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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन - उस अटवी में सार्थ को अपनी कल्पना से अधिक रुकना पड़ा, अतः साथ की खाद्य सामग्री समाप्त हो गई । क्षुधा से पीड़ित सार्थ अरण्य में कन्द मूलादि की अन्वेषणा कर जीवन व्यतीत करने लगा। वर्षावास के उपसंहार काल में धन्ना सार्थवाह को अकस्मात् स्मृति आई कि "मेरे साथ जो प्राचार्य पाये थे उनकी आज तक मैंने सुध नहीं ली। उनके पाहार की क्या व्यवस्था है, इसकी मैंने जाँच नहीं की। कन्दमूलादि सचित्त पदार्थों का वे उपभोग नहीं करते।" वह शीघ्र ही प्राचार्य के पास गया और पाहार के लिए अभ्यर्थना की।२१ (घ) सो य सत्थो जाहे अडविमझ सम्पत्तो, ताहे वासारत्तो जातो, ताहे सो सत्थवाहो अतिदुग्गया पन्थ त्ति काऊण तत्थेव सत्थनिवेसं कावासावासं ठितो, तम्मि ठिए सव्वो सत्थो ठिओ। ___-आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० ५० १५८।१ (ङ) त्रिषष्ठि ११११०० । त्रिषष्ठि १।१।१०२। २०. (क) जाहे य दीया वलियाणं निट्ठियं भोयरणं, ताहे कन्दमूलाई समुद्दिन.. " स्तस्मिन् वोच्च शाम -आवश्यक चूणि पृ० ११५ (ख) जाहे य तेसि तत्.दुयाणं भोयणं निट्ठियं, ताहे ते कन्दमूलफलाणि समुद्दिसिउमारद्धा । __-आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० १५८।१ (ग) भूयस्त्वात् सार्थलोकस्य दीर्घत्वात् प्रावृषोऽपि च । अत्रुट्यत् तत्र सर्वेषां पाथेययवसादिकम् ।। ततश्चेतस्ततश्चेलुः कुचेलास्तापसा इव । खादितु कन्दमूलादि क्षुधार्ताः सार्थवासिनः ॥ ___-त्रिषष्ठि १११।१०३-१०४ (घ) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति ११५ आवश्यकनियुक्ति गा० १६८ । (ख) आवश्यकचूणि पृ० १३२ । २१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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