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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन चक्ररत्न या पुत्र रत्न तो इस लोक के जीवन को ही सुख प्रदान करने वाले हैं किन्तु इस लोक और परलोक दोनों में ही जीवन को सुखी बनाने वाला भगवान् का दर्शन ही है,१६५ अतः मुझे सर्वप्रथम भगवान् श्री ऋषभदेव के दर्शन व चरण स्पर्श करना चाहिए ।१६६ माँ मरुदेवी की मक्ति सम्राट् भरत भगवान के दर्शन हेतु सपरिजन प्रस्थित हुए। माँ मरुदेवी भी अपने लाडले पुत्र के दर्शन हेतु चिरकाल से छटपटा रही थी, प्यारे पुत्रा के वियोग से वह व्यथित थी। उसके दारुण कष्ट की कल्पना करके वह कलप रही थी । प्रतिपल-प्रतिक्षण लाडले लाल की स्मृति से उसके नेत्रों में आँसू बरस रहे थे ।१६७ जब उसने सुना कि उसका प्यारा लाल विनीता के बाग में आया है तो वह भी भरत के साथ हस्ती पर आरूढ़ होकर चल पड़ी। भरत के विराट् वैभव को देखकर उसने कहा-बेटा भरत ! एक दिन मेरा प्यारा ऋषभ भी इसी प्रकार राज्यश्री का उपभोग करता था, पर इस समय वह क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर कष्टों को सहन करता हुप्रा विचरता है। पुत्र प्रेम से आँखें छलछला आई । भरत के द्वारा तीर्थङ्करों की दिव्य विभूति का शब्दचित्र प्रस्तुत करने पर भी उसे सन्तोष नहीं हो रहा था ।१६८ किन्तु समवसरण के सन्निकट १६५. तायम्मि पूइए चक्कं पूइग्रं पूअणारिहो ताओ । इहलोइयं तु चक्कं परलोअसुहावहो ताओ । -आवश्यक नियुक्ति गा० ३४३ १६६. निश्चिचायेति राजेन्द्रो गुरुपूजनमादितः । -महापुराण० २४।६।५७३ १६७. त्रिषष्ठि० पर्व० १. स० ४, पृ० १२४।२५ १६८. भगवतो य माता भणति भरहस्स रज्जविभूति दट्ठरणं-मम पुत्तो एवं चेव णग्गओ हिडति । ताहे भरहो भगवतो विभूति वन्नति, सा ण. पत्तियति, ताहे गच्छंतेण भणित्ता--एहि जा ते भगवतो विभूति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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