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________________ १४७ तीर्थङ्कर जीवन अभियुक्त सम्राट के आदेशानुसार घूमकर लौट आया। सम्राट् ने प्रश्न किया-क्या तुम नगर में घूमकर आये हो ? अभियुक्त ने विनीत मुद्रा में कहा-हाँ महाराज ! सम्राट ने पुनः प्रश्न किया--नगर में तुमने क्या-क्या देखा ? अभियुक्त ने निवेदन किया-कुछ भी नहीं देखा भगवन् ! सम्राट् ने पुनः पूछा-क्या नगर में जो नाटक हो रहे थे वे तुमने नहीं देखे ? क्या नगर में जो संगीत मण्डलियाँ यत्रतत्र संगीत गा रही थीं उन्हें तुमने नहीं सुना। अभियुक्त ने कहा--राजन् ! जब मौत नेत्रों के सामने नाच रही हो तब नाटक कैसे देखे जा सकते हैं ? और जब मौत की गुनगुनाहट कर्णकुहरों में चल रही हो तब गीत कैसे सुने जा सकते हैं ? ____ सम्राट ने मुस्कराते हुए कहा-क्या मृत्यु का इतना अधिक भय है ? अभियुक्त ने कहा-सम्राट् को इसका क्या पता ? यह तो मृत्युदण्ड पाने वाला ही अनुभव कर सकता है । सम्राट ने कहा-तो क्या सम्राट अमर है ? उसे मृत्यु का साक्षात्कार नहीं करना पड़ेगा ? तुम तो एक जीवन की मृत्यु से ही इतने अधिक भयाक्रान्त हो गए कि आँखों के सामने नाटक होने पर भी नाटक नहीं देख सके और कानों के पास संगीत की सुमधर स्वर लहरियाँ झनझनाने पर भी संगीत नहीं सुन सके । परन्तु बन्ध, तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं तो मृत्यु की दीर्घपरम्परा से परिचित हूँ अतः मुझे अब साम्राज्य का विराट् सुख भी नहीं लुभा पा रहा है । मैं तन से गृहस्थाश्रम में हूँ, पर मन से उपरत हूँ। अभियुक्त को अब भगवान् के सत्य कथन पर शंका नहीं रही। उसे अपना अपराध समझ में आ गया। उसे मुक्त कर दिया गया ।२७५ भरत से भारतवर्ष यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रतापपूर्ण प्रतिभासम्पन्न २७५. (ख) जैन धर्म और दर्शन-मुनि नथमल पृ० १४ (ग) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व पृ० १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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