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श्री ऋषभ पूर्वभव
उत्तर में ज्येष्ठ मुनि ने बतलाया कि 'पूर्व भव में जिस समय तुम्हारा जीव महाबल राजा था उस समय मैं तुम्हारा स्वगंबुद्ध मन्त्री था।२ संयम धारण कर मैं सौधर्म स्वर्ग में स्वयंप्रभ विमान में मणिचूल नामक देव बना। वहाँ से प्रच्युत होकर मैं पुण्डरीकिरणी नगरी में राजा प्रियसेन का ज्येष्ठपुत्र प्रीतिकर हुआ । मेरी माता का नाम सुन्दरी है और लवुभ्राता का नाम प्रीतिदेव है, जो संप्रति मेरे साथ ही हैं ।९३ हम दोनों ही भ्राताओं ने स्वयंप्रभ जिनराज के समीप दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि प्राप्त की है। आपको यहाँ जानकर हम आपको सम्यक्त्व रूपी रत्न देने के लिए आये हैं।'
(ख) आगतो चारणो वीक्ष्य सन्निविष्टो शिलातले । मूर्ना प्रणम्य पप्रच्छ, के यूयमागताः कुतः ?
-पुराणसार श्लो० ४५, पर्व २, पृ० २६ ६२. त्वं विद्धि मां स्वयंबुद्ध यतोऽबुद्धाः प्रबुद्ध धीः । महाबलभवे जैनं धर्म कर्मनिवर्हणम् ॥
-महापुराण श्लो० १०५, पर्व० ६, पृ० १६६ (ख) उवाचाहं स्वयंबुद्धस्तत्राकाषं सुसंयमम् । सौधर्मे मणिचूलाख्यो देव आसं स्वयम्प्रभे ॥
-पुराणसार ४६।२।२६ ६३. महापुराण श्लो० १०८-१०६ पर्व० ६ पृ० १६६ । (ख) प्रच्युतः पुण्डरीकिण्यां सुन्दरी-प्रियसेनयोः । भ्राता प्रीतिसुदेवोऽयं ज्यायान् प्रीतिकरोऽस्म्यहम् ।।
-पुराणसार ४७।२।२६ ६४. स्वयम्प्रभजिनोपान्ते दीक्षित्वा वामलप्स्वहि । सावधिज्ञानमाकाशचारणत्वं . तपोबलात् ॥
.-महापुराण ११०।६।१६६ (ख) स्वयम्प्रभाहंतः पार्श्वे दीक्षिती प्राप्तलीलिको ।
-पुराणसार ४८।२।२६
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