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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन श्री ऋषभदेव ने दूर दूर तक के प्रदेशों की जंघा बल से पदयात्रा कर जन-जन के मन में यह विचारज्योति प्रज्वलित की कि मनुष्य को सतत गतिमान् रहना चाहिए, एक स्थान से द्वितीय स्थान पर वस्तुओं का आयात-निर्यात कर प्रजा के जीवन में सुख का संचार करना चाहिए। जो व्यक्ति प्रस्तुत कार्य के लिए सन्नद्ध हए, वे वैश्य की संज्ञा से अभिहित किये गये ।113 श्री ऋषभदेव ने मानवों को यह प्रेरणा प्रदान की कि कर्म-युग में एक दूसरे के सहयोग के बिना कार्य नहीं हो सकता। अतः ऐसे सेवानिष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता है जो बिना किसी भेदभाव के सेवा कर सकें। जो व्यक्ति सेवा के लिए तैयार हुए उनको श्री ऋषभदेव ने शूद्र कहा । ११४ ___इस प्रकर शस्त्र धारण कर आजीविका करने वाले क्षत्रिय हुए, खेती और पशु पालन के द्वारा जीविका करने वाले वैश्य कहलाये और सेवा शुश्रुषा करने वाले शूद्र कहलाये । ११५ ब्राह्मण वर्ण की स्थापना सम्राट भरत ने की।१६ स्थापना का ११३. ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्राम् अस्राक्षीद वणिजः प्रभुः । जलस्थलादियात्राभिः तद्वृत्तिर्वार्त्तया यतः ॥ -महापुराण २४४।१६।३६८ ११४. न्यग्वृत्तिनियतान् शूद्रान् पद्भ्यामेवासृजत् सुधीः । वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्तिर्नेकधा स्मृता ।। '२४५११६३६८ ११५. क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वं अनुभूय तदाभवन् । वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः ॥ ___-महापुराण १८४।१६।३६२ ११६. ......"ताहे भरहो रज्जं ओयवेत्ता ते य भाउए पव्वइए णाऊण अद्धितीए भणति-कि मम इयाणि भोगेहि ? अद्धिति करेति, कि ताए पीवराएवि सिरीए ? जा सज्जणा ण पेच्छति (गाथा) जदि भातरो मे इच्छन्ति तो भोगे देमि । भगवं च आगतो, ताहे भाउए भोगेहि निमन्तेति, ते ण इच्छन्ति वंतं असितु । ताहे चितेति एतेसि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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