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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव इस प्रकार स्वयंबुद्ध के अकाट्य तर्कों से नास्तिकवादी अमात्य परास्त हो गये। सभी ने आत्मा के पृथक् अस्तित्व को स्वीकार किया और महाबल राजा भी अत्यन्त आह्लादित हुआ।४८ स्वयंबुद्ध अमात्य ने अन्य अनेक उपनयों के द्वारा सम्राट को यह बताया कि शुभ और अशुभ कृत्यों का फल भी क्रमशः शुभ और अशुभ ही होता है । ___वार्ता का उपसंहार करते हुए उसने कहा-राजन् ! आज प्रातः मैं नन्दन वन में परिभ्रमणार्थ गया था, वहाँ दो विशिष्ट लब्धिधारी मुनिवर पधारे । मैंने उनसे आपकी अवशेष आयु के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की तो उन्होंने बताया कि वह एक माह की ही शेष है । ५१ ४८. इति तद्वचनाज्जाता परिषत्सकलैव सा। निरारेकात्मसद्भावे सम्प्रीतश्च सभापतिः ।। -महापुराण ५।८६।१०१ (ख) त्रिषष्ठि ११ त्रिषष्ठि १११६४००।४४२ (ख) महापुराण पर्व ५ । श्लोक ८६ से २१२, पृ० १०१-११२ ५०. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला हवन्ति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला हवन्ति । -औपपातिक सूत्र ५१. ताभ्यां तु भवतो मासमात्रमायुनिवेदितम् । अतस्त्वां त्वरयाम्यद्य, धर्मायैव महामते ! -त्रिषष्ठि ११११४४६ (ख) मासमात्रावशिष्टञ्च जीवितं तस्य निश्चिनु । तदस्य श्रेयसे भद्र ! घटेथास्त्वमशीतकः । -महापुराण ५।२२११११३ (ग) मासावसेसाऊ........ -आव० नि० मल० वृ० पृ० १५८ (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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