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________________ १३६ ऋषभदेव : एक परिशीलन जाते हैं । जगत् का उत्कृष्ट-से-उत्कृष्ट वैभव भी मृत्यु का निवारण करने में समर्थ नहीं है। यही कारण है कि देव, दानव, गंधर्व, भूमिचर, सरीसृप, राजा और बड़े-बड़े सेठ, साहूकार भी दुःख के साथ अपने स्थान से च्युत होते देखे जाते हैं । बन्धन से च्युत ताल फल के समान आयु के टूटने पर जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, इत्यादि ।' वस्तुतः यह सम्पूर्ण अध्ययन अतीव मार्मिक और विस्तृत है । मुमुक्षुजनों के लिए मननीय है। भागवतकार ने भी भगवान के पूत्रोपदेश का वर्णन दिया है, जिसका सार इस प्रकार है-पुत्रो ! मानवशरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये भोग तो विष्टाभोजी कूकरशूकरादि को भी प्राप्त होते हैं, अतः इस शरीर से दिव्य तप करना चाहिए क्योंकि इसी से परमात्मतत्व की प्राप्ति होती है ।२४९ प्रमाद के वश मानव कुकर्म करने को प्रवृत्त होता है। वह इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए प्रवृत्ति करता है, पर मैं उसे श्रेष्ठ नहीं समझता, क्योंकि उसी से दुःख प्राप्त होता है ।२५० जब तक आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती तव तक स्वस्वरूप के दर्शन नहीं होते, वह विकार और वासना के दलदल में फंसा रहता है और उसी से बन्धन की प्राप्ति होती है ।२५१ २४६. नायं देहो देहभाजां नुलोके कष्टान् कामानहते विड्भुजां ये। तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्ध येद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ।। -श्रीमद् भागवत ॥५॥११५५६ २५०. नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म, यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति । न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ।। -श्रीमद् भागवत ५।५।४।५५६ २५१. पराभवस्तावदबोध-जातो, यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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