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________________ श्री ऋषभ पूर्वंभव स्त्री वेद का बन्धन किया । आलोचन-प्रतिक्रमण न करने पर स्वल्प दोष भी अनर्थ का कारण बन जाता है ।136 -- सेवा के कारण बाहुमुनि ने चक्रवर्ती के विराट् सुखों के योग्य कर्म उपार्जित किये13५ और सुबाहु मुनि ने विश्रामणा के द्वारा लोकोत्तर बाहुबल को प्राप्त करने योग्य कर्पबन्धन किया।११६ प्रस्तुत प्रसंग महापुराण में नहीं है। [१२] सर्वार्थसिद्ध आयु पूर्ण कर वज्रनाभ आदि पाँचों भाई सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए, वहाँ वे तेतीस सागरोपम तक सुख के सागर में तरते रहे ।१३७ १३४. एवं ताभ्यां गुरुषु मात्सर्यमुद्वहद्भ्यां तथाविधतीव्रामर्षवशान्मिथ्या त्वमुपगम्य स्त्रीत्वमुपचितं, स्वल्पोऽपि दोषोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तो महानर्थफलो भवति। -आवश्यक मल० वृ० १६०।१ (ख) ताभ्यामनालोचयट्यामितीकृितदुष्कृतम् । मायामिथ्यात्वयुक्ताभ्यां, कर्म स्त्रीत्वफलं कृतम् ।। -त्रिषष्ठि १३१६०६ १३५. बहुनाऽपि च साधूनां वैयावृत्यं वितन्वता । चक्रवर्तिभोगफलं कर्मोपार्जितमात्मनः । -त्रिषष्ठि० १११९०४ १३६. विश्रामणां महर्षीणां कुर्वाणेन तपोजुषाम् । - सुबाहुना बाहुबलं लोकोत्तरमुपाजितम् ।। -त्रिषष्ठि १।१।६०५ १३७. ततो पंचवि अहाउयं पालइत्ता कालं काऊण सव्वट्ठ सिद्धिमहाविमाणे तेत्तीस सागरोवमट्ठिइया देवा उववण्णा । -आवश्यक नियुत्ति मल• वृ० १६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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