________________
ऋषभदेव : एक परिशीलन
विश्रामरणा देने से श्री ऋषभ के पुत्र बाहुबली हुए जो विशिष्ट बाहुबल के अधिपति थे । १४१
५०
पीठ और महापीठ मुनि के जीवों का ईर्ष्या करने से क्रमशः श्री ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में जन्म हुआ
| १४२
भगवान् श्री ऋषभदेव के विराट् व्यक्तित्व और कृतित्व की झाँकी अगले खण्ड में प्रस्तुत है । यहाँ तो श्रीऋषभदेव के पूर्वभवों का संक्षिप्त रेखा-चित्र उपस्थित किया गया है जो पतनोत्थान का जीवित भाष्य है | श्रमण संस्कृति का यह उद्घोष रहा है कि जब आत्मा पर - परिणति से हटकर स्व-परििित को अपनाता है तब शनैः शनैः शुद्ध बुद्ध निर्मल होता हुआ एक दिन परमात्मा बन जाता है । कर्मपाश से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त होने का नाम ही परमात्मअवस्था है । १४3
इस प्रकार श्रमण संस्कृति ने निजत्व में ही जिनत्त्व की पावन - प्रतिष्ठा कर जन-जन के ग्रन्तर्मानस में प्राशा और उल्लास का संचार किया । प्रसुप्त-देवत्त्व को जगाकर आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान् और नर से नारायण बनने का पवित्र संदेश दिया ।
१४१. त्रिषष्ठि० १२८८६-८८८ । (ख) सुबाहुणा बाहुबलं ।
१४३.
( ग ) सुबाहुणा वीसामणाए बाहुबलं निव्वति ।
१४२. त्रिषष्ठि० १।२१८८४ से ८८६ | (ख) पच्छिमे हिं दोहिं कम्ममज्जितं ति ।
कर्म - बद्धो भवेज्जीवः, कर्ममुक्तस्तथा जिनः ।
- आवश्यक मल० वृ० १६२
Jain Education International
- आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति० १२० । १
ताए मायाए इथिनामगोत्
- आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति० १२०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org