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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन और उनकी प्रशंसा करते हुए बोले-तुमने सेवा और विश्रामणा के द्वारा अपने जीवन को सफल किया है।३२ ज्येष्ठ भ्राता के द्वारा अपने मझले भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर पीठ, महापीठ मुनि के अन्तर्मानस में ये विचार जागृत हुए कि हम स्वाध्याय आदि में निरन्तर तन्मय रहते हैं, पर खेद है कि हमारी कोई प्रशंसा नहीं करता, जबकि वैयावृत्य करने वालों की प्रशंसा होती है । 33 इस ईर्ष्याबुद्धि की तीव्रता से मिथ्यात्व आया और उन्होंने १३२. एवं ते करेंति वइरनाभो भगवं अणुवहति-अहो सुलद्ध जम्मजीवियफलं जं साधूणं वेयावच्चं कीरइत्ति, परिसन्ता वा साधुणो वीसामिज्जन्ति, एवं पसंसति । -आवश्यक चूणि पृ० १३३ आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११८ । एवं ते करते भयवं वयरनाभो-अणुवहइ अहो सुलद्ध जम्म सहलीकयं जीवियं जं साहूण वेयावच्चं कीरइ, परिस्सन्ते वा साहुणो विस्सामेइ । -आवश्यक मल० वृत्ति० ५० १६०१ (घ) अहो ! धन्याविमौ वैयावृत्यविश्रामणाकरौ । इति बाहुसुबाहू तौ वज्रनाभस्तदाऽस्तवीत् ॥ त्रिषष्ठि० १११९०६ १३३. एवं पसंसिज्जन्तेसु तेसु तेसिं दोण्हमग्गिल्लारणं अपत्तियं भवति, अम्हे सज्झायन्ता ण पसंसिज्जामो, जो करेइ सो पसंसिज्जइ । -आवश्यक चूणि पृ० १३३-१३४ (ख) एवं पसंसिज्जतेसु तेसु तेसि पच्छिमारणं दोण्हवि पीढमहापीढाणं अप्पत्तियं भवइ, अम्हे सज्झायन्ता न पसंसिज्जामो जो करेइ सो पसंसिज्जइ, सच्चो लोगववहारोत्ति । ___आवश्यक मल० वृ० ५० १६०१ (ग) तौ तु पीठ-महापीठो, पर्यचिन्तयतामिति । उपकारकरो यो हि स एवेह प्रशस्यते ॥ आगमाध्ययनध्यानरतावनुपकारिणौ । को नौ प्रशंसत्वथवा, कार्यकृद्गृह्यको जनः ।। १०७-६०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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