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ऋषभदेव : एक परिशीलन
साधिकार नेतृत्व करता है एवं वह युग की जनता को सही दिशा-दर्शन देता है। भूले-भटके जीवन राहियों का पथप्रदर्शन करता है। अतः वह समाज रूपी शरीर का मुख भी है और मस्तिष्क भी है।
भगवान् श्री ऋषभदेव ऐसे ही युगपुरुष थे, जिन्होंने अपने युग की भोली-भाली जनता को "सत्यं, शिवं सुन्दरम्" का पाठ पढ़ाया, जनजीवन को नया विचार, नयी वाणी एवं नया कर्म प्रदान किया ।भोगमार्ग से हटाकर कर्ममार्ग, प्रवृत्तिमार्ग और योगमार्ग पर लगाया । अज्ञानान्धकार को हटाकर ज्ञान का विमल आलोक प्रज्ज्वलित किया । मानव-संस्कृति का नव-निर्माण किया । यही कारण है कि अनन्त-अतीत की धूलि भी उनके जीवन की चमक एवं दमक को आच्छादित नहीं कर सकी। भारतीय संस्कृति के आद्यनिर्माता
आज मानवसंस्कृति के प्राद्यनिर्माता महामानव भगवान् श्री ऋषभदेव को कौन नहीं जानता ? वे वर्तमान अवसर्पिणी काल-चक्र में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर हुए हैं।' उन्होंने ही सर्वप्रथम पारिवारिक प्रथा, समाजव्यवस्था, शासनपद्धति, समाजनीति और राजनीति की स्थापना की और मानवजाति को एक नया प्रकाश दिया जिसका उल्लेख अगले पृष्ठों में किया जाएगा। जन्म से पूर्व
भगवान् श्री ऋषभदेव ऐसे युग में इस अवनीतल पर आये जब
१. (क) एत्थणं उसहेणामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली, पढमतित्थयरे, पढम धम्मवर चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था।
-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति . (ख) उसभे इ वा, पढमराया इ वा, पढमभिक्खाचरे इवा, पढमजिणे इवा, पढमतित्थकरे इ वा।।
-कल्पसूत्र० पुण्यविजयजी सू० १६४ पृ० ५७
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