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-जिस तरह भी ये इन्द्रियाँ साधक के वशवर्ती रहें, कुमार्ग की ओर न दौड़ें, उसी तरह मध्यम वृत्ति का आश्रय लेकर प्रयत्न करना चाहिए ।
-दोषों को दूर करने के लिए उपवास आदि का उपक्रम है, और प्राण धारणा के लिए आहार का ग्रहण है, 'यह जैन सिद्धान्तसम्मत साधना सूत्र है।
- साधक को कायक्लेश तप उतना ही करना चाहिए, जितने से अन्तर में संक्लेश न हो । क्योंकि संक्लेश हो जाने पर चित्त समाधिस्थ नहीं रहता; उद्विग्न हो जाता है, जिसका किसी न किसी दिन यह परिणाम आता है कि साधक पथभ्रष्ट हो जाता है ।
भगवान् ऋषभ के द्वितीय पुत्र महाबली बाहुबली, युद्ध में अपने ज्येष्ठ बन्धु भरतचक्र-वर्ती को पराजित करके भी, राज्यासन से विरक्त हो गए। कायोत्सर्ग मुद्रा में अचल हिमाचल की तरह अविचल एकान्त वनप्रदेश में खड़े हो गए । एक वर्ष पूरा होने को आया, न अन्न का एक दाना और न पानी की एक बूंद । न हिलना, न डुलना । सचेतन भी अचेतन की तरह सर्वथा निष्प्रकम्प । कथाकारों की भाषा में मस्तक पर के केश बढ़ते-बढ़ते जटा हो गए और उनमें पक्षी नीड़ बनाकर रहने लगे। घुटनों तक ऊँचे मिट्टी के वल्मीक चढ़ गए, और उनमें विषधर सर्प निवास करने लगे। कभी-कभी सर्प वल्मीक से निकलते, सरसराते ऊपर चढ़ जाते और समग्र शरीर पर लीलाविहार करते रहते । भूमि से अंकुरित लताएँ पदयुगल को परिवेष्टित करती हुई भुजयुगल तक लिपट गई। इतना होने पर भी कैवल्य नहीं मिला, नहीं मिला । तप का ताप चरमबिन्दु पर पहुँच गया, फिर भी अन्तर का कल्मष गला नहीं, मन का मालिन्य धुला नहीं। इतनी अधिक उग्र, इतनी अधिक कठोर साधना प्रतिफल की दिशा में शून्य क्यों, यह प्रश्न हर साधक के मन पर मंडराने लगा। भगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी को भेजा, इसलिए कि वह बाहर से अन्दर में प्रवेश करे, अन्दर के अहं को तोड़ गिराए । ब्राह्मी और सुन्दरी के माध्यम से भगवान् ऋषभदेव का सन्देश मुखरित हुआ।
"प्राज्ञापयति तातस्त्वां, ज्येष्ठाय ! भगवानिदम् । हस्तिस्कन्धाधिरूढानाम् उत्पद्यत म केवलम् ॥"
-त्रिषष्टि० ११६७८९ -हे आर्य, पूज्य पिता भगवान् ऋषभदेव तुम्हें सूचित करते हैं कि हाथी पर चढ़े हुओं को केवल ज्ञान नहीं हो सकता।
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