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________________ गृहस्थ जीवन आर्यावर्त के मानवीय जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा था । जीवन का ढंग पूरी तरह पलट रहा था । निष्क्रिय - यौगलिक काल समाप्त होकर कर्मयुग का प्रारम्भ होने जा रहा था । प्रतिपल, प्रतिक्षण मानव की आवश्यकताएँ तो बढ़ रही थीं पर उस युग के जीवन निर्वाह के एक मात्र साधन कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण हो रही थी । साधनों की अल्पता से संघर्ष होने लगा, वाद-विवाद, लूट-खसोट और छीना-झपटी होने लगी । संग्रहबुद्धि पैदा होने लगी । स्नेह, सरलता, सौम्यता, निस्पृहता प्रभृति सद्गुणों में परिस्थिति की विवशता से परिवर्तन आने लगा । अपराधी मनोभावना के बीज अंकुरित होने लगे । शासन व्यवस्था विख्यात राजनैतिक विचारक टामस्पेन ने लिखा है, “मानव अपनी बुरी प्रवृत्तियों पर स्वयं नियंत्रण नहीं रख सका इसलिए शासन का जन्म हुआ । शासन का कार्य है व्यक्ति की बुरी प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना । अच्छी प्रवृत्ति फूल की लता है, फल का वृक्ष है, जिसे बुरी प्रवृत्ति की झाड़ियाँ घेरती हैं, पनपने नहीं देतीं। शासन का काम इन झाड़ियों को काटना है ।" प्रस्तुत सन्दर्भ के प्रकाश में हम जैन संस्कृति की दृष्टि से देखें तो भी शासन व्यवस्था का मूल अपराध और ग्रव्यवस्था ही है । अपराध और अव्यवस्था पर नियंत्रण पाने के हेतु सामूहिक जीवन जीने के लिए मानव विवश हुया । मानव की अन्तः प्रकृति ने उसे प्रेरणा प्रदान की । उस सामूहिक व्यवस्था को 'कुल' कहा गया। कुलों का मुखिया जो प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न होता था वह 'कुलकर' कहलाने लगा । वह उन कुलों की सुव्यवस्था करता । 3 २. ज्ञानोदय, वर्ष १७ अङ्क २ अगस्त १६६५, सहचिन्तन, ५५ स्थानांग सूत्रवृत्ति ० सू० ७६७, पत्र ५१८-१ । Jain Education International ( कन्हैयालाल मिश्र ) पृ० १४४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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