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________________ साधक-जीवन __ अभिनिष्क्रमण के पूर्व श्री ऋषभदेव ने प्रभात के पुण्य-पलों में एक वर्ष तक एक करोड आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन दान दी।३१ इस प्रकार एक वर्ष में तीन अरब अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया । १२ दान देकर, जन-जन के अन्तर्मानस में दान की भव्य-भावना उद्बुद्ध की। महाभिनिष्क्रमण भारतीय इतिहास में चैत्र कृष्णा अष्टमी का दिन133 सदा स्मरणीय रहेगा, जिस दिन सम्राट् श्री ऋषभ राज्य-वैभव को ठुकराकर, भोग-विलास को तिलाञ्जलि देकर, परमात्मत्त्व को जागृत करने के लिए “सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि" सभी पाप प्रवृत्तियों का परित्याग करता है, इस भव्य-भावना के साथ विनीता नगरी से निकलकर सिद्धार्थ उद्यान में, अशोक वृक्ष के नीचे, षष्ठ भक्त के तप १३१. एगा हिरण्णकोडी अट्ठव अणूणगा सयसहस्सा । सूरोदयमाईयं दिज्जइ जा पायरासाओ ।। --आव० नियु० गा० २३६ (ख) त्रिषष्ठि० १।३।२३ १३२. तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीई अ होति कोडीओ। असियं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिण्णं ।। -आव० नि० गा० २४२ (ख) त्रिषप्टि० १।३।२४।५० ६८ १३३. जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चेत्तबहुले तस्स णं चेत्तबहुलस्स अट्ठमीपक्षणं । -कल्पसूत्र सू० १६५ पुण्य० पृ० ५७ (ख) चेत्तबहुलट्ठमीए चउहि सहस्सेहिं सो उ अवरण्हे । सीया सुदसणाए सिद्धत्थवणम्मि छट्ठरणं ॥ -~~-आव०नि० गा० ३३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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