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ऋषभदेव : एक परिशीलन
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जैनसंस्कृति की तरह ही बौद्धसंस्कृति ने भी बुद्धत्व की उपलब्धि के लिए दान, शील, नैष्कर्म्य, प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति, सत्य अधिष्ठान [दृढ़ निश्चय], मैत्री ; उपेक्षा [सुख दुख में समस्थिति ] दस पारमिताएँ [ पाली रूप पारमी] अपनाना आवश्यक माना है । 2 दस पारमिताओं और बीसस्थानों में भी अत्यधिक समानता है । तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रमरण संस्कृति की दोनों ही धाराम्रों ने तीर्थङ्कर व बुद्ध, बनने के लिए पूर्वभवों में ही ग्रात्म-मन्थन, चित्तग्रंथन, गुणों का उत्कीर्तन तथा गुणों का धारण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना है ।
वज्रनाभ मुनि ने भी विशुद्ध परिणाम से श्वेताम्बर ग्रंथानुसार
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व्रतस्थेवमादिषु ।
स वैयावृत्यमातेने, अनात्मतरको भूत्वा तपसो हृदयं हि तत् ॥ स तेने भक्तिमर्हत्सु पूजामर्हत्सु निश्चलाम् । आचार्यान् प्रश्रयी भेजे मुनीनपि बहुश्रुतान् ॥ परां प्रवचने भक्ति आप्तोपज्ञे ततान सः । न पारयति रागादीन् विजेतुं सन्ततानसः ॥ अवश्यमवशोऽ प्येष वशी स्वावश्यकं दधौ । षड्भेद' देशकालादिसव्यपेक्ष मनूनयन् 11 मार्ग प्रकाशयामास तपोज्ञानादिदीधितीः । दधानोऽसौ मुनीनेनो भव्याब्जानां प्रबोधकः ॥ वात्सल्यमधिकं चक्रे स मुनिर्धर्मवत्सलः । विनेयान् स्थापयन् धर्मे जिनप्रवचनाश्रितान् ॥
- महानुराग श्लोक ० ६० से ७७, पर्व ९१ पृ० २३३-३४ (ख) दर्शनवि युद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी सङ्घ साधुसमाधिव' या नृत्य कर मदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहानिर्मार्गप्रभावना प्रवचन वत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य । -तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० २३
१२८. बौद्धधर्म दर्शन पृ० १८१-१८२ ।
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