________________
श्री ऋषभ पूर्वभव
४५
बीस स्थानकों की और दिगम्बर ग्रन्थानुसार सोलह भावनाओं की आराधना कर तीर्थङ्कर नाम गोत्र का अनुबन्धन किया। अन्त में मासिक संलेखनापूर्वक पादपोपगमसंथारा करसमाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण किया। ___ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि वज्रनाभ के शेष चारों लघु भ्राताओं में से बाहुमुनि मुनियों की वैयावृत्य करता और सुबाहु मुनि परिश्रान्त मुनियों को विश्रामरणा देता--१३१ अर्थात् थके हुए मुनियों के अवयवों का मर्दन आदि करके सेवा करता। दोनों की सेवा भक्ति को निहार कर वज्रनाभ अत्यधिक प्रसन्न हुए
१२६. तत्थ पढमेण वइरणाभेण वीसाए कारणेहि तित्थयरत्त निबद्ध।
—आवश्यक चूणि० पृ० १३४ (ख) वइरणाभेण य विसुद्धपरिणामेण तित्थगरणामगोत्तं कम्म बद्ध ति ।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० ११८ १३०. इत्यमूनि महाधैर्यो मुनिश्चिरमभावयत् । तीर्थंकृत्त्वस्य सम्प्राप्तौ कारणान्येष षोडश ।।
-महापुराण ७८।११।२३४ (ख) जगदग्रंश्यपण्यानि त्रैलोक्यक्षोभणानि च । कारणानि च जैनस्य भावयामास षोडश ॥
--पुराणसार ७१२।३२ १३१. (क) तत्थ बाहू सो तेसिं सवेसि वेयावच्चं करेति । जो सो सुबाहु, सो भगवन्ताणं कितिकम्मं करेति ।
-आवश्यक चूणि पृ० १३३ (ख) तत्थ बाहु तेसि वेयावच्चं करेति, जो सुबाहू सो साहुणो बीसामेति ।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० २१८ (ग) तत्थ वाहू तेसि अन्नेसि च साहूणं वेयावच्चं करेइ, जो सुबाहू सो साहुणो विस्सामेइ ।
-आवश्यक मल० वृत्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org