SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन सम्यक्त्व रूपी रत्न से बढ़कर विश्व में न कोई वस्तु है, न हुई है और न होगी ही । इसी से भव्य प्राणियों ने मुक्ति प्राप्त की है तथा आगे प्राप्त करेंगे । अतएव सम्यक्त्व सबसे श्रेष्ठ है । " जब देशनालब्धि और काललब्धि प्रादि बहिरंग कारण और करण लब्धिरूप अन्तरंग कारण मिलता है तभी भव्यप्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का पात्र बन सकता है । जो पुरुष एक अन्तर्मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसार रूपी बेल को काट कर बहुत ही लघु कर देता है ।" इस प्रकार सम्यग्दर्शन के महत्त्व को समझाकर और दोनों को रत्नत्रय में आद्य रत्न सम्यक्त्व को देकर वे चारणमुनि अपने स्थान चले गये ।" 飲 ६५. ६. इतोऽन्यदुत्तरं नास्ति न भूतं न भविष्यति । इह सेत्स्यन्ति सिद्धाश्च तस्मात्सम्यक्त्वमुत्तमम् ।। £5. देशनाकाललब्ध्यादिबाह्यकारणसम्पदि । अन्तःकरणसामग्रयां भव्यात्मा स्याद् विशुद्धकृत् ॥ ६७. लब्धसद्दर्शनो जीवो मुहूर्तमपि पश्य यः । संसारलतिकां छित्त्वा कुरुते हासिनीमसो ॥ --पुराणसार ४६।२।२६ (ख) इति प्रीतिङ्कराचार्यवचनं स सजानिरादधे सम्यग्दर्शनं - महापुराण ११६/९/१९६ दत्वा ताभ्यां त्रिरत्नाद्य गताम्बरचारिणौ । Jain Education International -- महापुराण १३५।६।२०१ - पुराणसार ५१।२।२६ प्रमाणयन् । प्रीतमानसः ॥ पुनर्दर्शनमस्त्वार्यं ! सद्धर्म मा स्म विस्मरः । इत्युक्त्वान्तर्हितौ सद्यः चारणी व्योमचारणौ ।। - महापुराण १४८।१५७।६। पृ० २०२ - २०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy