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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन से करते हुए बताया है कि बाहुबली श्रमण बनकर एक वर्ष तक ध्यानस्थ रहे। भरत के अकृत्य का विचार उनके अन्तर्मानस में बना रहा। जब एक वर्ष के पश्चात् भरत पाकर उनकी अर्चना करते हैं तब उनका हृदय निःशल्य बनता है और केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ।२७४ अनासक्त भरत भरत ने अपने भ्रातात्रों के साथ जो व्यवहार किया था, उससे वे स्वयं लज्जित थे। भ्राताओं को गँवाकर राज्य प्राप्त कर लेने पर भी उनके अन्तर्मानस में शान्ति नहीं थी। विराट् राज्य का उपभोग करते हुए भी वे उसमें आसक्त नहीं थे। सम्राट होने पर भी वे साम्राज्यवादी नहीं थे। एक बार भगवान् श्री ऋषभदेव अपने शिष्यवर्गसहित विनीता के बाग में पधारे। जनसमूह धर्मदेशना श्रवण करने को पाया। प्रवचन परिषद् में ही एक सज्जन ने भगवान् से प्रश्न किया"भगवन् ! क्या भरत मोक्षगामी है ?" वीतराग भगवान् ने कहा'हाँ' । प्रश्नकर्ता ने कहा-'आश्चर्य है भगवान् होकर भी पुत्र का पक्ष लेते हैं।' भरत ने सुना और सोचा-भगवान् पर यह आरोप लगा रहा है। इसे मुझे शिक्षा देनी चाहिए। दूसरे ही दिन उस व्यक्ति को फाँसी की सजा सुना दी गई। फाँसी की सजा सुन वह घबराया, भरत के चरणों में गिरा, गिड़गिड़ाया, अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा। भरत ने कहा-तैल से परिपूरित कटोरे को लेकर विनीता के बाजारों में घूमो। स्मरण रखना, एक बूंद भी नीचे न गिरने पाये। नीचे गिरते ही फाँसी के तख्ते पर लटका दिये जानोगे। यदि एक बूंद भी नीचे न गिरेगी तो तुम्हें मुक्त कर दिया जायेगा। २७४. संक्लिष्टो भरताधीशः सोऽस्मत्त इति यत्किल । हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ।। --महापुराण जिन० ३६।१८६।२१७ द्वि० भा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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