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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन चतुर्दशभक्त से आत्मा को तापित करते हुए अभिजित नक्षत्र के योग में, पर्यङ्कासन में स्थित, शुक्ल ध्यान के द्वारा वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म और गोत्र-कर्म को नष्ट कर सदा-सर्वदा के लिए अक्षर अजर अमर पद को प्राप्त हुए । 11 जैन परिभाषा में इसे निर्वारण या १५६ ३११. चउरासीइं पुव्व सय सहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयगिज्जाउयनामगोते, इमीसे ओसप्पिणीए सुसम समाए समाए बहुविक्कताए तिहि वासेहि अद्धनवमेहि य मासेहि सेसेहि उप्पि अट्ठावयसेलसिहरंसि दसहि अणगारसहस्सेहिं सद्धि चोदसमे भत्ते अम्पाए अभिरणा नक्खते जोगमुवागएणं पुव्वहकालसमसि संपलियंक निसन्ने कालगए विइक्कते जाव सव्वदुक्खप्पही । -- कल्पसूत्र, सू० १६६, पृ० ५६ (ख) निव्वाणमंतकिरिया सा चोदसमेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएरणं वीरजिणिदस्स छणं ॥ अट्ठावय- चंपु-ज्जेत - पावा- सम्मेयसेल सिहरेसु 1 उसभ वसुपुज्ज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया || - आवश्यक नियुक्ति० गा० ३२८-३२६ दसहि सहस्से सभे सेसा उ सहस्सपरिवुडा सिद्धा । - आवश्यक नि० गा० ३३३ (ग) एवं च सामी विहरमाणो थोवणगं पुव्वसयसहस्सं केवल परियायं पाउणित्ता पुणरवि अट्ठावए पव्वए समोसढो, तत्थ चोद्दसमेण भत्तेण पाओवगतो, तत्थ माहबहुलतेरसीपक्खेणं दसहि अणगारसहस्सेहि सद्धि संपरिवडे संपलियंकणिसनो पुव्वण्हकालसमयंसि अभिइणा णक्खत्तेणं सुसमदूसमाए एगुणणउतीहिं पक्खेहि सेसेहिं खीणे आउगे णामे गोत्तं वेयणिज्जे कालग जाव सव्वदुक्खपणे । चुलसीतीए जिणवरो, Jain Education International समणसहस्सेहिं परिवुडो भगवं । दसहि सहस्सेहि समं, निव्वाणमगुत्तरं पत्तो 11 -- आवश्यक चूर्णि पृ० २२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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