस्य पालनात् ।
-~महापुराण २६६।१६।३७० १५५. राधशुक्लतृतीयायां दानमासीत् तदक्षयम् ।
पक्षियतृतीयेति, ततोऽद्यापि प्रवर्तते ।। श्रेयांसोपज्ञमवनौ दानधर्मः प्रवृत्तवान् । स्वाम्युपज्ञमिवाऽशेषव्यवहारनयक्रमः ॥
-त्रिषष्ठि० १।३।३०१-३०२ (ख) वैशाख सुदि तृतीयारूपं पर्वत्वेन मान्यं जातं ।
-~-कल्पलता सम० पृ० २०६।१ (ग) तदिनं लोके अक्षयतृतीया जाता।
__-कल्पद्र म कलिका पृ० १४६ (घ) वैशाखमासे राजेन्द्र ! शुक्लपक्षे तृतीयका ।
अक्षया सा तिथिः प्रोक्ता कृलिका रोहिणीयुता ॥
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तृतीय अध्याय
तीर्थकर जीवन
अरिहन्त के पद पर
एक हजार वर्ष तक श्री ऋषभदेव शरीर से ममत्व रहित होकर वासनाओं का परित्याग कर, आत्म-आराधना, संयम-साधना और मनोमंथन करते रहे ।१५६ जब भगवान् अष्टम तप की साधना करते हुए पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में वटवृक्ष के नीचे
१५६. उसभे रणं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्स
निच्चं वोसटकाये चियत्तदेहे जाव अप्पाणं भावमाणस्स एक्कं वाससहस्सं विइक्कतं ॥
___-कल्पसूत्र सू० १६६ पृ० ५८ पुण्य० (ख) सेणं भगवं वासावासवज्ज हेमन्तगिम्हासु गामे एगराईए
नगरे पंचराईए, ववगयहास-सोग-अरइ-रइ-भय-परित्तासे, णिम्ममे णिरहंकारे लहुभूए अगंथे वासी तत्थरणं अदु8 चंदणाणुलेवेणं अरत्त लेट्टमि कंचणम्मि अममे, इहलोए परलोए अपडिवद्ध जीविअ-मरणे निरवकंखे, संसारपारगामी कम्मसंघणिग्घायणट्ठाए अब्भुट्ठिए विहरइ । तस्स रणं भगवन्तस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स एगे वाससहस्से विइक्कन्ते ।
--जम्बूद्वीप० सू० ४०-४१ पृ० ८४ अमो० तओ रणं जे से हेमन्ताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे फग्गुणबहुले तस्स णं फग्गुणबहुलस्स एक्कारसीपक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि
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तीर्थकर जीवन
ध्यान-मुद्रा में अवस्थित थे। फाल्गुन कृष्णा ग्यारस का दिन था, पूर्वाह्न का समय था, आत्म-मंथन चरम सीमा पर पहुँचा। आत्मा पर से घन-घाति कर्मों का आवरण हटा, भगवान् को केवल ज्ञान और केवल दर्शन का अपूर्व आलोक प्राप्त हुआ। जैनागमों में जिसे केवल
पुरिमतालस्स नयरस्स बहिया सगडमुहंसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्स अहे अट्टमेण भत्तरणं अपाणएरणं आसाढाहि नक्खत्तणं जोगमुवागएणं झारणंतरियाए वट्टमाणस्स अरणंते जाव जारणमारणे पासमारणे विहरइ ।
-कल्पसूत्र० सू० १६६ पृ० ५८ पुण्य० (ख) तित्थयराणं पढमो उसभसिरी विहरिओ निरुवसग्गं ।
अट्ठावओ नगवरो अग्गा भूमी जिणवरस्स ॥ छउमत्थप्परिआओ वाससहस्सं तओ पुरिमत.ले । निग्गोहस्स य हिट्ठा उप्पन्नं केवलं नाणं ।। फग्गुणबहुले इक्कारसीइ अह अट्ठमेण भत्तेण । उप्पन्नम्मि अणन्ते महन्वया पंच पन्नवए ।
--आवश्यक नियुत्ति गा० ३३८ से ३४० (ग) फग्गुणवहुलेक्कारसि उत्तरसाढाहिं नाणमुसभस्स ।
-आवश्यक नि० गा० २६३ (घ) अथ व्रतात् सहस्राब्द्यां, फाल्गुनकादशीदिने ।
कृष्णे तथोत्तराषाढास्यिते चन्द्र दिवामुखे । उत्पेदे केवलज्ञानं त्रिकालविषयं विभोः । हस्तस्थितमिवाऽशेष, दर्शयद् भुवनत्रयम् ।।
-त्रिषष्ठि० १।३।३६६-३६७ (ङ) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति० प० ८५ अमो० । (च) समवायाङ्ग १५७ गा० ३३-५ । (छ) लोक प्रकाशः ३२ ; ५४७ । (ज) फाल्गुने मासि तामिस्रपक्षस्यैकादशीतिथौ । उत्तराषाढ़नक्षत्रे कैवल्यमुदभूद्विभोः ॥
—महापुराण, जिनसेन, २०।२६८।४७२
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१०६
ऋषभदेव : एक परिशीलन
ज्ञान कहा है उसे ही बौद्ध ग्रन्थों में प्रज्ञा कहा है और सांख्य-योग में विवेकख्याति कहा है ।१५७
भगवान् को केवल ज्ञान की उपलब्धि वट वृक्ष के नीचे हुई थी अतः वटवृक्ष आज भी अादर की दृष्टि से देखा जाता है। सम्राट भरत का विवेक
आवश्यक नियुक्ति,१५८ आवश्यक चूणि,१५९ त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्र१६° आदि श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार जिस समय भगवान् श्री ऋषभदेव को केवल ज्ञान की उपलब्धि हुई, उसी समय सम्राट भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न भी उत्पन्न हुआ और इसकी सूचना
१५७. विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ।
—योगसूत्र २।२६ १५८. उज्जाणपुरिमताले पुरी विणीआइ तत्थ नाणवरं । चक्कुप्पया य भरहे निवेअणं चेव दुण्हंपि ।।
-आवश्यक नियुक्ति, गा० ३४२ १५६. भरहस्स य चारपुरिसा णिच्चमेव दिवसदेवसिय वट्टमाणि णिवेदेति,
तेहिं तस्स णिवेदितं-जहा तित्थगरस्स गाणं उप्पन्नंति, आयुहघरिएणऽवि णिवेदितं, जहा-चक्करयणं उप्पन्नं । ताहे सो चिन्तेउमारद्धो, दोण्हपि महिमा कायव्वा, कतरं पुत्वं करेमित्ति ? ताहे भणति-तातंमि पूतिए, चक्कं पूयितमेव भवति चक्कस्सवि पूयणिज्जो, ताहे सव्विड्ढीए पत्थितो ।
--आवश्यक चूणि, जिन० पृ० १८१ १६०. प्रणम्य यमकस्तत्र, भरतेशं व्यजिज्ञपत् ।
दिष्ट्याऽद्य वर्धसे देवाऽनया कल्याणवार्तया ॥ पुरे पुरिमतालाख्ये कानने शकटानने । युगादिनाथपादानामुदपद्यत
केवलम् ।। प्रणम्य शमकोप्युच्चैः स्वरमेवं व्यजिज्ञपत् । इदानीमायुधागारे, चक्ररत्नमजायत ।
-त्रिषष्ठि १।३।५११-५१३
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तीर्थङ्कर जीवन
१०६
एक साथ ही "यमक" और "शमक" दूतों के द्वारा सम्राट भरत को मिली।
आचार्य श्री जिनसेन ने उपर्युक्त दो सूचनाओं के अतिरिक्त तृतीय पुत्र की सूचना का भी उल्लेख किया है ।१६१
ये सारी सूचनाएं एक साथ मिलने से भरत एक क्षण असमंजस में पड़ गये १६३.-क्या प्रथम चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिए, या पुत्रोत्सव करना चाहिए ? द्वितीय क्षण उन्होंने चिन्तन की चाँदनी में सोचा-इनमें से भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न होना धर्म का फल है, पुत्र होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्ररत्न का उत्पन्न होना अर्थ का फल है।१६३ एतदर्थ मुझे प्रथम चक्ररत्न या पुत्ररत्न की नहीं, अपितु भगवान् की उपासना करनी चाहिए। क्योंकि वह सभी कल्याणों का मुख्य स्रोत है, महान् से महान् फल देने वाली है । १६४
१६१. श्रीमान् भरतराजर्षिः बुबुधे युगपत् त्रयम् । गुरोः कैवल्यसम्भूति सूतिञ्च सुतचक्रयोः ।
- महापुराण, पर्व० २४, श्लो० २ पृ० ५७३ १६२. पर्याकुल इवासीच्च क्षणं तद्योगपद्यतः । किमत्र प्रागनुष्ठेयं सविधानमिति प्रभुः ।
-महापुराण २४।२।५७३ (ख) उत्पन्नकेवलस्तात, इतश्चक्रमितोऽभवत् । आदौ करोमि कस्याऽर्चामिति दध्यौ क्षरणं नृपः ।
-त्रिषष्ठि० १।३।५१४ १६३. तत्र धर्मफलं तीर्थं पुत्रः स्यात् कामजं फलम् । अर्थानुबन्धिनोऽर्थस्य फलञ्चकं प्रभास्वरम् ।।
-महापुराण २४॥६॥५७३ (ख) क्व विश्वाभयदस्तातः ?, क्व चक्र प्राणिघातकम् ? .. विमृश्येति स्वामिपूजाहेतोः स्वानादिदेश सः ।
__-त्रिषष्ठि १।३।५१५ १६४. कार्येषु प्राग्विधेयं तद्धर्म्य श्रेयोनुबन्धि यत् ।। महाफलञ्च तद्देवसेवा प्राथमकल्पिकी ॥
--महापुराण जिन० २४।८।५७३
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
चक्ररत्न या पुत्र रत्न तो इस लोक के जीवन को ही सुख प्रदान करने वाले हैं किन्तु इस लोक और परलोक दोनों में ही जीवन को सुखी बनाने वाला भगवान् का दर्शन ही है,१६५ अतः मुझे सर्वप्रथम भगवान् श्री ऋषभदेव के दर्शन व चरण स्पर्श करना चाहिए ।१६६
माँ मरुदेवी की मक्ति
सम्राट् भरत भगवान के दर्शन हेतु सपरिजन प्रस्थित हुए। माँ मरुदेवी भी अपने लाडले पुत्र के दर्शन हेतु चिरकाल से छटपटा रही थी, प्यारे पुत्रा के वियोग से वह व्यथित थी। उसके दारुण कष्ट की कल्पना करके वह कलप रही थी । प्रतिपल-प्रतिक्षण लाडले लाल की स्मृति से उसके नेत्रों में आँसू बरस रहे थे ।१६७ जब उसने सुना कि उसका प्यारा लाल विनीता के बाग में आया है तो वह भी भरत के साथ हस्ती पर आरूढ़ होकर चल पड़ी। भरत के विराट् वैभव को देखकर उसने कहा-बेटा भरत ! एक दिन मेरा प्यारा ऋषभ भी इसी प्रकार राज्यश्री का उपभोग करता था, पर इस समय वह क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर कष्टों को सहन करता हुप्रा विचरता है। पुत्र प्रेम से आँखें छलछला आई । भरत के द्वारा तीर्थङ्करों की दिव्य विभूति का शब्दचित्र प्रस्तुत करने पर भी उसे सन्तोष नहीं हो रहा था ।१६८ किन्तु समवसरण के सन्निकट
१६५. तायम्मि पूइए चक्कं पूइग्रं पूअणारिहो ताओ । इहलोइयं तु चक्कं परलोअसुहावहो ताओ ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० ३४३ १६६. निश्चिचायेति राजेन्द्रो गुरुपूजनमादितः ।
-महापुराण० २४।६।५७३ १६७. त्रिषष्ठि० पर्व० १. स० ४, पृ० १२४।२५ १६८. भगवतो य माता भणति भरहस्स रज्जविभूति दट्ठरणं-मम पुत्तो एवं
चेव णग्गओ हिडति । ताहे भरहो भगवतो विभूति वन्नति, सा ण. पत्तियति, ताहे गच्छंतेण भणित्ता--एहि जा ते भगवतो विभूति
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तीर्थङ्कर जीवन
पहुँचते ही श्री ऋषभदेव को ज्यों ही समवसरण में इन्द्रों द्वारा अचित देखा त्यों ही चिन्तन का प्रवाह बदला। आर्त ध्यान से शुक्ल ध्यान में लीन हुई । ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा, मोह का बन्धन सर्वा शतः टूटा । वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय को नष्ट कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन की धारिका बन गई१६९ और उसी क्षण शेष कर्मों को भी नष्ट कर हस्ती पर आरूढ़ ही सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई।१७०
दरिसेमि, जदि एरिसिया ममं सहस्सभागेणवि अत्थि ति, ताहे हत्थिखंधेण णीति ।
-आवश्यक चूणि-जिन० पृ० १८१ (ख) मम पुत्तस्स एरिसी रज्जसिरी आसि संपयं सो खुहापिवासापरि
गओ नग्गओ, हिंडइत्ति उव्वयं करियाइया भरहस्स तित्थगरविभूई वन तस्मवि न पत्तिच्चियाइया, पुत्तसोगेण य से किल झामलं चक्खु जायं रुयंतीए........
-आवश्यक मलय० वृत्ति० पृ० २२६ १६६. भगवतो य छत्तादिच्छत्तं पेच्छंतीए चेव केवलनाणं उप्पन्न,
-आव० चूणि० पृ० १८१ (ख) ततो तीए भगवओ छत्ताइच्छत्तं पासंतीए चेव केवलमुप्पण्णं
. -आव० मल० वृ० २२६ (ग) साऽपश्यत् तीर्थकृल्लक्ष्मी सूनोरतिशयान्विताम्,
तस्यास्तद्दर्शनानन्दात् तन्मयत्वमजायत । साऽऽरुह्य क्षपकोणिमपूर्वकरणक्रमात । क्षीणाष्टकर्मा युगपत्, केवलज्ञानमासदत् ॥
-त्रिषष्ठि० १॥३॥५२८-५२६ १७०. तं समयं च णं आयु खुट्ट सिद्धा, देवेहि य से पूया कता।
-आवश्यक चूणि० जिन० पृ० १८१ (ख) करिस्कन्धाधिरुढव स्वामिनी मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन, प्रपेदे पदमव्ययम् ।।
-~~-त्रिपष्ठि० ११३१५३०
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
कितने ही आचार्यों का यह अभिमत है कि भगवान् के शब्द कर्णकुहरों में गिरने से उन्हें आत्मज्ञान हुआ और वे मुक्त हो गई । १७१ प्रस्तुत ग्रवसर्पिणी में सर्वप्रथम केवलज्ञान श्री ऋषभदेव को हुआ और मोक्ष मरुदेवी माता को । १७२
आचार्य जिनसेन ने स्त्रीमुक्ति न मानने के कारण ही प्रस्तुत घटना का उल्लेख नहीं किया है ।
धर्मचक्रवर्ती
जिन बनने के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव स्वयं कृतकृत्य हो चुके थे । वे चाहते तो एकान्त शान्त स्थान में अपना शेष जीवन व्यतीत करते, पर वे महापुरुष थे । उन्होंने समस्त प्राणियों की रक्षारूप दया के पवित्र उद्देश्य से प्रवचन किया । १७३ एतदर्थ ही भगवान् श्री महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में श्री ऋषभदेव को धर्म का मुख कहा है । १४ और ब्रह्माण्ड पुराण में भी श्री ऋषभदेव
१७१. अन्न े भांति — भगवओ धम्मक हासदं सुरतीए तक्कालं च तीए खुट्टमाउयं ततो सिद्धा ।
१७२. मडयं मयस्स देहो तं
१७३
मरुदेवीए पढमसिद्धोत्ति ।
(ख) पढमसिद्धोत्ति काऊरणं खीरोदे छूढा ।
- आवश्यक मलय० वृ० २२६
१७४ धम्मारणं कासवो मुहं ।
(ग) एतस्यामवसर्पिण्यां, सिद्धोऽसो प्रथमस्ततः । सत्कृत्य तद्वपुः क्षीरनीरधौ निदधेऽमरैः ।।
- आवश्यक नियुक्ति
- आवश्यक चूर्णि० पृ० १८१
सव्वजग जीवरक्खणदयट्टयाए पावयरणं भगवया सुकहियं ।
- त्रिषष्ठि० १।३।५३१
--- प्रश्नव्याकरण, सम्वरद्वार ।
--- उत्तराध्ययन, गा० १६ अ० २५
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तीर्थकर जीवन
११३
को दस प्रकार के धर्म का प्रवर्तक माना है ।१५ भागवतकार ने उनका अवतार ही मोक्षधर्म का उपदेश देने के लिए माना है ।१४६
भारतीय साहित्य में फाल्गुन कृष्णा एकादशी का दिन स्वर्णाक्षरों में उट्टङ्कित है जिस दिन सर्व प्रथम भगवान् का आध्यात्मिक प्रवचन भावुक भक्तों को श्रवण करने को प्राप्त हुना। १७७ भगवान् ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की गम्भीर मीमांसा करते हुए मानवजीवन के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए कहाजीवन का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है, राग नहीं, वैराग्य है, वासना नहीं साधना है। इस प्रकार भगवान् के अध्यात्म रस से छलछलाते हुए प्रवचन को श्रवण कर सम्राट भरत के पाँचसौ पुत्र व सातसौ पौत्रों ने तथा 'ब्राह्मी' आदि ने प्रव्रज्या ग्रहण की।७८
१७५. इह हि इक्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण दश प्रकारो धर्मः स्वयमेव चीर्णः ।
-ब्रह्माण्डपुराण १७६. तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
--भागवत ११।२।१६।पृ० ७११ १७७. फग्गुणबहुले इक्कारसीइ अह अट्ठमेण भत्तेण । उप्पन्न मि अणंते महव्वया पंच पन्नवए ।।
---आवश्यक नियुक्ति गा० ३४० (ख) तत्य समोसरणे भगवं सक्कादीणं धम्म परिकहेति ।
-आवश्यक चूर्णि, पृ० १८२ १७८. सह मरुदेवीइ निग्गओ, कहणं पव्वज्ज उसभसेणस्स ।
बंभीमरीइदिक्खा सुन्दरिओरोह सुअदिक्खा ।। पंच य पुत्तसयाइ भरहस्स य सत्त नतुअसयाई। सयराहं पव्वइआ तम्मि कुमारा समोसरणे ।।
-आवश्यक नि० गा० ३४४-३४५
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सम्राट् भरत आदि ने श्रावक व्रत ग्रहण किये और सुन्दरी ने भी ।१७९
महापुराणकार ने भरत के स्थान पर श्रावक का नाम 'श्र तकीति' दिया है और सुन्दरी के स्थान पर श्राविका का नाम "प्रियवता" दिया है । १८० पर श्वेताम्बर ग्रन्थों में ये नाम कहीं पर भी नहीं आये हैं। इस प्रकार श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की संस्थापना कर वे सर्वप्रथम तीर्थङ्कर बने ।
श्रमणों के लिए पाँच महावतों८१ का और गृहस्थों के लिए
(ख) तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो प्रत्तो सो धम्म सोऊण
पव्वइतो, तेण तिहि पुच्छाहिं चोद्दसपुवाइ गहिताई-उप्पन्ने विगते धुते, तत्थ बम्भीवि पन्वइया ।
--आवश्यक चूणि पृ० १८२ (ग) महापुराण पर्व० २४, श्लोक १७५, पृ० ५६१ १७६. (क) भरहो सावओ, सुन्दरीए ण दिन्नं पव्वइ, मम इत्थिरयणं एसत्ति, सा साविगा, एस चउविहो समणसंघो ।
-आवश्यक चूणि पृ० १८२ (ख) भरहो सावगो जाओ, सुन्दरी पव्वयन्ती भरहेण इत्थीरयरणं भविस्सइत्ति निरुद्धा साविया जाया, एस चउब्विहो समणसंघो ।
-आवश्यक मल वृ०प० २२६ १८०. श्रुतकीतिर्महाप्राज्ञो गृहीतोपासकव्रतः ।
देशसंयमिनामासीद्धौरेयो गृहमेधिनाम् ।। उपात्ताणुव्रता धीरा प्रयतात्मा प्रियव्रता । स्त्रीणां विशुद्धवृत्तीनां बभूवाग्रसरी सती ॥
–महापुराण जिनसेन २४११७७-१७८ पृ० ५९२ १८१. अहिंससच्चं च अतेणगं च,
ततो य बम्भं च अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंच महन्वयाई, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ ।।
----उत्तराध्ययन २११२२
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तीर्थङ्कर जीवन
द्वादश वृतों का निरूपण किया ।१८२ मर्यादित विरति अणुक्त और पूर्ण विरति महावत है ।१८३
भगवान् के प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए।८४ श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार वे सम्राट भरत के पुत्र थे८५ और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार वे भगवान् श्री ऋषभदेव के पुत्र थे।१८६ श्री समयसुन्दर जी
(ख) आवश्यक नियुक्ति गा० ३४० । १८२. देखिए उपासक दशांग में द्वादश व्रतों का निरूपण ।
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र में भी। १८३. एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति ।
-~-तत्त्वार्थ ७।२ भाष्य १८४. उस भस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खाओ चउरासीई समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । ।
-कल्पसूत्र, सू० १६७ पृ० ५८ पुण्य (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (ग) समवायाङ्ग १५७ गा० ३६-४१ (घ) त्रिषष्ठि० ११३ (ङ) तेप ऋषभसेनाद्याश्चतुरशीतिर्गणधराः स्थापिताः
-कल्पार्थबोधनी पृ० १५१ (च) कल्पसुबोधिका विनय० पृ० ५१२ १८५. तत्थ उसभसेणो नाम भरहपुत्तो पुन्वभवबद्धगणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पव्वइओ।
--आवश्यक मल० वृ०-पृ० २२६
१८६. योऽसौ पुरिमतालेशो भरतस्यानुजः कुती ।
प्राज्ञः शूरः शुचि/रो, धौरेयो मानशालिनाम् ।। श्रीमान् वृषभसेनाख्यः प्रज्ञापारमितो वशी। स सम्बुध्य गुरोः पाश्वें दीक्षित्वाभूद गणाधिपः ।।
-~-महापुराण २४११७१--१७२ पृ० ५६१
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११६
ऋषभदेव : एक परिशीलन
ने कल्पलता में और लक्ष्मीवल्लभ जी ने कल्पद्र म कलिका८८ में ऋषभसेन के स्थान पर पुण्डरीक नाम दिया है किन्तु जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायाङ्ग, कल्पसूत्र, अावश्यक मलयगिरीय वृत्ति, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र प्रभृति ग्रन्थों में प्रथम गणधर का नाम पुण्डरीक नहीं, ऋषभसेन ही दिया है। १८९ यहाँ तक कि समयसुन्दर जी व लक्ष्मीवल्लभ जी ने भी कल्पसूत्र के मूल में ऋषभसेन नाम ही रक्खा है। हमारी दृष्टि से भगवान् श्री ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे उनमें से एक गणधर का नाम पूण्डरीक था, जो भगवान् के परिनिर्वाण के पश्चात् भी संघ का कुशल नेतृत्व करते रहे थे । सम्भव है इसी कारण समयसुन्दर जी व लक्ष्मीवल्लभ जी को भ्रम हो गया और उन्होंने टीकाओं में ऋषभसेन के स्थान पर पुण्डरीक नाम दिया, जो अनागमिक है । उत्तराधिकारी
हाँ, तो प्रथम गणधर ऋषभसेन को ही भगवान् ने आत्मविद्या का परिज्ञान कराया। वैदिक परम्परा से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आत्म-विद्या क्षत्रियों के अधीन रही है। पुराणों की दृष्टि से भी क्षत्रियों के पूर्वज भगवान् श्री ऋषभदेव ही हैं । १९०
१८७. तेषां मध्यात् पुण्डरीकादयः चतुरशीतिगणधरा जाताः
-कल्पलता-पृ० २०७ १८८. तत्र पुण्डरीकः प्रथमो गणभृत् स्थापितः
--कल्पद्रु म कलिका पृ० १५१ १८६. देखिए १८४ नं० का टिप्पग १६०. ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्व-क्षत्रस्य पूर्वजम् । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र-शताग्रजः ।।
-ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्वार्ध छनुषंगपाद अध्या० १४ श्लो० ६० (ख) नाभिस्त्वजनयत्पुत्रं मरुदेव्यां महाद्य तिः। ऋषभं पार्थिव-श्रोष्ठं सर्व-क्षत्रस्य पूर्वजम् ।।
-वायुमहापुराण, पूर्वार्ध अध्या० ३३, श्लो० ५०
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तीर्थंकर जीवन
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वे मोक्षमार्ग के प्रवर्तक अवतार हैं । १११ जैन साहित्य में जिस ऋषभसेन को ज्येष्ठ गणधर कहा है, सम्भव है, वैदिक साहित्य में उसे ही मानसपुत्र और ज्येष्ठपुत्र अथर्वन कहा हो। उन्हें ही भगवान् ने समस्त विद्याओं में प्रधान ब्रह्मविद्या देकर लोक में अपना उत्तराधिकारी बनाया है । १९२
आद्य परिव्राजक : मरोचि
भगवान् के केवल ज्ञान की तथा तीर्थ प्रवर्तन की सूचना प्राप्त होते ही, भगवान् के साथ जिन चार सहस्र व्यक्तियों ने प्रवृज्या ग्रहण की थी और जो क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर तापस आदि हो गये थे, उन तापसों में से कच्छ महाकच्छ को छोड़कर सभी भगवान् के पास आते हैं और ग्रार्हती प्रवज्या ग्रहण करते हैं । १९३
१९१. तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया । अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥
- श्रीमद्भागवत ११।२।१६ गीता प्रेस० गो० प्र० संस्करण १६२. ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता मुवनस्य गोप्ता । ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ।
- मुण्डकोपनिषद् १|१
(ख) स्वर्तितनयाय गातं विदद ।
- ऋग्वेद १, ६६, ४ कच्छसुकच्छवज्जा भगवओ
सगासमागतूण भवणवतिवाणमंतर जोइसियवे माणियदेवाप्गिणं परिसं aण भगवओ सगासे पव्वइया ।
- आव०मि० मल० वृ० पृ० २३०।१
१६३. ते य तापसा भगवओ नाणमुप्पणं ति
(ख) ते च कच्छमहाकच्छवर्ज राजन्यतापसाः । आगत्य स्वामिनः पार्श्व, दीक्षामाददिरे मुदा ||
त्रिषष्टि १।३।६५४ पृ० ८६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
श्रावश्यक नियुक्ति, १९४ ग्रावश्यक चूरिण, आवश्यक मलयगिरीय ९६ त्रिषष्ठिशलाका पुरुष
११८
१९५
वृत्ति, ' आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति चरित्र, १९७
१९८
कल्पलता, * कल्पद्र ुम कलिका, १९९ महावीरचरिया" प्रभृति
श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर सम्राट् भरत का पुत्र मरीचि भगवान् ऋषभदेव के पास दीक्षित होता
(ग) येऽपि च तापसाः कच्छमहाकच्छविवर्जिताः
तेऽपि प्रपेदिरे दीक्षां समेत्य
१६८.
१९४. दट्टण कीरमाणि महिमं देवेह खत्तिओ मरिई । सम्मत्तलद्धबुद्धी धम्मं सोऊण पव्वइओ ||
१६६.
1
स्वामिनोऽन्तिके ||
१६५. एत्थ समोसरणे मरिचिमाइया बहवे कुमारा पव्त्रइया,
- कल्पार्थ- बोधिनी पृ० १५१
१६६. आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति १६७. आद्य समवसरणे ॠषभस्वामिनः प्रभो । पितृभ्रात्रादिभिः सार्धं मरीचिः क्षत्रियो ययौ | महिमानं प्रभोःप्रेक्ष्य क्रियमाणं स नाकिभिः । धर्म चाकर्ण्य सम्यक्त्वल धधीव्रं तमाददे ||
- आव० नि० गा० ३४७
२००० पियामहस्स पासे पव्वइओत्ति ।
- आवश्यक मल० वृ० पृ० २३०।१
तत्र भरतस्य मरीचिप्रमुखाः पञ्चशतपुत्राः सप्तशत पौत्राश्च प्रतिबुद्धा: दीक्षां जगृहु: ।
- त्रिपष्ठि० १०।१।२२-२३
-कल्पलता -
- पृ० २०७ तत्र प्रथम देशनायां धर्मं श्रुत्वा पञ्चशतं भरतस्य पुत्राः सप्तशतं भरतस्य पौत्राः प्रतिवोधं प्रापुः, द्वादशशतकुमारैर्दीक्षा गृहीता' द्वादशशतकुमारेषु मरीचिरपि दीक्षित आसीत् ।
- कल्पद्र ुम कलिका - पृ० १५१
- महावीर चरियं, गुणचन्द्राचार्य पत्र ११
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तीर्थंङ्कर जीवन
है, तप संयम की विशुद्ध प्राराधना- साधना करता हुआ २१ एकादश ङ्गों का अध्ययन करता है । २३ पर एक बार वह भीष्म - ग्रीष्म के प्रातप से प्रताड़ित होकर साधना के कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग से विचलित हो जाता है । २०३ उसके अन्तर्मानस में ये विचार - लहरियाँ तरंगित होती हैं कि मेरुपर्वत सदृश यह संयम का महान् भार मैं एक मुहूर्त भी सहन करने में असमर्थ हूँ । २१४ क्या मुझे पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करना चाहिए ? नहीं, कदापि नहीं । और मैं संयम का भी विशुद्धता से पालन नहीं कर पाता, अतः मुझे नवीन वेषभूषा का निर्माण करना चाहिए । २०५
श्रमण संस्कृति के श्रमण त्रिदण्ड- मन वचन काय के अशुभ व्यापारों से रहित होते हैं, इन्द्रियविजेता होते हैं, पर तो मैं त्रिदण्ड से युक्त हूँ, और अजितेन्द्रिय हूँ, अतः इसके प्रतीक रूप त्रिदण्ड को धारण करूँगा ।
२०६
२०१. मरिईवि सामिपासे विहरइ तवसंजमसमग्गो ।
२०२. सामाइअमाई
इक्कारसमा उ जाव अंगाओ ।
उज्जुतो भत्तिगओ अहिज्जिओ सो गुरुसगासे ||
- आवश्यक भाष्य, गा० ३६
२०३. अह अन्नया कयाइ गिम्हे उण्हेण परिगयसरीरो । अहाणपण चइओ इमं कुलिंगं विचितेइ ॥
११६
-आवश्यक भाष्य० गा० ३७
- आव० नि० गा० ३५० मल० वृ० प० २३३।१ २०४. मेरुगिरीसमभारे न हुवि समत्यो मुहुत्तमवि वोढुं । सामन्नए गुणे गुणरहिओ संसारमरणुकखी ॥
- आव० नि० गा० ३५१ म० वृ० २३३।१
२०५ एवमरणुचितयंतस्स तस्स निअगा मई समुप्पन्ना । लो मए उवाओ जाया मे सासया बुद्धी ॥
२०६. समणा तिदंडविरया भगवंतो निहुअसंकु अगा । अजिs दिअदंडस्स उ होउ तिदंड महं चिधं ॥
- आव० नि० गा० ३५२
- आव० नि० गा० ३५३ मल० प० २३३
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
श्रमण द्रव्य और भाव से मुण्डित होते हैं, सर्व प्राणातिपातविरमरण महाव्रत के धारक होते हैं, पर मैं शिखासहित क्षुरमुण्डन कराऊँगा और स्थूलप्रारणातिपात का विरमरण करूँगा । २०७
१२०
श्रमण अकिंचन तथा शील की सौरभ से सुरभित होते हैं, पर मैं परिग्रहधारी रहूँगा और शील की सौरभ के प्रभाव में चन्दनादि की सुगन्ध से सुगन्धित रहूँगा ।२०८
श्रम निर्मोह होते हैं, पर मैं मोह ममता के मरुस्थल में घूम रहा हूँ, उसके प्रतीक के रूप में छत्र धारण करूंगा । श्रमरण नंगे पैर होते हैं, पर में उपानद् पहनू गा । २०९
श्रमण जो स्थविर कल्पी हैं वे श्वेतवस्त्र के धारक हैं और जिनकल्पी निर्वस्त्र होते हैं, पर मैं कषाय से कलुषित हैं, अतः काषाय वस्त्र धारण करूँगा । २१०
( ख ) त्रिषष्ठि० १|६ । १५ ५० १५०
२०७. लोइ दियमुंडा संजया उ अहय खुरेण ससिहो अ । वेरमणं मे सया होउ ||
थूलगपाणिवहाओ,
- आव० नि० गा० ३५४ म० वृ० २३३॥ शिरः केशलुञ्चनेन्द्रियनिर्जयैः ।
( ख ) अमी मुण्डाः अहं पुनर्भविष्यामि क्षुरमुण्डशिखाधरः ||
त्रिषष्टि० १।६।१६। प० १५० २०८. निक्किचणा य समणा अकिंचणा मज्झ किंचरण होउ । सील सुगंधा समणा अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥
- आव० नियुक्ति० गा० ३५५
( ख ) त्रिषष्ठि ० १ | ६।१६।१५०११
२०६. ववगयमोहा समणा मोहाच्छन्नस्स छत्तयं होउ ।
अरणुवाणहा य समणा मज्भं तु उवाहणे हुतु || -आव० नियुक्ति० गा० ३५६
( ख ) त्रिषष्ठि ० १ | ६ |२०११५०।१
२१०. सुक्कंबरा य समणा निरंबरा मज्झ धाउरत्ताइ । हृतु इमे वत्थाई, अरिहो मि कसायकलुसमई ॥
- आवश्यक नियुक्ति० गा० ३५७
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तीर्थङ्कर जीवन
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श्रमरण पापभीरु और जीवों की घात करने वाले आरंभादि से मुक्त होते हैं । वे सचित्त जल का प्रयोग नहीं करते हैं । पर मैं वैसा नहीं हूँ, अतः स्नान तथा पीने के लिए परिमित जल ग्रहरण करूँगा । २११
इस प्रकार उसने अपनी कल्पना से परिकल्पित परिवाजकपरिधान का निर्माण किया २ १२ और भगवान् के साथ ही ग्राम नगर आदि में विचरने लगा । १३ भगवान् के श्रमणों से मरीचि की पृथक् वेशभूषा को निहारकर जन-जन के अन्तर्मानस में कुतूहल उत्पन्न होता | लोग जिज्ञासु बनकर उसके पास पहुँचते । २१४ मरीचि अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा की तेजस्विता से प्रतिबोध देकर उन्हें भगवान् के शिष्य
२१५
बनाता
एक समय सम्राट् भरत ने भगवान् श्री ऋषभदेव के समक्ष
( ख ) त्रिषष्ठि ० १ १६ । २१ । १५०।१ २११. वज्जंतऽवज्जभीरू, बहुजीवसमाउ होउ मम परिमिएरणं, जलेण पहाणं
च
जलारंभं । पिअरणं च ।।
- आवश्यक नि० गा० ३५८
( ख ) त्रिषष्टि० १ | ६।२२।१५०।१ । २१२. एवं सो रुइयमई निअगमइविगप्पित्रं इमं
लिंगं ।
- आव० नि० गा० ३५६
(ख) स्वबुद्धया कल्पयित्वैवं मरीचिलिङ्गमात्मनः ।
- त्रिषष्ठि १।६।२३ । १५१।१
२१३. गामनगरागराई, विहरइ सो सामिणा सद्धि ।
- आवश्यक नियुक्ति ३६० १० २३४
२१४. अह तं पागडरूवं दट्टु पुच्छेइ बहुजणो धम्मं । कहइ जईगं तो सो विआलणे तस्स परिकहणा ||
- आवश्यक नियुक्ति गा० ३८८
२१५. धम्महाअक्खित्त उवट्ठिए देइ भगवओ सीसे ।
- आवश्यक नियुक्ति ३६०
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१२२
ऋषभदेव : एक परिशीलन
जिज्ञासा प्रस्तुत की — कि प्रभो ! क्या इस परिषद् में ऐसा कोई व्यक्ति है जो आपके सदृश ही भरत क्षेत्र में तीर्थंकर बनेगा ? २१६ जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने कहा- स्वाध्याय ध्यान से आत्मा को ध्याता हुया तुम्हारा पुत्र मरीचि परिब्राजक " वीर" नामक अन्तिम तीर्थङ्कर बनेगा । उससे पूर्व वह पोतनपुर का अधिपति त्रिपृष्ठ वासुदेव होगा, तथा विदेह क्षेत्र की मूका नगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा। इस प्रकार तीन विशिष्ट उपाधियों को वह अकेला ही प्राप्त करेगा । २१७
२१६. पुणरवि अ समोसरणे, पुच्छीअ जिरणं तु चक्किणो भरहे । अप्पुट्ठो असारे तित्थयरो को इहं भरहे ? ॥
२१७.
- आवश्यक नियुक्ति० गा० ३६७ ( ख ) अह भणइ नरवरिदो ताय ! इमीसित्तिआइ परिसाए । अन्नोऽवि कोऽवि होही भरहे वासम्मि तित्थयरो ?
- आवश्यक मूलभाष्य गा० ४४ मल० वृ० पृ० २४३ ( ग ) भगवं ! किमेत्थ कोऽवि हु पाविस्सइ तित्थयरलाभं ? - महावीर चरियं, गुणचन्द्र, गा० १२४ प्र० २०१८ तत्थ मरीई नामा आइपरिव्वायगो उसभनत्ता । सज्झायज्झाणजुओ एगंते भायइ महप्पा ॥ तं दाइ जिणिन्दो एव नरिंदेण पुच्छिओ सन्तो । धम्मवरचक्कवट्टी अपच्छिमो वीरनामुत्ति ॥ तथा—आइगरु दसाराणं तिविट्टु नामेण पोअणाहिवई । पियमित्तचक्कवट्टी मुआइ विदेहवासम्म ||
- आवश्यक नि० गा० ४२२ से ४२४ प० २४४ (ख) ताहे कलियकुलिंगं मिरिइ एगंतसंठियं भयवं । दाव जह एस जिणो चरिमो होही तुह सुओत्ति ।। एसोच्चि गामागरनगरसमिद्धस्स भारहद्धस्स । सामी तिविठुनामो पढमो तह वासुदेवारणं ॥ एसो महाविदेहे पियमित्तो नाम चक्कवट्टीवि । परमरिद्धिजुओं ।
मूयाए नयरीए भविस्सई
- महावीर चरियं, गा० १२६ से १२८ १० १८ ।१
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तीर्थङ्कर जीवन
१२३
भगवान् श्री ऋषवदेव की भविष्य वारणो को श्रवण कर सम्राट भरत भगवान् को वन्दन कर मरीचि परिवाजक के पास पहुँचे, और भगवान् की भविष्यवाणी को सुनाते हुए उससे कहा--अयि मरीचि परिव्राजक ! तुम अन्तिम तीर्थङ्कर वनोगे, अतः मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ।२१८ तुम वासुदेव व चक्रवर्ती भी बनोगे।"
यह सुनकर मरीचि के हत्तत्री के तार झनझना उठे-मैं वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थङ्कर बनूंगा ।२१९ मेरे पिता चक्रवर्ती हैं, मेरे पितामह तीर्थङ्कर हैं और मैं अकेला ही तीन पदवियों को धारण करूँगा !२२° मेरा कुल कितना उत्तम है !
एक दिन मरीचि का स्वास्थ्य बिगड़ गया। सेवा करने वाले के अभाव में मरीचि के मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि मैंने अनेकों को उपदेश देकर भगवान् के शिष्य बनाये, पर आज मैं स्वयं सेवा करने वाले से वंचित हैं। अब स्वस्थ होने पर मैं स्वयं अपना शिष्य
(ग) त्रिषष्ठि ११६।३७२ से ३७८ पृ० १६२ । २१८. नावि अ ते पारिवज्जं वंदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ॥
-आव० नि० गा० ४२८ प० २४४ (ख) महावीर चरियं गा० १२६ से १३६ प० १६ । २१६. जइ वासुदेव पढमो मूआइ विदेह चक्कवट्टित्तं । चरिमो तित्थयराणं होउ अलं इत्तियं मम ।।
-आव०नि० गा० ४३१ प० २४५ २२०. अहयं च दसाराणं पिया मे चक्कवट्टिवंसस्स । अज्जो तित्थयराणं अहो कुलं उत्तम मज्झ ।।
-आव० नि० गा० ४३२।२४५ (ख) यद्याद्यो वासुदेवानां विदेहेषु च चक्रभृत् ।
अन्त्योऽर्हन् भवितास्मीति पूर्णमेतावता मम ॥ पितामहोऽहतामाद्यश्चक्रिणां च पिता मम । दशार्हाणामहं चेति श्रेष्ठं कुलमहो मम ।।
—त्रिषष्ठि० १।६।३८६-३८७
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
बनाऊँगा । २२१ वह स्वस्थ हुया । कपिल राजकुमार धर्म की जिज्ञासा से उसके पास आया। उसने ग्रार्हती दीक्षा की प्रेरणा दी। कपिल ने प्रश्न किया "आप स्वयं प्रति धर्म का पालन क्यों नहीं करते ?" उत्तर में मरीचि ने कहा - " मैं उसे पालन करने में समर्थ नहीं हूँ ।" कपिल ने पुनः प्रश्न किया -- क्या आप जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं उसमें धर्म नहीं है ?” इस प्रश्न ने मरीचि के मानस में तूफान पैदा कर दिया और उसने कहा - " यहाँ पर भी वही है जो जिन धर्म में है । २२२ कपिल उसी का शिष्य बना ।
१२४
अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः साधवोऽप्यसंयतत्त्वान्न प्रतिजाग्रति । स चिन्तयति-निष्ठितार्थाः खल्वेते, नासंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतान् कारयितुं युज्यते, तस्मात्कंचन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति । - आव० मल० वृ० प० २४७।१
(ख) त्रिषष्ठि १/६/२६-३२ पृ० १५० । (ग) महावीर चरियं, गुण० ६।२६-३२
·
२२२. अपगतरोगस्य च कपिलो नाम राजपुत्रो धर्म्मशुश्रूषया तदन्तिकमागत इति कथिते साधुध स आह— यद्ययं मार्गः किमिति भवर्ततदङ्गीकृतं ? मरीचिराह - पापोऽहं " लोए इंदिये" त्यादि विभाषा पूर्ववत्, कपिलोऽपि कर्मोदयात् साधुधर्म्मानभिमुखः खल्वाहतथापि किं भवद्दर्शने नास्त्येव धर्म इति ? मरीचिरपि प्रचुरकर्म्मा खल्वयं न तीर्थकरोक्तं प्रतिपद्यते, वरं मे सहायः संवृत्त इति सञ्चिन्त्याह--' कपिला एत्थं पि' त्ति.... 1
-- आवश्यक नियुक्ति मलय० वृ० प० २४७ । १ (ख) मरीचिमाययौ भूयः स इत्यूचे च किं तव ? योऽपि सोऽपि न धर्मोऽस्ति, निर्धर्म किं व्रतं भवेत् ?
- त्रिषष्ठि० १|६|४८
२२१.
(ग) कविलेण वृत्तं - भयवं ! तुम्ह संतिए एत्थ तहावि अत्थि कि पि णिज्जराठाणं न वा ! मिरिइणा भणिय - भद्द ! समणधम्मे ताव अस्थि, इहावि मणागं ति ।
- महावीर चरियं० गुण० १० २२
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तीर्थङ्कर जीवन
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दिगम्बराचार्य जिनसेन और प्राचार्य सकलकीति के मन्तव्यानुसार जिन चार सहस्र राजानों ने भगवान के साथ दीक्षा ग्रहण की थी, उनके साथ ही मरीचि ने भी दीक्षा ली थी।२२3 और वह भी उन राजाओं के समान ही क्ष धा-पिपासा से व्याकुल होकर परिवाजक हो गया था ।२२४ मरीचि के अतिरिक्त सभी परिवाजकों के आराध्यदेव श्री ऋषभदेव ही थे ।२२५ भगवान् को केवल ज्ञान होने पर मरीचि को को छोड़कर अन्य सभी भ्रष्ट बने हुए साधक तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझकर पुनः दीक्षित बने ।२२६
जैन साहित्य की दृष्टि से मरीचि 'अादि परिवाजक' था।२२७
(घ) गेलन्नेऽपडियरणं कविला ! इत्थंपि इहयंपि ।
-आवश्यक नि० गा० ४३७ २२३. (क) स्वपितामहसन्त्यागे स्वयञ्च गुरुभक्तितः । राजभिः सह कच्छाद्यः परित्यक्तपरिग्रहः ।।
-उत्तरपुराण, श्लो० ७२ स० ५४, पृ० ४४६ (ख) महावीर पुराण-आचार्य सकल कीर्ति पृ० ६ । २२४. मरीचिश्च गुरोर्नप्ता, परिवाड्भूयमास्थितः । मिथ्या ववृद्धिमकरोद् अपसिद्धान्तभाषितैः ।।
-महापुराण जिन० ५० १८, श्लो० ६१ पृ० ४०३ २२५. न देवतान्तरं तेषाम् आसीन्मुक्त्वा स्वयंभुवम् ।
-महा० जिन० १८६०।४०२ २२६. मरीचिवाः सर्वे पि तापसास्तपसि स्थिताः । भट्टारकान्ते सम्बुद्ध य महाप्रावाज्यमास्थिताः ।।
-महापुराण जिन० २४।१८२।५६२ २२७. शशंस भगवानेवं, य एष तव नन्दनः । मरीचिर्नामधेयेन परिव्राजक आदिमः ।।
-त्रिषष्ठि० १।६।३७३ (ख) अदीक्षयत् स कपिलं, स्वसहायं चकार च । परिव्राजकपाखण्डं, ततः प्रभृति चाऽभवत् ।।
-त्रिषष्ठि० १।६।५२
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
कपिल जैसे शिष्य को प्राप्तकर उसका उत्साह बढ़ गया। उसने तथा उसके शिष्य कपिल ने योगशास्त्र और सांख्य शास्त्र का प्रवर्तन किया ।२२८
मरीचि और कपिल का वर्णन जैसा जैन साहित्य में उदृङ्कित है वैसा भागवत आदि वैदिक साहित्य में नहीं। जहाँ जैन साहित्य में मरीचि को भरत का पुत्र माना है वहाँ भागवतकार ने भरत की वंश परम्परा का वर्णन करते हुए उसे अनेक पीढ़ियों के पश्चात् "सम्राट" का पुत्र बताया है तथा उसकी माँ का नाम "उत्कला' दिया है ।२२९
जैन साहित्य में कपिल को राजपुत्र बताया है और वैदिक साहित्य में उसे कर्दम ऋषि का पुत्र बताया है। साथ ही उन्हें विष्णु का पाँचवाँ अवतार भी माना है ।२३०
जब कपिल कर्दम ऋषि के यहाँ जन्म ग्रहण करता है तब ब्रह्मा जी मरीचि आदि मुनियों के साथ कर्दम के आश्रम में
२२८. (क) स प्राग्जन्मावधेत्विा , मोहादभ्येत्य भूतले ।
स्वयं कृतं सांख्यमतमासूर्यादीनबोधयत् ।। तदाम्नायादत्र सांख्यं प्रावर्तत च दर्शनम् । सुखसाध्ये ह्यनुष्ठाने प्रायो लोकः प्रवर्तते ।।
त्रिषष्ठि० १०।१।७३-७४ (ख) तदुपज्ञमभूद् योगशास्त्रं तन्त्रं च कापिलम् । येनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ।।
-महापुराण १८।६२४०३ २२६. ततः उत्कलायां मरीचिमरीचेविन्दु........।।
-भागवत ५।१५।१५।६०६ २३०. पंचमः कपिलो नाम सिद्ध शः काल विप्लुतम् । प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ।।
-भागवत स्कन्ध १, अं० अ० श्लो० १० पृ० ५६
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तीर्थकर जीवन
पहुँचते है २३१ और यह प्रेरणा देते हैं कि वे अपनी कन्याएँ मरीचि आदि मुनियों को समर्पित करें ।२३२ ब्रह्मा की प्रेरणा से कर्दम ऋषि ने 'कला' नामक कन्या का मरीचि के साथ पाणिग्रहण करवाया।२33 इस प्रकार स्पष्ट है कि मरीचि कपिल के बहनोई थे। पर प्रश्न है कि भागवतकार ने एक ओर ऋषभ को आठवाँ अवतार माना है और कपिल को पाँचवाँ और कपिल तथा मरीचि का समय एक ही बताया गया है। श्रीमद्भागवत की दृष्टि से मरीचि भरत की अनेक पीढ़ियों के बाद आते हैं तो पूर्व में होने वाले को पाठवाँ अवतार और पश्चात् होने वाले को पाँचवाँ अवतार कैसे माना गया?
हमारी दृष्टि से भागवत में अवतारों का जो निरूपण किया गया है, वह न क्रमबद्ध है और न संगत ही है।
जैन-साहित्य में मरीचि परिवाजक के प्राचारशैथिल्य का वर्णन तो है, पर भागवत की तरह उनके विवाह का उल्लेख नहीं है।
वैदिक साहित्य के परिशीलन से यह भी ज्ञात होता है कि मरीचि श्री ऋषभ के अनुयायी थे। ऋग्वेद:3४ में काश्यपगोत्री
२३१. तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम् । स्वयम्भूः साकमृषिभिर्मरीच्यादिभिरभ्ययात् ।।
श्रीमद्भागवत स्कंध ३, अ० २४, श्लो० ६ पृ० ३१५ २३२. अतस्त्वमृषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारुचि । आत्मजाः परिदेह्यद्य विस्तृणीहि यशो भुवि ।।
-भागवत ३१२४।१५।३१६ २३३. गते शतधृती क्षत्तः कर्दमस्तेन चोदितः ।
यथोदितं स्वहितः प्रादाद्विश्वसृजां ततः ।। मरीचये कलां प्रादादनसूयामथात्रये । श्रद्धामङ्गिरसेऽयच्छत्पुलस्त्याय हविभुवम् ।।
-भागवत ३।२४।२१-२२।३१७ २३४. ऋग्वेद १६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
मरीचिपुत्र ने अग्निदेव के प्रतीक के रूप में जो ऋषभदेव की स्तुति की है वह हमारे मन्तव्यानुसार वही मरीचि हैं जिनका प्रस्तुत इतिवृत्त से सम्बन्ध है। सुन्दरी का संयम - भगवान् श्री ऋषभ के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर ही सुन्दरी संयम ग्रहण करना चाहती थी। उसने यह भव्य-भावना अभिव्यक्त भी की थी किन्तु सम्राट भरत के द्वारा प्राज्ञा प्राप्त न होने से वह श्राविका बनी ।२३० परन्तु उसके अन्तर्मानस में वैराग्य का पयोधि उछालें मार रहा था, वह तन से गृहस्थाश्रम में थी किन्तु उसका मन संयम में रम रहा था। षट् खण्ड पर विजय वैजयन्ती फहराकर
और सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक अखण्ड शासन प्रदान कर जब सम्राट् भरत दीर्घकाल के पश्चात् “विनीता" लौटे तब सुन्दरी के कृश तनु को देखकर वे चकित रह गये ।२३१
२३५. सुन्दरी पव्वयंती भरहेण इत्थीरयणं भविस्सइत्ति निरुद्धा साविया
जाया।
-आवश्यक मलयगिराय वृत्ति, पृ० २२६ (ख) विमुक्ता बाहुबलिना, जिघृक्षुः सुन्दरी व्रतम् । भरतेन निषिद्धा तु, श्राविका प्रथमाऽभवत् ।।
-त्रिषष्ठि० ५० १। स० ३। ५० ६५१ (ग) कल्प सुबोधिका टीका पृ० ५१२, सारा० न० । (घ) कल्पलता-समय सुन्दर पृ० २०७ । (ङ) कल्पद्र म कलिका पृ० १५१ । एवं जाहे बारस वरिसाणि महारायाभिसेगो वत्तो, रायाणो विसज्जिता ताहे णियगवग्गं सारिउमारद्धो, ताहे दाइज्जति सब्वे णियलग्गा एवं पडिवाडिए सुन्दरी दाइता, सा पंडुल्लुइतमुही, सा य जद्दिवसं रुद्धा चेव तद्दिवसमारद्धा चेव आयंबिलाणि करेति, तं पासित्ता रुट्ठो ते कोडुबिये भणति........ ।
-आवश्यक चूणि, पृ० २०६
२३६.
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तीर्थंकर जीवन
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अनुचरों को फटकारते हुए उन्होंने कहा- ज्ञात होता है कि मेरे जाने के पश्चात् तुम लोगों ने सुन्दरी की कोई सुध-बुध नहीं ली है । क्या मेरे भोजनालय में भोजन की कमी है, क्या वैद्य और औषधियों का अभाव है ?२३७
अनुचरों ने नम्र निवेदन करते हुए कहा - नाथ ! न भोजन की कमी है और न चिकित्सकों का ही प्रभाव है, किन्तु जिस दिन से आपने सुन्दरी को संयम लेने का निषेध किया उसी दिन से ये निरन्तर चालव्रत कर रही हैं । हमारे द्वारा अनेक बार अभ्यर्थना करने पर भी ये प्रतिज्ञा से विचलित नहीं हुई हैं | 234
( ख ) षष्टि वर्षसहस्राणि विरहाद् दर्शनोत्सुकान् । अदर्शयन् निजान् राज्ञो नियुक्तपुरुषास्ततः ॥ ततः कृशां ग्रीष्मकालाक्रान्तामिव तरङ्गिणीम् । म्लानां हिमानी सम्पर्कवशादिव सरोजिनीम् ॥ प्रनष्टरूपलावण्यां, मन्दुकलामिव । पाण्डुक्षामकपोलां च रम्भां शुष्कदलामिव ।। सोदरां बाहुबलिनः सुन्दरीं गुणसुन्दरः । नामग्राहं स्वपुरुषैर्दश्र्श्यमानां ददर्श सः ।। तथाविधां च सम्प्रेक्ष्य तां परावर्तितामिव । सकोपमवनीपालः, स्वायुक्तानित्यवोचत |
- त्रिषष्ठि १।४।७३० से ७३४
(ग) भारहं वासं अभिजिणिऊण अतिगओ विणीयं रायहाणिति, एवं परिवाडीए सुन्दरी दाइया, सा पण्डुल्लुगितमुही जाया । - आवश्यक मलयगिरीय पृ० २३१ । १
२३७. किं मम णत्थि जं एसा एरिसी रूवेणं जाता ? वेज्जा वा नत्थि ? आवश्यक चूर्णि, पृ० २०६
२३८. किन्तु देवो यदाद्यगाद, दिग्जयाय तदाद्यसौ । आचामाभ्लानि कुरुते, प्राणत्राणाय केवलम् ॥
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सम्राट भरत ने सुन्दरी से पूछा-सुन्दरी तुम संयम लेना चाहती हो या गृहस्थाश्रम में रहना चाहती हो ? सुन्दरी ने संयम की भावना अभिव्यक्त की। सम्राट् भरत की आज्ञा से सुन्दरी ने श्री ऋषभदेव की आज्ञानुवर्तिनी ब्राह्मी के पास दीक्षा ली ।२७९ प्रस्तुत प्रसंग पर सहज ही ऋग्वेद के यमी सूक्त की स्मृति हो पाती है। भाई यम से भगिनी यमी ने वरण करने की अभ्यर्थना की, पर भ्राता यम भगिनी की बात को स्वीकारता नहीं है । जबकि यहाँ भ्राता की अभ्यर्थना बहन ठुकराती है।+
प्राचार्य जिनसेन के अभिमतानुसार सुन्दरी ने प्रथम-प्रवचन को श्रवण कर ब्राह्मी के साथ ही दीक्षा ग्रहण की थी ।२४० अठानवें भ्राताओं को दीक्षा
यह बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों को पृथक्पृथक् राज्य देकर श्रमरण बने थे। सम्राट् भरत चक्रवर्ती बनना चाहते
तथा यदेव देवेन, प्रव्रजन्ती न्यषिध्यत । ततः प्रभृत्यसौ तस्थौ, भावतः संयतैव हि ॥
-त्रिषष्ठि ११४१७४५-७४६ (ख) तेहि सिट्ठ-जहा आयंबिलेण पारेति, ताहे तस्स पयगुरागो जाओ।
-आवश्यक चूर्णि, पृ० २०६ २३६. भणति-जदि तातं भजसि तो वच्चतु पव्वयतु, अह भोगट्टी तो अच्छतु, ताहे पादेसु पडिता, विसज्जिया, पव्वइया ।
-आवश्यकचूणि पृ० २०६ (ख) सा य भणिया जइ रुच्चति तो मए समं भोगे भुजाहि; ण वि तो पव्वयाहित्ति । ताहे पाएसु पडिया विसज्जिया पव्वइया।
-आवश्यक सूत्र मल० वृत्ति पृ० २३१११ + दर्शन अने चिन्तनः भ० ऋषभदेव अने तेमनो परिवार
- पृ० २३६-२३७ पं० सुखलालजी २४०. सुन्दरी चात्रनिदा तां ब्राह्मीमन्वदीक्षित ।
-- महापुराण पर्व २४. श्लो० १७७, पृ० ५६२
"
।
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तीर्थङ्कर जीवन
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थे, अतः षट्खण्ड को तो उन्होंने जीत लिया था, पर अभी तक अपने भ्राताओं को अपना आज्ञानुवर्ती नहीं बना पाये थे; एतदर्थ अपने लघु भ्राताओं को अपने अधीन करने के लिए उन्होंने दूत प्रेषित किये ।२४१ अठानवें भ्राताओं ने मिलकर इस विषय में परस्पर परामर्श किया, परन्तु वे निर्णय पर नहीं पहुँच सके ।२४२ उस समय भगवान् श्री ऋषभदेव अष्टापद पर्वत पर विचर रहे थे। वे सभी भगवान् के पास पहुंचे ।२४३ स्थिति का परिचय कराते हुए नम्र निवेदन किया-प्रभो !
२४१. अन्नया भरहो तेसिं भातुगाणं पत्थवेति, जहा ममं रज्जं आयाणह;
-आवश्यकचूणि, पृ० २०६ (ख) अन्नया भरहो तेसि भाउयाणं दूयं पट्टवेइ, जहा-मम रज्जं आयाणह;
-आवश्यक मल०, २३१।१ (ग) प्राहिणोत्स निसृष्टार्थान् दूताननुजसन्निधिम् ।
-महापुराण जिन० ३४।८६।१५६ २४२. ते भणंति-अम्हवि रज्जं ताएण दिण्णं, तुज्झवि, एतु ताव ताओ पुच्छिज्जिहिति, जं भणिहिति तं करीहामो,
-आवश्यक मल वृत्ति० पृ० २३१।१ (ख) ते भणंति-अम्हवि रज्जं ताएहि दिन्न तुज्झवि, एतु ता तातो ताहे पुच्छिज्जिहित्ति, जं भणिहीत्ति तं काहामो ।
-आवश्यकचूणि, पृ० २०६ प्रत्यक्षो गुरुरस्माकं प्रतपत्येष विश्वहक । स नः प्रमाणमैश्वर्यं तद्वितीर्णमिदं हि नः ।। तदत्र गुरुपादाज्ञा तन्त्रा न स्वैरिणो वयम् । न देयं भरतेशेन नादेयमिह किञ्चन ।।
३४।६३-६४/१५९ २४३. आवश्यक चूणि पृ० २०६ । (ख) तेणं समएणं भयवं अट्ठावयमागओ विहरमाणो तत्थ सब्वे समोसरिया कुमारा।
-आवश्यक मल० वृत्ति, पृ० २३१।१
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
आपके द्वारा प्रदत्त राज्य पर भाई भरत ललचा रहा है। वह हम से राज्य छीनना चाहता है ।२४४ क्या बिना युद्ध किये हम उसे राज्य दे देवें? यदि हम देते हैं तो उसकी साम्राज्य लिप्सा बढ़ जायेगी और हम पराधीनता के पंक में डूब जायेंगे । भगवन् ! क्या निवेदन करें? भरतेश्वर को स्वयं के राज्य से सन्तोष नहीं हुआ तो उसने अन्य राज्यों को अपने अधीन किया किन्तु उसकी तृष्णा वडवाग्नि की तरह शान्त नहीं हो रही है। वह हमें आह्वान करता है कि या तो तुम मेरी अधीनता स्वीकार करो, या युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जानो। आपश्री के द्वारा दिये गये राज्य को हम क्लीब की तरह उसे कैसे अर्पित कर दें ? जिसे स्वाभिमान प्रिय नहीं है वही दूसरों की गुलामी करता है । और यदि हम राज्य के लिए अपने ज्येष्ठ भ्राता से युद्ध करते हैं तो भ्रातृ-युद्ध की एक अनुचित परम्परा का श्रीगणेश हो जाता है, अतः आप ही बताए, हमें क्या करना चाहिए ?२४५
(ग) ते दूतानभिधायैवं, तदेवाऽप्टापदाचले । स्थितं समवसरणे, वृषभस्वामिनं ययुः ।।
-त्रिषष्ठि० १।४।८०८ २४४. ताहे भणंति-तुम्भेहिं दिणाति रज्जाइ हरति भाया ।
-आव० मल० वृ० पृ० २३१॥ (ख) तदानि तातपादैनः संविभज्य पृथक-पृथक् ।
देशराज्यानि दत्तानि, यथार्ह भरतस्य च ।। तैरेव राज्यैः सन्तुष्टास्तिष्ठामो विष्टपेश्वर ! । विनीतानामलङ्घ या हि मर्यादा स्वामिदर्शिता ॥
-त्रिषष्ठि ११४८१६-८२० २४५. (क) तो किं करेमो ? किं जुज्झामो उदाहु आयाणामो ?
- आवश्यक मल० वृ० पृ० २३१ (ख) आवश्यकचूणि, पृ० २०६।।
स्दराज्येनाऽन्यराज्यश्चाऽपहृतैर्भरतेश्वरः । न सन्तुप्यति भगवन् ! वडवाग्निरिवाऽम्बुभिः ।। आचिच्छेद यथाऽन्येषां राज्यानि पृथिवीभुजाम् । अस्माकमपि भरतस्तद्वदाच्छेत्तुमिच्छति ।।
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तीर्थङ्कर जीवन
१३३ भगवान् बोले-पुत्रो ! तुम्हारा चिन्तन ठीक है। युद्ध भी बुरा है और कायर बनना भी बुरा है। युद्ध इसलिए बुरा है कि उसके अन्त में विजेता और पराजित दोनों को ही निराशा मिलती है। अपनी सत्ता को गँवाकर पराजित पछताता है और शत्रु बनाकर विजेता पछताता है । कायर बनने की भी मैं तुम्हें राय नहीं दे सकता, मैं तुम्हें ऐसा राज्य देना चाहता हूँ, जो सहस्रों युद्धों से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता। ___ भगवान् की अाश्वासन-भरी वाणी को सुनकर सभी के मुखकमल खिल उठे, मन-मयूर नाच उठे । वे अनिमेष दृष्टि से भगवान् को निहारने लगे, किन्तु भगवान् की भावना को छू नहीं सके । यह उनकी कल्पना में नहीं आ सका कि भौतिक राज्य के अतिरिक्त भी कोई राज्य हो सकता है। वे भगवान् के द्वारा कहे गये राज्य को पाने के लिए व्यग्र हो गये । उनकी तीव्र लालसा को देखकर भगवान् बोले :
"भौतिक राज्य से आध्यात्मिक राज्य महान् है,२४६ सांसारिक
त्यज्यन्तामाशु राज्यानि, सेवा वा क्रियतां मम । आदिदेशेति पुरुषैर्भरतो नः परानिव ॥ वचोमात्रेण मुञ्चामस्तस्याऽऽत्मबहुमानिनः । तातदत्तानि राज्यानिः क्लीबा इव कथं वयम् ? सेवामपि कथं कुर्मो, निरीहा अधिकद्धिषु ?। अतृप्ता एव कुर्वन्ति सेवां मानविघातिनीम् ॥ राज्यामुक्तावसेवायां युद्ध स्वयमुपस्थितम् । तातपादांस्त्वनापृच्छ्य, न किंचित् कतु मीश्महे ॥
-त्रिषष्ठि १।४।८२१-८२६ २४६. आवश्यक चूणि पृ० २०६ । (ख) ताहे सामी भोगेसु नियत्तावेमाणो तेसि धम्म कहेइ, न मुत्तिसरिसं सुहमत्थि ।
-आवश्यक मल० वृ० पृ० २३१ (ग) दीक्षा रक्षा गुणा भृत्या दयेयं प्राणवल्लभा । इति ज्यायस्तपोराज्यमिदं श्लाध्यपरिच्छदम् ।।
-महापुराण ३४११२४।१६१ द्वि० भा०
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सुखों से आध्यात्मिक सुख विशेष है । २४७ इसे ग्रहण करो, इसमें न कायरता की आवश्यकता है और न युद्ध का ही प्रसंग है ।
मूर्ख लकडहारे २४८ का रूपक देते हुए भगवान् ने कहा- एक लकड़हारा था, वह भाग्यहीन और अज्ञ था । प्रतिदिन कोयले बनाने के लिए वह जंगल में जाता श्रौर जो कुछ भी प्राप्त होता उससे अपना भरण पोषण करता। एक बार वह भीष्म - ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में थोड़ा-सा पानी लेकर जंगल में गया। सूखी लकड़ियाँ एकत्रित कीं । कोयले बनाने के लिए उन लकड़ियों में आग लगादी।
चिलचिलाती धूप, प्रचण्ड ज्वाला, तथा गर्म लू के कारण उसे अत्यधिक प्यास लगी। साथ में जो पानी लाया था वह पी गया, पर प्यास शान्त न हुई । इधर उधर जंगल में पानी की अन्वेषणा की, पर, कहीं भी पानी उपलब्ध नहीं हुआ । सन्निकट कोई गाँव भी नहीं था, प्यास से गला सूख रहा था, घबराहट बढ़ रही थी। वह एक वृक्ष
२४७. भगवती १४, उद्द े०
२४८.
ताहे इंगालदाहगदितं कति, जहा एगो इंगालदाहगो, सो एगं भायणं पाणियस्स भरेऊण गतो, तं तेण उदगं णिट्ठवितं, उर्वार आदिच्चो पासे अग्गी पुणो परिस्समो दारुगाणि कोट्टे तस्स घरं गतो, तत्थ पाणितं पीतो, एवं असब्भावपट्टवणाए कुवत लागणदिदहसमुद्दा य सब्वे पीता, ण य तण्हा छिज्जति, ताहे एगंमि तुच्छकुहितविरस - पाणिए जुन्नवभिरिंडे तणपूलितं गहाय उस्सिचति, जं पडितसेसं तं जी हाए लिहति से केस गं ! एवं तुब्भेहिवि अरणंतरं सव्व अत्तरा सब्वेऽवि सव्वलोए सद्दफरिसा अभूतपुब्वा तहवि तित्ति ण गता, तोरणं इमे मारगुस्सए असुइए तुच्छे अप्पकालिए विरसे कामभोगे अभिलसह, एवं वेयालीयं णाम अज्झयणं भासति "संबुज्झह किन्न बुज्झह"
- आवश्यकचूर्णि जिनदास, पृ० २०६ - २१०
( ख ) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति ।
(ग) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति ।
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तीर्थङ्कर जीवनी
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के नीचे लेट गया, नींद आगई। उसने स्वप्न देखा कि वह घर पहुँच गया है। घर पर जितना भी पानी है, पी गया है, तथापि प्यास शान्त नहीं हुई । कुए पर गया और वहाँ का सारा पानी पी गया। पर प्यास नहीं बुझी। नदी, नाले और द्रहों का पानी पीता हुआ समुद्र पर पहुँचा, समुद्र का सारा पानी पी लेने पर भी उसकी प्यास कम नहीं हई । तब वह एक पानी से रहित जीर्ण कूप के पास पहँचा । वहाँ पानी तो नहीं था, किन्तु भीगे हुए तिनकों को देखकर मन ललचाया और उन तिनकों को निचोड़ कर प्यास बुझाने का प्रयास कर रहा था कि नींद खुल गई। रूपक का उपसंहार करते हुए भगवान् ने कहा-क्या पुत्रो ! उन भीगे हुए तिनकों से उस लकड़हारे की प्यास शान्त हो सकती है ? जबकि कुए, नदी, द्रह, तालाब और समुद्र के पानी से नहीं हुई थी !
पुत्रों ने एक स्वर से कहा--नहीं भगवन् ! कदापि नहीं ।
भगवान् ने उन्हें अपने अभिमत की ओर आकृष्ट करते हुए कहापुत्रो ! राज्यश्री से तृष्णा को शांत करने का प्रयास भी भीगे हुए तिनकों को निचोड़कर पीने से प्यास बुझाने के प्रयास के समान है । दीर्घकालीन अपार स्वर्गीय सुखों से भी जब तृष्णा शान्त नहीं हुई तो इस तुच्छ और अल्पकालीन राज्य से कैसे हो सकती है ? अतः सम्बोधि को प्राप्त करो। वस्तुतः जब तक स्वराज्य नहीं मिलता तब तक परराज्य की कामना रहती है। स्वराज्य मिलने पर परराज्य का मोह नहीं रह जाता।
भगवान् ने उस समय अपने पुत्रों को वैराग्यवर्द्धक एवं प्रभावजनक जो उपदेश दिया था, वह सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कंध के द्वितीय 'वैतालीय' नामक अध्ययन में उल्लिखित है । जिनदास महत्तर के उल्लेख से स्पष्ट है कि यह अध्ययन भगवान् के उसी उपदेश के आधार पर प्रवृत्त हुआ है। उस उपदेश में बतलाया गया है कि - 'मानव को शीघ्र-से-शीघ्र प्रतिबोध लाभ करना चाहिए, क्योंकि व्यतीत समय लौटकर नहीं पाता और पूनः मनुष्यभव सुलभ नहीं है। प्राप्त जीवन का भी कोई ठिकाना नहीं । बालक, वृद्ध यहाँ तक कि गर्भस्थ मनुष्य भी मृत्यु के शिकार हो
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ऋषभदेव : एक परिशीलन जाते हैं । जगत् का उत्कृष्ट-से-उत्कृष्ट वैभव भी मृत्यु का निवारण करने में समर्थ नहीं है। यही कारण है कि देव, दानव, गंधर्व, भूमिचर, सरीसृप, राजा और बड़े-बड़े सेठ, साहूकार भी दुःख के साथ अपने स्थान से च्युत होते देखे जाते हैं । बन्धन से च्युत ताल फल के समान आयु के टूटने पर जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, इत्यादि ।'
वस्तुतः यह सम्पूर्ण अध्ययन अतीव मार्मिक और विस्तृत है । मुमुक्षुजनों के लिए मननीय है।
भागवतकार ने भी भगवान के पूत्रोपदेश का वर्णन दिया है, जिसका सार इस प्रकार है-पुत्रो ! मानवशरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये भोग तो विष्टाभोजी कूकरशूकरादि को भी प्राप्त होते हैं, अतः इस शरीर से दिव्य तप करना चाहिए क्योंकि इसी से परमात्मतत्व की प्राप्ति होती है ।२४९
प्रमाद के वश मानव कुकर्म करने को प्रवृत्त होता है। वह इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए प्रवृत्ति करता है, पर मैं उसे श्रेष्ठ नहीं समझता, क्योंकि उसी से दुःख प्राप्त होता है ।२५० जब तक आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती तव तक स्वस्वरूप के दर्शन नहीं होते, वह विकार और वासना के दलदल में फंसा रहता है और उसी से बन्धन की प्राप्ति होती है ।२५१
२४६. नायं देहो देहभाजां नुलोके
कष्टान् कामानहते विड्भुजां ये। तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्ध येद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ।।
-श्रीमद् भागवत ॥५॥११५५६ २५०. नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म,
यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति । न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ।।
-श्रीमद् भागवत ५।५।४।५५६ २५१. पराभवस्तावदबोध-जातो,
यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् ।
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इस प्रकार अविद्या के द्वारा प्रात्म-स्वरूप आच्छन्न होने से कर्मवासनाओं से वशीभूत बना हुआ चित्त मानव को फिर कर्म में प्रवृत्त करता है। अतः जब तक मुझ परमात्मा में प्रीति नहीं होती तब तक देहबन्धन से मुक्ति नहीं मिलती ।२५२
स्वार्थ में उन्मत्त बना जीव जब तक विवेकदृष्टि का प्राश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टायों को अयथार्थ रूप में नहीं देखता है, तब तक अात्मस्वरूप विस्मृत होने से वह गृह आदि में ही आसक्त रहता है और विविध प्रकार के क्लेश उठाता है ।२५१ ___ इस प्रकार भगवान् की दिव्य देशना में राज्य-त्याग की बात को सुनकर वे सभी अवाक रह गये, पर शीघ्र ही उन्होंने भगवान् के प्रशस्त पथप्रदर्शन का स्वागत किया। अठानवें ही भ्राताओं ने राज्य त्यागकर संयम ग्रहण किया।२५४ ।
यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै; कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ।।
--भागवत ५।५।१५६० २५२. एवं मनः कर्मवशं प्रयुङक्ते,
अविद्ययाऽऽत्मन्युपधीयमाने प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे, न मुच्यते देहयोगेन तावत् ।।
भागवत ५।५।६।५६० २५३. यदा न पश्यत्ययथा गुणेहां,
स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित् । गतस्मृतिविन्दति तत्र तापानासाद्य मैथुन्यमगारमज्ञः ॥
-भागवत ५।५।७१५६० २५४. (क) एवं अट्ठाणउईए वित्तेहिं अट्ठाणउई कुमारा पव्वइता।
-आवश्यक चूर्णि (ख) एवं अट्ठाणउईवित्तेहि अट्ठाणउई कुमारा पव्वइयत्ति ।
-आवश्यक मल० वृ० प० २३१
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
' सम्राट भरत को यह सूचना मिली तो वह दौड़ा-दौड़ा आया। भ्रातृ प्रेम से उसकी आँखें गीली हो गई। पर उसकी गीली आँखें अठानवें भ्राताओं को पथ से विचलित नहीं कर सकी। भरत निराश होकर पुनः घर लौट गया ।२५५-२५६ भरत और बाहुबली
भरत समग्र भारत में यद्यपि एक शासनतन्त्रा के द्वारा एक अखण्ड भारतीय संस्कृति की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील थे, मगर दूसरों की स्वतन्त्राता को सीमित किये बिना उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता था। ६८ भाइयों के दीक्षित होने से यद्यपि उनका पथ निष्कण्टक बन गया था, तथापि एक बड़ी बाधा अब भी उनके सामने थी। वह थी बाहुबली को अपना आज्ञानुवर्ती बनाना। इसके लिए उसने अब अपने लघु भ्राता बाहुबली को यह सन्देश पहुँचाया
(ग) अमन्दानन्दनिःस्यन्दनिर्वाणप्राप्तिकारणम् ।
वत्साः ! संयमराज्यं तद्, युज्यते वो विवेकिनाम् ॥ तत्कालोऽत्पन्नसंवेगवेगा भगवदन्तिके । तेऽष्टानवतिरप्याशु, प्रव्रज्यां जगृहुस्ततः ॥
-त्रिषष्ठि० १।४।८४४-८४५ प० १२० (घ) इत्याकर्ण्य विभोर्वाक्यं परं निर्वेदमागताः । महाप्रावाज्यमास्थाय निष्क्रान्तास्ते गृहाद्वनम् ॥
-महापुराण ३४।१२।१६२ २५५-२५६. आणवण भाउआणं समुसरणे पुच्छ दिद्वन्तो।
-आव०नि० गा० ३४८ (ख) जदि भातरो मे इच्छंति तो भोगे देमि, भगवं च आगतो, ताहे भाउए भोगेहि निमंतेति, ते ण इच्छंति वंतं असितु।
-आवश्यक चूणि पृ० २१२ (ग) भरतोऽपि भ्रातृप्रव्रज्याकर्णनात् सञ्जातमनस्तापोऽधृति चक्रे,
कदाचिद्भोगादीन् दीयमानान् पुनरपि गृह्णन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् ।
-आवश्यक मल० वृ०प० २३५ . (ध) त्रिषष्ठि०. १।६।१६०-१६६
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कि वह अधीनता स्वीकार करले। ज्योंही भरत का यह सन्देश सुना, त्योंही बाहुबली की भृकुटि तन गई। उपशान्त क्रोध उभर प्राया। दाँतों को पीसते हुए उसने कहा-"क्या भाई भरत की भूख अभी तक शान्त नहीं हुई है ? अपने लघु भ्राताओं के राज्य को छीन करके भी उसे सन्तोष नहीं हया है। क्या वह मेरे राज्य को भी हड़पना चाहता है। यदि वह यह समझता है कि मैं शक्तिशाली हूँ और शक्ति से सभी को चट कर जाऊँगा तो यह शक्ति का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है। मानवता का भयङ्कर अपमान है और व्यवस्था का अतिक्रमण है। हमारे पूज्य पिता व्यवस्था के निर्माता हैं और हम उनके पुत्र होकर व्यवस्था को भङ्ग करते हैं ! यह हमारे लिए उचित नहीं है। बाहु-बल की दृष्टि से मैं भरत से किसी प्रकार कम नहीं हूँ। यदि वह अपने बड़प्पन को विस्मृत कर अनुचित व्यवहार करता है तो मैं चुप्पी नहीं साध सकता। मैं दिखा दूँगा भरत को कि आक्रमण करना कितना अनुचित है । जब तक वह मुझे नहीं जीतता तब तक विजेता नहीं है ।२५०
भरत विराट् सेना लेकर बाहुबली से युद्ध करने के लिए "बहली देश" की सीमा पर पहुँच गये । बाहुबली भी अपनी छोटी सेना सजाकर युद्ध के मैदान में आगया । बाहुबली के वीर सैनिकों ने भरत की
२५७. जाहे ते सव्वे पव्वइता ताहे भरहेण बाहुबलिस्स पत्थवितं, ताहे
सो ते पव्वइते सोऊण आसुरत्तो भणति-ते बाला तुमे पवाविता, अहं पुण जुद्धसमत्थो । किं वा ममंमि अजिते तुमे जितं ति ? ता एहि अहं वा राया तुमं वा।
--आवश्यक चूणि, पृ० २१० (ख) कुमारेसु पव्वइएसु भरहेण बाहुबलिणो दूओ पेसिओ, सो ते पव्वइए सोउ आसुरुत्तो, ते बाला तुमए पव्वाविया ।
-आवश्यक मल० वृ० प० २३१ हृत्वाऽनुजानां राज्यानि, नूनमेष न लज्जितः । जितकासी राज्यकृते, मामप्याह्वयते यतः ।।
-त्रिषष्ठि० ११५१४६७
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
विराट् सेना के छक्के छुड़ा दिये । लम्बे समय तक युद्ध चलता रहा, पर न भरत ही जीते और न बाहुबली ही। अन्त में बाहुबली के कहने पर निर्णय किया कि व्यर्थ ही मानवों का रक्त-पात करना अनुचित है, क्यों न हम दोनों मिलकर युद्ध करलें ।२५८
दिगम्बराचार्य जिनसेन ने दोनों भाइयों के जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध इन तीन युद्धों का निरूपण किया है ।२५९
प्राचार्य जिनदास गणिमहत्तर ने दृष्टि युद्ध, वाग् युद्ध, बाहु युद्ध और मुष्टि युद्ध का प्ररूपण किया है ।२६० ___ उपाध्याय श्री विनय विजय जी ने दृष्टि युद्ध, वाग् युद्ध, मुष्टियुद्ध, दण्ड युद्ध इन चार युद्धों का निर्देश किया है ।२६१
आवश्यक भाष्यकार, २६२ तथा प्राचार्य हेमचन्द्र २६३ व
२५८. ताहे ते सव्वबलेण दोवि देसंते मिलिया, ताहे बाहुबलिणा भणितं
कि अणवराहिणा लोगेण मारिएण ? तुमं अहं च दुयगा जुज्झामो, एवं होउत्ति ।
-आवश्यक चूणि पृ० २१० २५६. जलदृष्टिनियुद्धषु, योऽनयोर्जयमाप्स्यति । स जयश्रीविलासिन्याः पतिरस्तु स्वयंवृतः ॥
-महापुराण ३३।४।२०४। द्वि० भा० २६०. तेसि पढमं दिट्ठिजुद्धं जातं, तत्थ भरहो पराजितो । पच्छा वायाए,
तहिपि भरहो पराजितो, एवं बाहुजुद्ध ऽवि पराजितो, ताहे मुट्ठिजुद्ध जातं तत्थवि पराजितो।
-आवश्यक चूणि पृ० २१० २६१. कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका पृ० ५१३ सारा० न० २६२. पदमं दिट्ठीजुद्ध वायाजुद्ध तहेव बाहाहि । मुट्ठीहि अ दंडेहि अ सव्वत्थवि जिप्पए भरहो ।
-आवश्यक भाष्य गा० ३२ २६३. त्रिषष्टि० पर्व १, सर्ग ५
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तीर्थकर जीवन
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समयसुन्दर ६४ प्रभृति ने दृष्टि युद्ध, वाक्युद्ध, बाहयुद्ध, मुष्टि युद्ध और दण्डयुद्ध इन पाँच का वर्णन किया है। सभी में सम्राट् भरत पराजित हुए और बाहुबली विजयी हुए। भरत को अपने लघु भ्रातासे पराजित होना अत्यधिक अखरा ।२६५ आवेश में आकर और मर्यादा को विस्मृत कर बाहुबली के शिरश्छेदन करने हेतु भरत ने चक्र का प्रयोग किया। यह देख बाहुबली का खून उबल गया । बाहुबली ने उछलकर चक्र को पकड़ना चाहा, पर चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा कर पुनः भरत के पास लौट गया । बाहुबली का बाल भी बाँका न हुआ।२६६ यह देख सभी सन्न
२६४. पंचयुद्धानि स्थापितानि (१) दृष्टियुद्ध, (२) वागयुद्ध, (३) बाहुयुद्ध,
(४) मुष्टियुद्ध, (५) दण्ड युद्धानि । एतैः पञ्चयुद्ध : योजितः स जितो ज्ञेयः ।
-कल्पलता- समयसुन्दर पृ० २१० (ख) कल्पार्थ बोधिनी पृ० १५१ ।
(ग) कल्पद्र म कलिका पृ० १५२ । २६५. सो एव जिप्पमाणो विहुरो अह नरवई विचितेइ । किं मन्ने एस चक्की ? जह दाणि दुब्बलो अहयं ।।
-आवश्यक भाष्य गा० ३३ (ख) ताहे सो एवं जिन्वमाणो विधुरो अह णरवती विचितेति किं
मन्ने एस चक्की जह दाणि दुब्बलो अहयं, तस्सेवं संकप्पे देवता आउहं देंति डंडरयणं, ताहे सो तेण गहितेण धावति ।।
-आवश्यक चूणि० २१० (ग) क्रोधान्धेन तदा दध्ये, कतुमस्य पराजयम् ।
चक्रमुत्कृत्तनिशेषद्विषच्चक्रं निधीशिना ॥ आध्यानमात्रमेत्याराद् अदः कृत्वा प्रदक्षिणाम् । अवध्यस्यास्य पर्यन्तं तस्थौ मन्दीकृतातपम् ।।
-महापुराण, पर्व ३६, श्लो० ६५-६६ भा० २ पृ० २०५ २६६. एवं विमृशतस्तक्षशिलाभतु रुपेत्य तत् ।
चक्र प्रदक्षिणां चक्रमन्तेवासी गुरोरिव ।। न चक्र चक्रिणः शक्तं, सामान्येऽपि स्वगोत्रजे । विशेषस्तु चरमशरीरे नरि तादृशे ॥
-त्रिषष्ठि० १'५७२२१७२३
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
रह गये । बाहुबली की विरुदावली से भू-नभ गूंज उठा । भरत अपने दुष्कृत्य पर लज्जित हो गये ।२६७
___ इस घटना से ऋद्ध हो बाहुबली ने भरत पर प्रहार करने के लिए अपनी प्रबल मुट्ठी उठाई । उसे देख लाखों कण्ठों से ये स्वर लहरियाँ फूट पड़ी-सम्राट भरत ने भूल की है, पर आप भूल न करें। लघु भाई के द्वारा बड़े भाई की हत्या अनुचित ही नहीं, अत्यन्त अनुचित है ।२६८ महान् पिता के पुत्र भी महान होते हैं । क्षमा कीजिये, क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता।
बाहुबली का रोष कम हुआ । उठा हुआ हाथ भरत पर न पड़कर स्वयं के सिर पर गिरा । वे लुचन कर श्रमण बन गये ।२६९ राज्य को ठकराकर पिता के चरण-चिह्नों पर चल पड़े ।२७०
सफलता नहीं मिली
बाहुबली के पैर चलते-चलते रुक गये । वे पिता श्री के शरण में पहुँचने पर भी चरण में नहीं पहुँच सके । पूर्व दीक्षित लघु भ्राताओं को
२६७. भरतस्तं तथा दृष्ट्वा , विचार्य स्वं कुकर्म च । बभूव न्यञ्चितग्रीवो, विविक्षुरिव मेदिनीम् ।।
—त्रिषष्ठि १।४।७४६ २६८. अमर्षाच्चिन्तयित्वैवं सुनन्दानन्दनो दृढाम् ।
मुष्टिमुद्यम्य यमवद् भीषणः समधावत ॥ करीवोन्मुद्गरकरः कृतमुष्टिकरो द्र तम् । जगाम भरताधीशान्तिकं तक्षशिलापतिः ।
-त्रिषष्ठि० ११५७२७-७२८ २.६९. इत्युदित्वा महासत्त्वः सोऽग्रणीःशीघ्रकारिणाम् । तेनैव मुष्टिना मून, उद्दध्र तृणवत् कचान् ॥
-त्रिषष्ठि० ११५१७४० २७०. सोऽप्येवं चिन्तयामास प्रतिपन्नमहाव्रतः । कि तातपादपद्मान्तमहं गच्छामि सम्प्रति ? ।।
–त्रिषष्ठि० ११५१७४२
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तीर्थकर जीवन
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नमन करने की बात स्मृति में आते ही उनके चरण एकान्त शान्त कानन में ही स्तब्ध हो गये, असन्तोष पर विजय पाने वाले बाहबली अस्मिता से पराजित हो गये । एक वर्ष तक हिमालय की तरह अडोल ध्यान-मुद्रा में अवस्थित रहने पर भी केवल ज्ञान का दिव्य आलोक प्राप्त नहीं हो सका । शरीर पर लताएँ चढ़ गई, पक्षियों ने घौंसले बना लिये, पैर वल्मीकों (बाँबियों ) से वेष्टित हो गए, तथापि सफलता नहीं मिली ।२१ बाहुबली को केवलज्ञान
एक वर्ष के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव ने बाहुबली में अन्तर्योति जगाने के लिए ब्राह्मी और सुन्दरी को प्रेषित किया।
२७१. पच्छा बाहुबली चितेति-अहं कि तायाणं पासं वच्चामि ? इहं चेव
अच्छामि जाव केवलणाणं उप्पज्जति । एवं सो पडिमं ठितो पव्वयसिहरो । सामी जाणति तहवि ण पत्थवेति, अमूढलक्खा तित्थगरा। ताहे संवच्छरं अच्छति काउस्सग्गेणं वल्लीविताणेण वेढितो पादा य वम्मिएण ।
--आवश्यक चूणि-पृ० २१० (ख) बाहुबली विचितेइ-तायसमीवे भाउणो मे लघुतरा
समुप्पण्णणाणातिसया ते किह निरतिसओ पेच्छामि ? एत्थेव ताव अच्छामि जाव केवलनाणं समुप्पज्जति, एवं सो पडिम ठिओ, ठिओ माणपव्वयसिहरे, जाणइ सामी तहवि न पट्टवेइ, अमूढलक्खा तित्थयरा, ताहे संवच्छरं अच्छइ काउस्सग्गेण, वल्लीवितागणं वेढिओ पाया य वम्मीयनिग्गएहि भुयंगेहि ।
-आवश्यक मलयगिरि वृत्ति० प० २३२।१ (ग) शरीरमधिरूढस्तैलँबमान जंगमैः ।।
बभौ बाहबलिहिसहस्रमिव धारयन् ।। पादपर्य तवल्मीकविनिर्यातमहोरगैः ।
पादयोर्वेष्टयांचक्र स पादकटकैरिव ।। इत्थं स्थितस्य ध्यानेन तस्यैको वत्सरो ययौ। विनाऽऽहारं विहरतो वृषभस्वामिनो यथा ।
-त्रिषष्ठि० ११५७७६-से ७७८
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
भगिनीद्वय ने बाहुवली को नमन किया, और कहा-"हस्ती पर आरूढ व्यक्ति को कभी केवल ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती, अतः नीचे उतरो"२७२- ये शब्द बाहुबली के कर्ण कुहरों में गिरे, चिन्तन का प्रवाह बदला,- कहाँ है यहाँ हाथी ? क्या अभिप्राय है इनका ? हाँ, समझा, मान हाथी है और मैं उस पर आरूढ हैं। मैं व्यर्थ ही अवस्था के भेद में उलझ गया । वे भाई वय में भले ही मुझ से छोटे हैं, पर चारित्रिक दृष्टि से बड़े हैं । मुझे नमन करना चाहिए।" नमन करने के लिए ज्यों ही पैर उठे कि बन्धन टूट गये । विनय ने अहंकार को पराजित किया। केवली बन गये । भगवान् के चरणों में पहुँच
२७२. पुन्ने संवत्सरे भगवं बंभी सुदरीओ पत्थवेति । वि ण पत्थिताओ
जेण तदा सम्म ण पडिवजिहिति, ताहे सो मग्गंतीहिं वल्लीहि य तणेहि य वेढितेण य महल्लेणं कुच्चेणं तं दट्ट रणं वंदितो ताहि, इमं च भणितो-“ण किर हत्थि विलगस्स केवलनाणं उप्पज्जइ" एवं भणिऊण गताओ।
-आवश्यक चूणि-पृ० २१०-२११ (ख) पुण्णे य संवच्छरे भगवं बंभिसुदरीओ पट्टवेइ, पुदिव नेव
पट्टविया जेण तया सम्मं न पडिवज्जइत्ति, ताहि सो मग्गंतीहि वल्लीतणवेढिओ दिट्ठो परूढेरणं महल्लेणं गवेणं ति । तं दट्ठ ण वंदिओ इमं च भणिओ-"न किर हत्थीविलगस्स केवल नाणं समुप्पज्जइ त्ति भणिऊरणं गयाओ।
-आवश्यक नि० मल० वृत्ति० पृ० २३२ (ग) निपुणं लक्ष यित्वा तं कृत्वा त्रिश्च प्रदक्षिणाम् ।
महामुनि बाहुबलिं, ते वन्दित्ववमूचतुः ।। आज्ञापयति तातस्त्वां, ज्येष्ठार्य ! भगवानिदम् । हस्तिस्कन्धाधिरूढानामुत्पद्यत न केवलम् ॥
-त्रिषष्ठि० १११७८७-७८८ (घ) कल्पलता, समय सुन्दर पृ० २११११ (ङ) कल्पद् म कलिका लक्ष्मी० पृ० १५२ (च) कल्पार्थ बोधिनी पृ० १४४-१४५
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तीर्थङ्कर जीवन
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गये। भगवान् श्री ऋषभदेव को नमन कर केवलीपरिषद् में बैठ
गये।२७३
प्राचार्य श्री जिनसेन ने प्रस्तुत घटना का उल्लेख अन्य प्रकार
२७३. ताहे सो पचिन्ति तो "कहि एत्थ हत्थी ? तातो य अलियं न भणति ।"
एवं चिंतितेण णातं, जहा माणहत्थी अस्थित्ति, को य मम माणो ? तं बच्चामि भगवं वदामि ते य साहुणोत्ति, पाओ उक्खित्तो, केवलनाणं च उप्पन्न, ताहे केवलिपरिसाए ट्ठितो।।
__-आवश्यक चूणि पृ० २११ (ख) ताहे चितियाइओ—कहिं एत्थ हत्थी ? तानो य अलियं न
भणति, ततो चितेंतेग णायं-जहा माणहत्थित्ति, को य मम माणो ? वच्चामि भगवंतं बंदामि ते य साहुणोत्ति, पादे उक्खित्ते केवलनाणं समुप्पण्णं।
----आवश्यक मल० वृ० प० २३२ (ग) इदानीमपि गत्वा तान् वन्दिप्येऽहं महामुनीन् ।
चिन्तयित्वेति स महासत्त्वः पादमुदक्षिपत् ।। लतावल्लीवत् त्रुटितेष्वभितो धातिकर्मसु । तस्मिन्नेव पदे ज्ञानमुत्पेदे तस्य केवलम् ।। उत्पन्नकेवलज्ञानदर्शनः सौम्यदर्शनः । रवेरिव शशी सोऽथ, जगाम स्वामिनोऽन्तिकम् । प्रदक्षिणां तीर्थकृतो विधाय ।।
तीर्थाय नत्वा च जगन्नमस्यः ।। महामुनिः केवलिपर्षदन्तस्तीर्णप्रतिज्ञो निषसाद सोऽथ ॥
-त्रिषष्ठि० ११५७६५-७६८ (घ) उप्पन्ननाणरयणो तिन्नपइण्णो जिणस्स पयमूले । गंतु तित्थं नमिउ केवलि परिसाइ आसीणो ।।
-आवश्यक भाप्य० गा० ३५ (ङ) यावच्चरणी उदक्षिपत्तावत्केवलमप्रापत् ।
-कल्पार्थं बोधिनी
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
से करते हुए बताया है कि बाहुबली श्रमण बनकर एक वर्ष तक ध्यानस्थ रहे। भरत के अकृत्य का विचार उनके अन्तर्मानस में बना रहा। जब एक वर्ष के पश्चात् भरत पाकर उनकी अर्चना करते हैं तब उनका हृदय निःशल्य बनता है और केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ।२७४ अनासक्त भरत
भरत ने अपने भ्रातात्रों के साथ जो व्यवहार किया था, उससे वे स्वयं लज्जित थे। भ्राताओं को गँवाकर राज्य प्राप्त कर लेने पर भी उनके अन्तर्मानस में शान्ति नहीं थी। विराट् राज्य का उपभोग करते हुए भी वे उसमें आसक्त नहीं थे। सम्राट होने पर भी वे साम्राज्यवादी नहीं थे।
एक बार भगवान् श्री ऋषभदेव अपने शिष्यवर्गसहित विनीता के बाग में पधारे। जनसमूह धर्मदेशना श्रवण करने को पाया। प्रवचन परिषद् में ही एक सज्जन ने भगवान् से प्रश्न किया"भगवन् ! क्या भरत मोक्षगामी है ?" वीतराग भगवान् ने कहा'हाँ' । प्रश्नकर्ता ने कहा-'आश्चर्य है भगवान् होकर भी पुत्र का पक्ष लेते हैं।'
भरत ने सुना और सोचा-भगवान् पर यह आरोप लगा रहा है। इसे मुझे शिक्षा देनी चाहिए। दूसरे ही दिन उस व्यक्ति को फाँसी की सजा सुना दी गई। फाँसी की सजा सुन वह घबराया, भरत के चरणों में गिरा, गिड़गिड़ाया, अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा।
भरत ने कहा-तैल से परिपूरित कटोरे को लेकर विनीता के बाजारों में घूमो। स्मरण रखना, एक बूंद भी नीचे न गिरने पाये। नीचे गिरते ही फाँसी के तख्ते पर लटका दिये जानोगे। यदि एक बूंद भी नीचे न गिरेगी तो तुम्हें मुक्त कर दिया जायेगा।
२७४. संक्लिष्टो भरताधीशः सोऽस्मत्त इति यत्किल । हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ।।
--महापुराण जिन० ३६।१८६।२१७ द्वि० भा०
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तीर्थङ्कर जीवन अभियुक्त सम्राट के आदेशानुसार घूमकर लौट आया।
सम्राट् ने प्रश्न किया-क्या तुम नगर में घूमकर आये हो ? अभियुक्त ने विनीत मुद्रा में कहा-हाँ महाराज ! सम्राट ने पुनः प्रश्न किया--नगर में तुमने क्या-क्या देखा ?
अभियुक्त ने निवेदन किया-कुछ भी नहीं देखा भगवन् !
सम्राट् ने पुनः पूछा-क्या नगर में जो नाटक हो रहे थे वे तुमने नहीं देखे ? क्या नगर में जो संगीत मण्डलियाँ यत्रतत्र संगीत गा रही थीं उन्हें तुमने नहीं सुना।
अभियुक्त ने कहा--राजन् ! जब मौत नेत्रों के सामने नाच रही हो तब नाटक कैसे देखे जा सकते हैं ? और जब मौत की गुनगुनाहट कर्णकुहरों में चल रही हो तब गीत कैसे सुने जा सकते हैं ? ____ सम्राट ने मुस्कराते हुए कहा-क्या मृत्यु का इतना अधिक भय है ?
अभियुक्त ने कहा-सम्राट् को इसका क्या पता ? यह तो मृत्युदण्ड पाने वाला ही अनुभव कर सकता है ।
सम्राट ने कहा-तो क्या सम्राट अमर है ? उसे मृत्यु का साक्षात्कार नहीं करना पड़ेगा ? तुम तो एक जीवन की मृत्यु से ही इतने अधिक भयाक्रान्त हो गए कि आँखों के सामने नाटक होने पर भी नाटक नहीं देख सके और कानों के पास संगीत की सुमधर स्वर लहरियाँ झनझनाने पर भी संगीत नहीं सुन सके । परन्तु बन्ध, तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं तो मृत्यु की दीर्घपरम्परा से परिचित हूँ अतः मुझे अब साम्राज्य का विराट् सुख भी नहीं लुभा पा रहा है । मैं तन से गृहस्थाश्रम में हूँ, पर मन से उपरत हूँ।
अभियुक्त को अब भगवान् के सत्य कथन पर शंका नहीं रही। उसे अपना अपराध समझ में आ गया। उसे मुक्त कर दिया गया ।२७५ भरत से भारतवर्ष
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रतापपूर्ण प्रतिभासम्पन्न २७५. (ख) जैन धर्म और दर्शन-मुनि नथमल पृ० १४
(ग) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व पृ० १४
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
भरत एक अतिजात पुत्र थे। पिता के द्वारा प्राप्त राज्यश्री को उन्होंने अत्यधिक विस्तृत किया और छः खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् बने ।२७६ केवल तन पर ही नहीं, अपितु प्रजा के मन पर शासन किया। उनकी पुण्य संस्मृति में ही प्रकृत देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
वसुदेव हिंडी२७, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिः , श्रीमद्भागवत२७९, वायुपुराण८०, अग्निपुराण, महापुराण८२, नारदपुराण,
२७६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति भरताधिकार २७७. तत्थ भरहो भरहवासचूडामणी । तस्सेव नामेण इहं भारहवासं ति पव्वुचति ।।
-वसुदेवहिण्डी प्र० खं० पृ० १८६ २७८. भरतनाम्नश्चक्रिणो देवाच्च भारतनाम प्रवृत्तं भरतवर्षाच्च तयोर्नाम ।
-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति २७६. येषां खलु महायोगी ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्य नेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।
__-श्री मद्भागवत पुराण स्कंध ५, अ० ४।६ (ख) अजनाभं नामैतद्वर्ष भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति ।
___-श्री मद्भागवत ५।७।३। पृ० ५६६ (ग) तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः । विख्यातं वर्षमेतद् यन्नाम्ना भारतमद्भतम् ॥
--भागवत ११।२।१७ २८०. हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत् । तस्माद् भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विबुधाः ।।
-वायुपुराण अध्या० ३३, श्लो० ५२ २८१. भरताद् भारतं वर्ष भरतात सुमतिस्त्वभूत् ।।
-अग्निपुराण अ० १० श्लो० १२ २८२. तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम् । हिमाद्रे राससुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम् ।।
-महापुराण १५।१५६।३३६ २८३. आसीत् पुरा मुनिश्रीष्ठो, भरतो नाम भूपतिः । आर्षभो यस्य नाम्नेदं भारतं खण्डमुच्यते ।।
----नारदपुराण अध्या० ४८ श्लो० ५
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तीर्थकर जीवन विष्णु पुराण८४, गरुडपुराण२८५, ब्रह्मपुराण२८६, मार्कण्डेय पुराण२८७, बाराह पुराण, स्कन्ध पुराण८९, लिङ्ग पुराण, शिवपुराण, विश्वकोष२१२ प्रभृति ग्रन्थों के उद्धरणों के प्रकाश में भी यह
२८४. ऋषभाद् भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशताग्रजः । ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते ॥
-विष्णुपुराण अंश २, अध्या० १ श्लो० ३२ २८५. गरुडपुराण, अध्याय १, श्लो० १३ २८६. सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्रावाज्यमास्थितः । हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष तस्य नाम्ना विदुबुधाः ।।
-ब्रह्माण्ड० अ० १४; श्लो० ६१ २८७. अग्निन्ध्रसूनो भेस्तु ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः ।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताद् वरः ।। सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्रावाज्यमास्थितः । तपस्तेपे महाभागः पुलहाश्रमसंशयः ॥ हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ । तस्मात्त भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः ।।
-मार्कण्डेय पुराण ६३।३८-४० २८८. हेमाद्र'दक्षिणं वर्ष महद् भारतं नाम शशास ।
-वाराह पुराण अध्याय० ७४ २८६. तस्य नाम्ना त्विदं वर्ष भारतं चेति कीयते ।
-स्कन्ध पुराण अध्या० ३७, श्लो० ५७ २६०. तस्मात्त भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुबुधाः ।
---लिग पुराण, अध्याय ४७, श्लो० २४ २६१. तत्रापि भरते ज्येष्ठे खण्डेऽस्मिन् स्पृहलीयके । तन्नामा चैव विख्यातं खण्डं च भारतं तदा ।।
-शिव पुराण, अध्या० ५२ २६२. नाभि के पुत्र ऋषभ और उनके पुत्र भरत थे । भरत ने धर्मानुसार जिस वर्ष का शासन किया उनके नामानुसार वही भारतवर्ष कहलाया।
-हिन्दी विश्वकोष
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
स्पष्ट है कि "ऋषभपुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से ही प्रस्तुत देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। पाश्चात्य विद्वान् श्री जे० स्टीवेन्सन२९३ का भी यही अभिमत है और प्रसिद्ध इतिहासज्ञ गंगाप्रसाद एम. ए.२९४ व रामधारीसिंह दिनकर२९५ का भी यही मन्तव्य है।
कुछ लोग दुष्यन्त पुत्र भरत से भारतवर्ष का नाम संस्थापित करना चाहते हैं पर प्रबल प्रमाणों के अभाव में उनकी बात किस प्रकार मान्य की जा सकती है। उन्हें अपने मतारह को छोड़कर यह सत्य तथ्य स्वीकार करना ही चाहिए कि श्री ऋषभ पुत्र भरत के नाम से ही भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। भरत को केवल ज्ञान
दीर्घकाल तक राज्यश्री का उपभोग करने के पश्चात् [भगवान् श्री ऋषभदेव के मोक्ष पधारने के वाद] एकबार सम्राट भरत वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आदर्श (काँच ) के भव्य-भवन में गये। अँगुली से अँगूठी गिर गई, जिससे अंगुली असुन्दर प्रतीत हुई। भरत के मन में एक विचार प्राया। अन्य प्राभूषण भी उतार दिए। चिन्तन के आलोक में सोचा-पर-द्रव्यों से ही यह शरीर सुन्दर प्रतीत होता है। कृत्रिम सौन्दर्य वस्तुतः सही सौन्दर्य नहीं है । प्रात्म
२६३. Brahmanical Pt.ranas prove Rishabh to be the father
of that Bharat, from whom India took to name 'Bharatvarsha".
-~-Kalpasutra Introd. P. XVI २६४. ऋषियों ने हमारे देश का नाम प्राचीन चक्रवर्ती सम्राट् भरत के नाम पर भारतवर्ष रखा था।
--प्राचीन भारत पृ० ५ २६५. भरत ऋषभदेव के ही पुत्र थे जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा।
-संस्कृति के चार अध्याय पृ० १२६
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सौन्दर्य ही सच्चा सौन्दर्य है। भावना का वेग बढ़ा, क-मल को धोकर वे केवल ज्ञानी बन गये ।२९६
___ श्रीमद् भागवतकार ने सम्राट् भरत का जीवन कुछ अन्य रूप से चित्रित किया है। राजर्षि भरत सारी पृथ्वी का राज भोगकर वन में चले गये और वहाँ तपस्या के द्वारा भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में भगवत्स्थिति को प्राप्त हुए ।२९७
जैन दृष्टि से भगवान् के सौ ही पुत्रों ने तथा ब्राह्मी सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने श्रमरणत्व स्वीकार किया और उत्कृष्ट साधना कर कैवल्य
२६६. आयंसघरपवेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य ।।
-आवश्यक नियुक्ति गा० ४३६ (ख) अह अन्नया कयाति सव्वालंकारविभूसितो आयंसघरं अतीति,
तत्थ य सव्वंगिओ पुरिसो दीसति, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलेज्जगं पडियं, तं च तेण ण णायं पडियं, एवं तस्स पलोए तस्स जाहे तं अंगुलिं पलोएति जाव सा अंगुली न सोहति तेण अगुलीज्जएण विणा, ताहे पेच्छति पडियं, ताहे कडगंपि अवणेति, एवं एक्केक्कं आभरणं अवणेतेण सव्वाणि अवणीताणि, ताहे अप्पाणं पेच्छति उच्चियपउमं व पउमसरं असोभमाणं पेच्छइ । पच्छा भणति-आगतु एहि दव्वेहि विभूसितं इमं सरीरगंति, एत्थं संवेगमावन्नो। इमं च एवं गतं सरीरं, एवं चितेमाणस्स ईहावूहा मग्गणगवेसणं करेमाणस्स अपुब्वकरणं झाणं अणुपविट्ठो केवलणारणं उप्पाडेति ।
-आवश्यक चूणि, पृ० २२७ (ग) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पृ० २४६ । २६७. स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् । उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ।।
-भागवत ११।२।१८ पृ० ७११
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
प्राप्त किया।२९८ श्रीमद्भागवत के अभिमतानुसार सौ पुत्रों में से कवि, हरि, अन्तरित, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रु मिल, चमस, और करभाजन--ये नौ आत्म विद्याविशारद पुत्र वातरशन श्रमण बने ।२९९ भगवान के संघ में
भगवान् के आध्यात्मिक पावन प्रवचनों को श्रवण करके भगवान् के संघ में चौरासी हजार श्रमरण बने ।३०° तीन लाख श्रमणियाँ बनीं,३०१
२६८. आवश्यक नियुक्ति, गा० ३४८-३४६ मल० वृ० प० २३१-३२ । २६६. नवाभवन् महाभागा मुनयोह्यर्थशंसिनः ।
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ।। कवि हरिदन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः । आविर्होत्रोऽथ द्रु मिलश्चमसः करभाजनः ।।
-भागवत११।२।२०-२१ ३००. (क) समवायाङ्ग ८४
(ख) आवश्यक नि० गा० २७८ मल० वृ० प० २०७ (ग) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (घ) उसभसेणपामोक्खाओ चउरासीइ समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था ।
-कल्पसूत्र, सू० १६७ पृ० ५८ (ङ) त्रिषष्ठि० १।६। ३०१. बंभीसुन्दरिपामोक्खाणं अज्जियाणं तिनि सयसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था ।
--कल्पसूत्र सू० १६७ पृ० ५८ (ख) आवश्यक मल० वृ० प० २०८ गा० २८२ (ग) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, पृ० ८७ अमोल (घ) त्रिषष्ठि० ११६
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तीर्थङ्कर जीवन
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तीन लाख पाँच हजार श्रावक बने०२ और पाँच लाख चोपन हजार श्राविकाएँ हुई ।393
भगवान् ऋषभदेव के श्रमण चौरासी भागों में विभक्त थे । वे विभाग गण के नाम से पहचाने जाते थे। इन गणों का नेतृत्व करने वाले गणधर कहलाते थे, जिनकी संख्या चौरासी थी। श्रमणश्रमणियों की सम्पूर्ण व्यवस्था इनके अधीन थी।
धार्मिक प्रवचन करना, अन्य तीथिक या अपने शिष्यों के प्रश्नों का समाधान करना और धार्मिक नियमोपनियम का परिज्ञान कराना-ये कार्य भ० ऋषभदेव के अधीन थे और शेष कार्य गणधरों के।
गुण की दृष्टि से श्री ऋषभदेव के श्रमणों को सात विभागों में विभक्त कर सकते हैं । (१) केवलज्ञानी, (२) मनःपर्यवज्ञानी (३) अवधिज्ञानी (४) वैक्रिद्धिक, (५) चतुर्दशपूर्वी (६) वादी (७) सामान्य साधु ।
केवल ज्ञानी अथवा पूर्ण ज्ञानियों की संख्या बीस हजार थी।०४ ये प्रथम श्रेणी के ज्ञानी श्रमण थे। श्री ऋषभदेव के
३०२. (क) उसभस्स णं सेज्जंसपामोक्खाणं समणोवासगाणं तिन्नि
सयसाहस्सीओ पंच सहस्सा उक्कोसिया समणोवासयसंपया होत्था ।
-कल्पसूत्र० १६७। पृ० ५८ (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति० पृ० ८७ अमो० ३०३. उसभस्स णं सुभद्दापामोक्खाणं समणोवासियाणं पंच सयसाहस्सीओ चउप्पन्नं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासिया.... ।
-कल्पसूत्र, सू० १६७ पृ० ५८, पुण्यवि० सं० (ख) समवायाङ्ग। (ग) लोकप्रकाश ।
(घ) आवश्यक नियुक्ति गा० २८८ ३०४. उसभस्सरणं वीससहस्सा केवलणाणीरणं उक्कोसिया।
-कल्पसूत्र० सू० १६७ पृ० ५८
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
समान ही इनको भी पूर्ण ज्ञान था। ये धर्मोपदेश भी प्रदान करते थे।
दूसरी श्रेणी के श्रमण मनः पर्यवज्ञानी, अर्थात् मनोवैज्ञानिक थे। ये समनस्क प्राणियों के मानसिक भावों के परिज्ञाता थे। इनकी संख्या बारह हजार, छह सौ, पचास थी।३०५
तृतीय श्रेणी के श्रमण अवधिज्ञानी थे। अवधि का अर्थ-सीमा है। अधिज्ञान का विषय केवल रूपी पदार्थ हैं। जो रूप, रस, गंध, और स्पर्श युक्त समस्त रूपी पदार्थों (पुद्गलों) के परिज्ञाता थे। इनकी संख्या नौ हजार थी।३०६
चतुर्थ श्रेणी के साधक वैक्रियद्धिक थे। अर्थात् योगसिद्धि प्राप्त श्रमण थे। जो प्रायः तप जप व ध्यान में तल्लीन रहते थे। इन श्रमणों की संख्या बीस हजार छह सौ थी।०७
पंचम श्रेणी के श्रमण चतुर्दश पूर्वी थे। ये सम्पूर्ण अक्षर ज्ञान में
(ख) समवायाङ्ग,
(ग) लोकप्रकाश, ३०५. उसभस्स एं० बारससहस्सा छच्च सया पन्नासा विउलमईणं
अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्दे सु सन्नीरणं पंचिदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं पासमाणाणं उक्कोसिया विपुलमइसंपया होत्था।
-कल्पसूत्र० सू० १६७, पृ० ५८-५६ (ख) समवायाङ्ग ३०६. उसभस्स रणं० नव सहस्सा ओहिनाणीणं उक्को० ।
-~~-कल्प० सू० १६७, पृ० ५८ (ख) समवायाङ्ग ।
(ग) लोकप्रकाश । ३०७. उसभस्स एं० वीससहस्सा छच्च सया वेउब्वियारणं उक्कोसिया।
-कल्पसूत्र-सू० ५८
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तीर्थङ्कर जीवन
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पारंगत थे। इनका कार्य था शिष्यों को शास्त्राभ्यास कराना । इनकी संख्या सैंतालीस सौ पचास थी।८
छठी श्रेणी के श्रपण वादी थे। ये तर्क और दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा करने में प्रवीण थे। अन्य तीथियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें आर्हत धर्म के अनुकूल बनाना, इनका प्रमुख कार्य था। इनकी संख्या बारह हजार छह सौ पचास थी।३०९
सातवीं श्रेणी में वे सामान्य श्रमण थे जो अध्ययन, तप, ध्यान तथा सेवा-शुश्र षा किया करते थे।
इस प्रकार श्री ऋषभदेव की संघ-व्यवस्था सुगठित और वैज्ञानिक थी। धार्मिक राज्य की सूव्यवस्था करने में वे सर्वतंत्र-स्वतंत्र थे। लक्षाधिक व्यक्ति उनके अनुयायी थे और उनका उन पर अखण्ड प्रभुत्व था। ___ भगवान् श्री ऋषभदेव सर्वज्ञ होने के पश्चात् जीवन के सान्ध्य तक आर्यावर्त में पैदल घूम-घूमकर यात्म-विद्या की अखण्ड ज्योति जगाते रहे । देशना रूपी जल से जगत् की दुःखाग्नि को शमन करते रहे ।१० जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग-निष्ठा व संयम-प्रतिष्ठा उत्पन्न करते रहे।
निर्वाण
तृतीय आरे के तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर भगवान् दस सहस्र श्रमरणों के साथ अष्टापद पर्वत पर आरूढ़ हुए।
३०८. उसभस्स णं० चत्तारि सहस्सा सत्त सया पन्नासा चोद्दस पुवीए अजिणाणं जिणसंकासारणं उक्कोसिया चोद्दसपुव्विसंपया होत्था ।
-कल्ससूत्र सू० १६७ पृ० ५८ ३०६. उसभस्स णं बारस सहस्सा छच्च सया पन्नासा वाईणं०
-कल्पसूत्र १६५,१५६ ३१०. वर्षति सिंचति देशनाजलेन,
दुःखाग्निना दग्धं जगदिति ।
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
चतुर्दशभक्त से आत्मा को तापित करते हुए अभिजित नक्षत्र के योग में, पर्यङ्कासन में स्थित, शुक्ल ध्यान के द्वारा वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म और गोत्र-कर्म को नष्ट कर सदा-सर्वदा के लिए अक्षर अजर अमर पद को प्राप्त हुए । 11 जैन परिभाषा में इसे निर्वारण या
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३११. चउरासीइं पुव्व सय सहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयगिज्जाउयनामगोते, इमीसे ओसप्पिणीए सुसम समाए समाए बहुविक्कताए तिहि वासेहि अद्धनवमेहि य मासेहि सेसेहि उप्पि अट्ठावयसेलसिहरंसि दसहि अणगारसहस्सेहिं सद्धि चोदसमे भत्ते अम्पाए अभिरणा नक्खते जोगमुवागएणं पुव्वहकालसमसि संपलियंक निसन्ने कालगए विइक्कते जाव सव्वदुक्खप्पही ।
-- कल्पसूत्र, सू० १६६, पृ० ५६ (ख) निव्वाणमंतकिरिया सा चोदसमेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएरणं वीरजिणिदस्स छणं ॥ अट्ठावय- चंपु-ज्जेत - पावा- सम्मेयसेल सिहरेसु 1 उसभ वसुपुज्ज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ||
- आवश्यक नियुक्ति० गा० ३२८-३२६
दसहि सहस्से सभे सेसा उ सहस्सपरिवुडा सिद्धा ।
- आवश्यक नि० गा० ३३३ (ग) एवं च सामी विहरमाणो थोवणगं पुव्वसयसहस्सं केवल परियायं पाउणित्ता पुणरवि अट्ठावए पव्वए समोसढो, तत्थ चोद्दसमेण भत्तेण पाओवगतो, तत्थ माहबहुलतेरसीपक्खेणं दसहि अणगारसहस्सेहि सद्धि संपरिवडे संपलियंकणिसनो पुव्वण्हकालसमयंसि अभिइणा णक्खत्तेणं सुसमदूसमाए एगुणणउतीहिं पक्खेहि सेसेहिं खीणे आउगे णामे गोत्तं वेयणिज्जे कालग जाव सव्वदुक्खपणे ।
चुलसीतीए जिणवरो,
समणसहस्सेहिं परिवुडो भगवं ।
दसहि सहस्सेहि समं, निव्वाणमगुत्तरं
पत्तो 11
-- आवश्यक चूर्णि पृ० २२१
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तीर्थकर जीवन
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परिनिर्वाण कहा है । शिव पुराण ने अष्टा पद पर्वत के स्थान पर कैलाश पर्वत का उल्लेख किया है ।३१२२
भगवान् श्री ऋषभदेव की निरिणतिथि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति,१३ कल्पसूत्र,३१४ त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र के अनुसार माघ कृष्णा
(घ) दीक्षाकालात् पूर्वलक्षं, क्षपयित्वा ततः प्रभुः ।
ज्ञात्वा स्वमोक्ष कालं च, प्रतस्थेऽष्टापदं प्रति ।। शैलमष्टापदं प्राप, क्रमेण सपरिच्छदः । निर्वाणसौधसौपानमिवाऽऽरोहच्च तं प्रभुः ॥ समं मुनीनां दशभिः सहस्र : प्रत्यपद्यत । चतुर्दशेन तपसा, पादपोपगमं प्रभुः ॥
—त्रिषष्ठि० १।६।४५६ से ४६१ (ङ) दसहि अणगारसहस्सेहि सद्धि संपरिबुडे अट्ठावयसेलसिहरंसि
चोद्दसमेणं भत्तण अप्पाएएणं संपलिग्रंकासरणे निसरणे पुव्यह कालसमयंसि अभिइणा णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं सुसमदुस्समाए एगुणणवइए पक्खेहि सेसेहि कालगए वीइक्कते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सू० ४८ पृ० ६१ ३१२. कैलाशे पर्वते रम्ये,
वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारं च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।।
-शिवपुराण ५६ ३१३. जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेरणं ।
-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सू० ४८, पृ० ६१ ३१४. जे से हेमंताणं तच्चेमासे पंचमे पक्खे माहबहुले तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं ।
-कल्पसूत्र , सू० १६६, पृ० ५६ ३१५. त्रिषष्ठि० ११६
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
त्रयोदशी है और तिलोय पण्णत्ति:१६ व महापुराण के अनुसार माघकृष्णा चतुर्दशी है।
विज्ञों का मन्तव्य है कि उस दिन श्रमणों ने शिवगति प्राप्त भगवान् की संस्मति में दिन में उपवास रखा और रात्रि भर धर्म जागरण किया। अतः वह तिथि शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'शिव', मोक्ष, 'निर्वाण'-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। __ ईशान संहिता में लिखा है कि माघ कृष्णा चतुर्दशी की महानिशा में कोटिसूर्यप्रभोपम भगवान् श्रादिदेव शिवगति प्राप्त हो जाने से शिव-इस लिंग से प्रकट हुए। जो निर्वाण के पूर्व प्रादिदेव कहे जाते थे वे अब शिवपद प्राप्त हो जाने से "शिव" कहलाने लगे।३१८
उत्तर प्रान्त में शिव-रात्रि पर्व फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को मनाया जाता है तो दक्षिण प्रान्त में माघकृष्णा चतुर्दशी को। इस भेद का कारण यह है कि उत्तर प्रान्त में मास का प्रारम्भ कृष्ण पक्ष से मानते हैं और दक्षिण प्रान्त में शुक्ल पक्ष से । इस दृष्टि से दक्षिण प्रान्तीय माघ कृष्णा चतुर्दशी उत्तर प्रान्त में फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी हो जाती है। कालमाधवीय नागर खण्ड में प्रस्तुत मासवैषम्य का समन्वय करते हुए स्पष्ट लिखा है कि दाक्षिणात्य मानव के माघ मास
३१६. माघस्स किण्हि चोद्दसि पुवण्हे णिययजम्मणक्खत्ते अट्ठावयम्मि उसहो अजुदेण समं गओज्जोमि ।
-तिलोयपण्णत्ति ३१७. .........."घणतुहिणकणाउलि माहमासि सूरग्गमिकसणचउद्दसीहि णिव्वुइ तित्थंकरि पुरिससीहि ।
-महापुराण ३७१३ ३१८. माघ कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिवते तिथिः ।
--ईशान संहिता
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तीर्थङ्कर जीवन
के शेष अथवा अन्तिम पक्ष की, और उत्तर प्रान्तीय मानव के फाल्गुन के प्रथम मास की कृष्णा चतुर्दशी शिवरात्रि कही गई है । ३१९
पूर्व बताया जा चुका है कि ऋषभदेव का महत्त्व केवल श्रमरण परम्परा में ही नहीं अपितु ब्राह्मणपरम्परा में भी रहा है । वहाँ उन्हें आराध्यदेव मानकर मुक्त कंठ से गुणानुवाद किया गया है । सुप्रसिद्ध वैदिक साहित्य के विद्वान् प्रो० विरुपाक्ष एम. ए. वेदतीर्थ और प्राचार्य विनोबा भावे जैसे बहुत विचारक ऋग्वेद आदि में ऋषभदेव की स्तुति के स्वर सुनते हैं । +
श्री रामधारीसिंह दिनकर भ० श्री ऋषभदेव के सम्बन्ध में लिखते हैं--" मोहन जोदड़ो " की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं । और जैनमार्ग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालान्तर में शिव के साथ समन्वित हो गई । इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना प्रयुक्तियुक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेद पूर्व हैं ।
डाक्टर जिम्मर लिखते हैं- "प्रज प्राग् ऐतिहासिक काल के महापुरुषों के अस्तित्व को सिद्ध करने के साधन उपलब्ध नहीं हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि वे महापुरुष हुए ही नहीं । इस अवसर्पिणी काल में भोग-भूमि के अन्त में अर्थात् पाषाणकाल के अवसान पर कृषिकाल के प्रारम्भ में पहले तीर्थङ्कर ऋषभ हुए। जिन्होंने मानव को सभ्यता का पाठ पढ़ाया, उनके पश्चात् और भी तीर्थङ्कर हुए,
३१६.
१५६
माघमासस्य शेषे या प्रथमे कृष्णा चतुर्दशी सा तु शिवरात्रिः
फाल्गुणस्य च 1 प्रकीर्तिता ॥
- कालमाधवीय नागर खण्ड
+
पूर्वं इतिवृत्त - उपाध्याय अमरमुनिजी महाराज, गुरुदेव श्री रत्नमुनि । * आजकल, मार्च १६६२ पृ० ८ ।
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१६०
ऋषभदेव : एक परिशीलन
जिनमें से कई का उल्लेख वेदादि ग्रन्थों में भी मिलता है । ग्रतः जैन धर्म भगवान् ऋषभदेव के काल से चला आ रहा है | X
ऋग्वेद में भगवान् श्री ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाश करने वाला बतलाते हुए कहा है- " जैसे जल से भरा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वी ज्ञान के प्रतिपादक वृषभ [ ऋषभ ] महान् हैं, उनका शासन वर दे । उनके शासन में ऋषि परम्परा से प्राप्त पूर्व का ज्ञान आत्मा के शत्रुत्रों - क्रोधादि का विध्वंसक हो । दोनों [ संसारी और मुक्त] आत्माएँ अपने ही प्रात्मगुणों से चमकती हैं । अतः वे राजा हैं - वे पूर्ण ज्ञान के प्रागार हैं और आत्म-पतन नहीं होने देते । २०
वैदिक ऋषि भक्ति भावना से विभोर होकर उस महाप्रभु की स्तुति करता हुआ कहता है- हे प्रात्मद्रष्टा प्रभो ! परम सुख पाने के लिए मैं तेरी शरण में ग्राना चाहता हूँ । क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वारणी शक्तिशाली है— उनको मैं अवधारण करता हूँ । हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्हीं पहले पूर्वयाया [पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक ] हो । ३२१
X
३२०.
दी फिलॉसफीज ऑव इण्डिया, पृ० २१७ डा० जिम्मर |
(ख) अहिंसावाणी वर्ष १२ अंक ६, पृ० ३७६, डाक्टर कामताप्रसाद के लेख में भी उद्धृत ।
असूतपूर्वा वृषभो ज्यायनिमा अरय शुरुधः सन्ति पूर्वीः । दिवो न पाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवोदधाये ||
भूषन् ।
३२१. मखस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभि वाचमृताय इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां विशां देवी नामुत पुर्वयाया ॥
- ऋग्वेद ५२-३८
- ऋग्वेद २।३४।२
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तीर्थङ्कर जीवन
१६१
"आत्मा ही परमात्मा है"३२२... यह जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त को ऋग्वेद के शब्दों में भगवान् श्री ऋषभदेव ने इस रूप में प्रतिपादित किया-“मन, वचन, काय तीनों योगों से बद्ध [संयत] वृषभ ने घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मयों में निवास करता है ।"३२२ उन्होंने स्वयं कठोर तपश्चरणरूप साधना कर वह आदर्श जन-नयन के समक्ष प्रस्तुत किया। एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि ने लिखा कि-"ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे जिन्होंने सब से प्रथम मर्त्यदशा में देवत्व की प्राप्ति की थी।"३२४
अथर्ववेद का ऋषि मानवों को ऋषभदेव का आह्वान करने के लिए यह प्रेरणा करता है कि -"पापों से मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्व प्रथम तथा भवसागर के पोत को मैं हृदय से ग्राह्वान करता है । हे सहचर बन्धो ! तुम आत्मीय श्रद्धा द्वारा उसके आत्मबल और तेज को धारण करो ।२५ क्योंकि वे प्रेम के राजा हैं उन्होंने
३२२. जे अप्पा से परमप्पा । (ख) मग्गण-गुणठाणेहि य,
____चउदसहि तह असुद्धणया । विण्गोया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धनया ।।
-द्रव्यसंग्रह १११३ (ग) सदामुक्तं .....""कारणपरमात्मानं जानाति ।
-नियमसार, तात्पर्यवृत्ति गा० ६६ ३२३. त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती। महादेवो मर्त्या आविवेश ॥
--ऋग्वेद ४।५८।३ ३२४. तन्मय॑स्य देवत्वसजातमग्रः ।
-ऋग्वेद ३१।१७ ३२५. अहो मुचं वृषभं यज्ञियानं विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । अपां न पातमश्चिनां हुवे धिय इन्द्रियेण तमिन्द्रियं दत्तभोजः ।।
--अथर्ववेद कारिका १६।४२४
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१६२
ऋषभदेव : एक परिशीलन उस संघ की स्थापना की है जिसमें पशु भी मानव के समान माने जाते थे और उनको कोई भी मार नहीं सकता था।३२६ ___श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ऋषभ का जन्म रजोगुणी जनों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हया था।३२७ जिन्होंने विषयभोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से भूले-बिसरे मानवों को करुणावश निर्भय आत्म-लोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव करने वाले प्रात्म-स्वरूप की प्राप्ति के द्वारा सब प्रकार की तृष्णा से मुक्त थे, उन भगवान् श्री ऋषभदेव को नमस्कार है।३२८
इस प्रकार हम देखते हैं कि भागवत में ही नहीं, किन्तु कूर्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण आदि वैदिक ग्रन्थों में उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण गाथाएँ उट्टङ्कित हैं ।
बौद्ध ग्रन्थ "मार्ग मंजुश्री मूलकल्प" में भारत के आदि सम्राटों में नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभ पुत्र भरत की गणना की गई है। उन्होंने हिमालय से सिद्धि प्राप्त की३२९, वे व्रतों को पालने में दृढ़
३२६. नास्य पशून् समानान् हिनस्ति ।
-अथर्ववेद ३२७. अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थम् ।
-श्रीमद्भागवत पंचम स्कन्ध, अध्या० ६ ३२८. नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः.
श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धः। लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकमाख्यानमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥
-श्रीमद् भागवत ५।६।१६।५६६ ३२६. जैन दृष्टि से सिद्धि-स्थल अष्टापद है, हिमालय नहीं ।
-लेखक
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तीर्थकर जीवन
१६३
थे। वे ही निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर ऋषभ जैनों के प्राप्तदेव थे।3° धम्म पद में ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ वीर कहा है ।७१
भारत के अतिरिक्त बाह्य देशो में भी भगवान् ऋषभदेव का विराट् व्यक्तित्व विविध रूपों में चमका है । प्रथम उन्होंने कृषिकला का परिज्ञान कराया, अतः वे "कृषि देवता" हैं। आधुनिक विद्वान् उन्हें “एग्रीकल्चरएज' मानते हैं ।३२ देशनारूपी वर्षा करने से वे "वर्षा के देवता' कहे गये हैं। केवल ज्ञानी होने से सूर्यदेव के रूप में मान्य हैं।
इस प्रकार भगवान् श्री ऋषभदेव का जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व विश्व के कोटि-कोटि मानवों के लिए कल्याणरूप, मंगलरूप और वरदानरूप रहा है। वे श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति के आदि पुरुष हैं। भारतीय संस्कृति के ही नहीं, मानव संस्कृति के प्राद्य निर्माता हैं। उनके हिमालयसदृश विराट् जीवन पर दृष्टि डालते-डालते मानव का सिर ऊँचा हो जाता है और अन्तर भाव श्रद्धा से झुक जाता है।
३३०. प्रजापतेः सुतो नाभि तस्यापि आगमुच्यति ।
नाभिनो ऋषभपुत्रो वै सिद्धकर्म दृढ़वतः ॥ तस्यापि मणिचरो यक्षः सिद्धौ हेमवेत गिरो । ऋषभस्य भरतः पुत्रः सोऽपि मंजतान तदा जपेत ।। निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर ऋषभ निर्गन्थ रूपि ।
___ आर्यमंजु श्री मूलकल्प श्लो० ३६०-३६१-३६२ ३३१. उसभं पवरं वीरं ।
--धम्मपद ४२२ ३३२. व्हायस ऑव अहिंसा--भ० ऋषभ विशेषाङ्क, ले० डा० सांकलिया
आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड पृ० ४
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आदिमं पृथ्वीनाथम्,
आदिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथ च,
ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥
-प्राचार्य हेमचन्द्र
आदिपुरुष आदीश जिन,
आदि सुबुद्धि करतार । धर्मधुरंधर परम गुरु,
नमो आदि अवतार ॥
-पाण्डे हेमराज
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परिशिष्ट
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परिशिष्ट |
बहत्तर कलाओं के नाम
१. लेह-लेख लिखने की कला । २. गरिणयं-गणित । ३. रूवं-रूप सजाने की कला । ४. नट-नाट्य करने की कला । ५. गीयं--गीत गाने की कला। ६. वाइयं-वाद्य बजाने की कला । ७. सरगयं--स्वर जानने की कला । ८. पुक्खरयां-- ढोल आदि वाद्य बजाने की कला। ६. समतालं-ताल देना । १०. जूयं---जूआ खेलने की कला। ११. जणवायं-वार्तालाप की कला । १२. पोक्खच्च-नगर के संरक्षण की कला । १३. अट्ठावयं--पासा खेलने की कला । १४. दगमट्टियं-पानी और मिट्टी के संमिश्रण से वस्तु बनाने की कला १५. अन्नविहि-अन्न उत्पन्न करने की कला। १६. पारण विहि-पानी उत्पन्न करना, और उसे शुद्ध करने की कला । १७. वत्थविहि-वस्त्र बनाने की कला । १८. सयणविहि-शय्या निर्माण करने की कला । १६. अज्ज-संस्कृत भाषा में कविता निर्माण की कला । २०. पहेलियं-प्रहेलिका निर्माण की कला । २१. मागहियं-छन्द विशेष बनाने की कला । २२. गाहं-प्राकृत भाषा में गाथा निर्माण की कला । २३. सिलोग-श्लोक बनाने की कला । २४. गंध जूत्ति--सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला । २५. मधुसित्थं- मधुरादि छह रस बनाने की कला ।
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परिशिष्ट १
१६७
२६. श्राभरणविहि— अलंकार निर्माण की तथा धारण की कला । २७. तरुणीपडिकम्मं - स्त्री को शिक्षा देने की कला । २८. इत्थीलक्रणं - स्त्री के लक्षण जानने की कला । २६. पुरिसलक्खणं - पुरुष के लक्षण जानने की कला । ३०. हयलक्खणं - घोड़े के लक्षण जानने की कला । ३१. गयलक्खरणं - हस्ती के लक्षण जानने की कला । ३२. गोलक्खणं - गाय के लक्षण जानने की कला । ३३. कुक्कुडलक्खणं- कुक्कुट के लक्षण जानने की कला । ३४. मिढयलक्खणं-- मेंढ़े के लक्षण जानने की कला । ३५. चक्कलक्खणं- --चक्र-लक्षण जानने की कला । ३६. छत्तलक्खणं - छत्र लक्षण जानने की कला । ३७. दण्डलक्खणं - दण्ड लक्षण जानने की कला ।
३८. असिलक्खणं - तलवार के लक्षण जानने की कला । ३६. मरिणलक्खगं - मणि- लक्षण जानने की कला ।
४०.
कागरिगलक्खरणं -- काकिणी - चक्रवर्ती के रत्नविशेष के लक्षण को जानने की कला ।
४९. चम्मलक्खणं - चर्म-लक्षण जानने की कला । ४२. चंदलक्खणं - चन्द्र लक्षण जानने की कला । ४३. सूरचरियं - सूर्यं आदि की गति जानने की कला ।
४४. राहुवरिगं - राहु आदि की गति जानने की कला । ४५. गहचरियं - ग्रहों की गति जानने की कला ।
४६. सोभागकरं -- सौभाग्य का ज्ञान ।
४७. दोभागकरं - दुर्भाग्य का ज्ञान ।
४८. विज्जागयं-रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि विद्या सम्बन्धी ज्ञान । ४६. मंतगयं मन्त्र साधना आदि का ज्ञान ।
५०. रहस्सगयं - गुप्त वस्तु को जानने का ज्ञान ।
५१. सभासं - प्रत्येक वस्तु के वृत्त का ज्ञान ।
५२. चारं - सैन्य का प्रमाण आदि जानना ।
५३. पडिचारं - - सेना को रणक्षेत्र में उतारने की कला ।
५४. वहं - व्यूह रचने की कला ।
५५. पडिव हं - प्रतिव्यूह रचने की कला (व्यूह के सामने उसे पराजित
करने वाले व्यूह की रचना )
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१६८
ऋषभदेव : एक परिशीलन
५६. खंधावारमाणं- सेना के पड़ाव का प्रमाण जानना । ५७. नगरमाणं- नगर का प्रमाण जानने की कला। ५८. वत्थमाणं-वस्तु का प्रमाण जानने की कला। ५६. खंधावारनिवेसं-सेना का पड़ाव आदि कहाँ डालना इत्यादि
का परिज्ञान । ६०. वत्थुनिवे-प्रत्येक वस्तु के स्थापन कराने की कला । ६१. नगरनिवेसं-नगर निर्माण का ज्ञान । ६२. ईसत्थं-- ईपत् को महत् करने की कला । ६३. छरुप्पवायं - तलवार आदि की मूठ आदि बनाने की कला । ६४. ग्राससिक्खं-अश्व-शिक्षा । ६५. हरिथसिक्खं-हस्ती-शिक्षा । ६६. धणुवेयं -- धनुर्वेद । ६७. हिरण्णपागं, सुवण्णपागं, मणिपागं, धातुपागं-हिरण्यपाक,
सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक बनाने की कला । बाहुजुद्ध, दंडजुद्ध, मुट्ठिजुद्ध, अट्टिजुद्ध, जुद्ध, निजुद्ध, जुद्धाइजुद्ध - बाहु युद्ध, दण्ड युद्ध, मुष्टि युद्ध, यष्टि युद्ध, युद्ध,
नियुद्ध, युद्धातियुद्ध करने की कला । ६६. सूत्ताखेडं, नालियाखेडं, वट्ट खेडं, धम्मखेडं, चम्मखेडं-सूत
बनाने की, नली बनाने की, गेंद खेलने की, वस्तु के स्वभाव
जानने की, चमड़ा बनाने आदि की कलाए । ७०. पत्तच्छेज्ज-कडंगच्छेज्ज= पत्र-छेदन, वृक्षाङ्गविशेष छेदने की
कला। ७१. सजीवं, निज्जीवं- संजीवन, निर्जीवन । ७२. सउणरुयं- पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला ।
(क) समवायाङ्ग सूत्र समवाय ७२ (ख) नायाधम्मकहा पृ० २१ (ग) राजप्रश्नीय सूत्र पत्र ३४० (घ) औपपातिक सूत्र ४०, पत्र ० १८५ (ङ) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका
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परिशिष्ट ।
१. नृत्य २. औचित्य
३. चित्र
४.
५.
वादित्र
मंत्र
तन्त्र
ज्ञान
विज्ञान
६.
७.
८.
ε. दम्भ
चौंसठ कलाओं के नाम
२७.
२८.
२६.
३०.
३१.
३२.
३३.
३४. वैद्यक क्रिया
१०.
जलस्तम्भ
११. गीतमान
१२.
तालमान
१३. मेघवृष्टि
१४. फलाकृष्टि
१५. आरामरोपण
१६. आकारगोपन
१७. धर्मविचार
१८. शकुनसार
१६. क्रियाकल्प
२०. संस्कृत जल्प
प्रासाद नीति
२१.
२२. धर्मरीति
२३. वणिकावृद्धि
२४. सुवर्णसिद्धि
२५. सुरभितैलकरण २६. लीलासंचरण
हयगज परीक्षण
पुरुष स्त्रीलक्षण
हेमरत्न भेद
अष्टादश लिपि परिच्छेद
तत्काल बुद्धि
वस्तुसिद्धि
कामविक्रिया
३५. कुम्भभ्रम
३६. सारिश्रम
३७. अंजनयोग
३८. चूर्णयोग
३६. हस्तलाघव
४०. वचनपाटव
४१. भोज्यविधि
४२. वाणिज्यविधि
४३. मुखमण्डन
४४.
४५. कथाकथन
४६. पुष्पग्रन्थन
४७.
वक्रोक्ति
४८.
काव्य शक्ति
४६. स्फार विधिवेष
शालिखण्डन
५०. सर्वभाषाविशेष
५१. अभिधानज्ञान
५२. भूषणपरिधान
२
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
५३. भृत्योपचार ५४. गृहाचार ५५. व्याकरण
परनिराकरण ५७. रन्धन ५८. केशबन्धन
५६. वीणानाद ६०. वितण्डावाद ६१. अङ्कविचार ६२. लोकव्यवहार ६३. अन्त्याक्षरिका ६४. प्रश्नप्रहेलिका
-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २, टीका पत्र १३६-२, १४०-१ -कल्पसूत्र सुबोधिका टीका ।
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परिशिष्ट |
श्री ऋषभदेव के पुत्र और पुत्रियों के नाम १. भरत
२८. मागध २. बाहुबली
२६. विदेह ३. शङ्ख
३०. संगम ४. विश्वकर्मा
३१. दशार्ण ५. विमल
३२. गम्भीर ६. सुलक्षण,
३३. वसुवर्मा ७. अमल
३४. सुवर्मा ८. चित्राङ्ग
३५. राष्ट्र ६. ख्यातकीति
३६. सुराष्ट्र १०. वरदत्त
३७. बुद्धिकर ११. दत्त
३८. विविधकर १२. सागर
३६. सुयश १३. यशोधर
४०. यशः कीर्ति १४. अवर
४१. यशस्कर १५. थवर
र्तिकर कामदेव
४३. सुषेण
४४. ब्रह्मसेण वत्स
विक्रान्त नन्द
४६. नरोत्तम २०. सूर
४७. चन्द्रसेन
४८. महसेन कुरु
४६. सुसेण अंग
५०. भानु वंग
५१. कान्त कोसल
पुष्पयुत २६. वीर
५३. श्रीधर २७, कलिंग
५४. दुद्धर्ष
ध्रुव
सुनन्द
CC
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________________
१७२
ऋषभदेव : एक परिशीलन
५५. सुसुमार
७८. वसु ५६. दुर्जय
७६. सेन ५७. अजयमान
८०. कपिल ५८. सुधर्मा
८१. शैलविचारी ५६. धर्मसेन
८२. अरिञ्जय ६०. आनन्दन
८३. कुञ्जरबल आनन्द
८४. जयदेव ६२. नन्द
८५. नागदत्त ६३. अपराजित
८६. काश्यप ६४. विश्वसेन
८७. बल ६५. हरिषेण
८८. वीर ६६. जय
८६. शुभमति ६७. विजय
६०. सुमति ६८. विजयन्त
६१. पद्मनाभ ६६. प्रभाकर
६२. सिंह ७०. अरिदमन
६३. सुजाति ७१. मान
६४. सञ्जय महाबाहु
६५. सुनाम ७३. दीर्घबाहु
६६. नरदेव ७४. मेघ
६७. चित्तहर ७५. सुघोष
६८. सुखर ७६. विश्व
६६. दृढरथ ७७. वराह
१००. प्रभजन+ दिगम्बर परम्परा के आचार्य जिनसेन ने १०१ पुत्र माने हैं और उसका
नाम वृषभसेन दिया है । पुत्रियों के नाम१-ब्राह्मी। २-सुन्दरी।
७२.
+ (क) कल्पसूत्र किरणावली पत्र १५१-५२
(ख) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका व्याख्यान ७ पृ० ४६८ * महापुराण पर्व १६, पृ० ३४६
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________________
परिशिष्ट |
ग्रन्थ के टिप्परग में प्रयुक्त ग्रन्थों के नाम
१.
आचाराङ्ग सूत्र
२. आवश्यक नियुक्ति - आचार्य भद्रबाहु
३.
आवश्यक चूर्णि - जिनदासगणी महत्तर
आवश्यक नियुक्ति - मलयगिरि वृत्ति
४.
५. आवश्यक भाष्य
६.
७.
८.
६.
आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति
आदि पुराण
अथर्ववेद
अथर्व संहिता
उत्तराध्ययन सूत्र
उत्तर पुराण
१०.
११.
१२. ऋग्वेद
१३. आर्य मंजुश्री मूलकल्प
१४. अग्निपुराण
१५. औपपातिक सूत्र
आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ कलकत्ता अष्टाध्यायी पाणिनि
१६.
१७.
१८. ईशान संहिता
१६. कल्पसूत्र – आचार्य भद्रबाहु, पं० प्र० पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित २०. कल्पसूत्र - कल्पार्थबोधिनी
२१. कल्पसूत्र – कल्पसुबोधिका टीका - उपाध्याय विनय विजय जो
-
२२. कल्पसूत्र कल्पलता टीका - समय सुन्दर जी
२३. कल्पसूत्र - कल्पद्र ुम कलिका - लक्ष्मीवल्लभ २४. कल्पसूत्र- कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी - राजेन्द्र सूरि २५. कल्पसूत्र - मणिसागर
२६. कूर्मपुराण
२७. काललोक प्रकाश
२८.
कालमाधवीय नागर खण्ड
४
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________________
१७४
ऋषभदेव : एक परिशीलन
२६. चतुर्विंशतिस्तव ३०. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
३१. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका
३२. जैन रामायण - केशराज जी ३३. तत्त्वार्थभाष्य
३४.
द्रव्य संग्रह
३५. चर्पट पंजरिका - आचार्य शंकर
३६. दशवैकालिक चूर्णि - अगस्त्यसिंह चूर्णि
३७. दशवेकालिक चूर्णि - जिनदासगणी महत्तर
३८.
धनञ्जय नाममाला
३६.
नारद पुराण
४०.
त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र - आचार्य हेमचन्द्र
४१. त्रिषष्ठिरालाका पुरुष चरित्र (गुजराती भाषान्तर )
४२. वायु पुराण
४३. ब्रह्माण्ड पुराण
४४.
वाराह पुराण
४५.
स्कन्ध पुराण
४६. स्थानाङ्ग ४७. स्थानाङ्गवृत्ति
४८. समवायाङ्ग
४६. पउमचरियं - विमल सूरि
५०. महापुराण – आचार्य जिनसेन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी
५१. सिद्धान्त संग्रह
५२. मनुस्मृति
५३. सेनप्रश्न
५४. बुद्धचर्या
५५. ललित विस्तर
५६. भगवती सूत्र
५७.
५८. नन्दी सूत्र
५६. श्रमणसूत्र
६०. बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र आचार्य समन्तभद्र
श्रीमद्भागवत
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________________
परिशिष्ट ४
६१. शिवपुराण ६२. प्रभास पुराण ६३. मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ-यावर ६४. पुराणसार संग्रह-आचार्य दामनन्दी
विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति ६६. हिन्दी विश्वकोष-श्री नगेन्द्रनाथ वसु ६७. ऋग्वेद संहिता ६८. शुक्ल यजुर्वेद संहिता ६६. महाभारत ७०. भविष्य पुराण ७१. लोक प्रकाश ७२. प्रश्न व्याकरण ७३. तत्त्वार्थ सूत्र ७४. वायु महापुराण ७५. मुण्डकोपनिषद् ७६. महावीर चरियं-गुणचन्द्राचार्य ७७. महावीर पुराण-आचार्य सकलकीति ७८. उत्तर पुराण-गुगभद्राचार्य ७६. वसुदेव हिण्डी ५०. श्री ऋषभदेव भ० का चरित्र-आ० अमोलख ऋषि ८१. नारद पुराण ८२. विष्णु पुराण ८३. गरुड़ पुराण
मार्कण्डेय पुराण ८५. लिंग पुराण ८६. प्राचीन भारत-गंगाप्रसाद एम० ए० ८७. संस्कृति के चार अध्याय-रामधारीसिह दिनकर ८८. तिलोय पण्णत्ति ८६. नियम सार, तात्पर्य वृत्ति ६०. व्हायस ऑव अहिंसा, भगवान् ऋषभ विशेषाङ्क ६१. ब्रह्म भाष्य-आचार्य शंकर
८४.
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ऋषभदेव : एक परिशीलन
६२. बौद्ध धर्म दर्शन ६३. बौद्ध धर्म क्या कहता है ?-कृष्णदत्त भट्ट ६४. औपपातिक सूत्र ६५. णाया धम्मकहाओ ६६. मोन्योर मोन्योर विलियम संस्कृत इङ्गलिश डिक्शनरी १७. धम्मपद १८. अथर्ववेद कारिका ६९. दर्शन अने चिन्तन-पं० सुखलाल जी १००. जैनप्रकाश-दिल्ली १०१. जैनधर्म और दर्शन-पं० मुनि नथमल जी १०२. जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व-पं० मुनि नथमल जी १०३. निशीथ सूत्र-भाष्य (चूणि सहित)-उपाध्याय अमर मुनि जी १०४. अष्टाह्निका : कल्प-सुबोधिका-(गुजराती : सारा भाई नवाब) १०५. गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ, आगरा १०६. आजकल १०७. अणुव्रत (पाक्षिक) दिल्ली
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