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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव प्राचार्य श्री ने श्रेष्ठी को कल्प्य और प्रकल्प्य का परिज्ञान कराया । श्रेष्ठी ने भी कल्प्य प्रकल्प्य का परिज्ञान कर उत्कृष्ट भावना से प्रासुक विपुल घृत दान दिया ।२२ फलस्वरूप सम्यकूत्त्व की उपलब्धि हुई 123 २२. २३. (ग) एवं काले वच्चति थोवावसेसे वासारते धणस्स चिन्ता जाताको एत्थ सत्थे दुक्खितोत्ति ? ताहे सरियं जहा मए समं साहुणो आगया तेसि कंदाई न कप्पंतित्ति, ते दुक्खिया महातवस्सियो, तोसि कल्लं देमि, ततो पभाए ते निमंतिया । (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११५ । (ख) ( ग ) (घ) - आवश्यक मल० वृ० प० १५८ ।१ बहु बोली वासे चिन्ता घयदाणभासि तया । Jain Education International ११ - आवश्यक नियुक्ति गा० १६८ आवश्यकचूर्णि पृ० १३२ । आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति ११५ । ते भणन्ति - जं अम्हं कप्पियं होज्जा तं गेण्हेज्जामो । तेण पुच्छियं भयवं ! किं पुण तुम्भं कप्पइ ? साहूहि भणियं-जं अम्ह निमित्तमकयमकारियमसंकप्पियमहापवत्तातो पाकातो भिक्खामित्तं " "ततो तेण साहूण फासूयं विउलं घयदारणं दिन्नं । (ङ) धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं पुण्योऽहमिति चिन्तयन् । रोमाञ्चितवपुः सर्पिः साधवे स स्वयं ददौ || आनन्दाश्र जलैः पुण्यकन्दं कन्दयन्निव । घृतदानावसानेऽथ धनोऽबन्दत तौ मुनी ॥ सर्वकल्याणसंसिद्धी सिद्धमन्त्रसमं ततः । वितीर्य धर्मलाभं तो जग्मतुनिजमाश्रयम् ॥ -आवश्यक मल० वृ० प० १५८।१ तदानों सार्थवाहेन दानस्याऽस्य प्रभावतः । लेभे मोक्षतरोर्बीजं बोधिबीजं सुदुर्लभम् || - त्रिषष्ठि० १।१।१४०-१४२ ५० ६ -- त्रिषष्ठि १।१।१४३५० ६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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