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तीर्थङ्कर जीवन
के शेष अथवा अन्तिम पक्ष की, और उत्तर प्रान्तीय मानव के फाल्गुन के प्रथम मास की कृष्णा चतुर्दशी शिवरात्रि कही गई है । ३१९
पूर्व बताया जा चुका है कि ऋषभदेव का महत्त्व केवल श्रमरण परम्परा में ही नहीं अपितु ब्राह्मणपरम्परा में भी रहा है । वहाँ उन्हें आराध्यदेव मानकर मुक्त कंठ से गुणानुवाद किया गया है । सुप्रसिद्ध वैदिक साहित्य के विद्वान् प्रो० विरुपाक्ष एम. ए. वेदतीर्थ और प्राचार्य विनोबा भावे जैसे बहुत विचारक ऋग्वेद आदि में ऋषभदेव की स्तुति के स्वर सुनते हैं । +
श्री रामधारीसिंह दिनकर भ० श्री ऋषभदेव के सम्बन्ध में लिखते हैं--" मोहन जोदड़ो " की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं । और जैनमार्ग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालान्तर में शिव के साथ समन्वित हो गई । इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना प्रयुक्तियुक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेद पूर्व हैं ।
डाक्टर जिम्मर लिखते हैं- "प्रज प्राग् ऐतिहासिक काल के महापुरुषों के अस्तित्व को सिद्ध करने के साधन उपलब्ध नहीं हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि वे महापुरुष हुए ही नहीं । इस अवसर्पिणी काल में भोग-भूमि के अन्त में अर्थात् पाषाणकाल के अवसान पर कृषिकाल के प्रारम्भ में पहले तीर्थङ्कर ऋषभ हुए। जिन्होंने मानव को सभ्यता का पाठ पढ़ाया, उनके पश्चात् और भी तीर्थङ्कर हुए,
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माघमासस्य शेषे या प्रथमे कृष्णा चतुर्दशी सा तु शिवरात्रिः
फाल्गुणस्य च 1 प्रकीर्तिता ॥
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- कालमाधवीय नागर खण्ड
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पूर्वं इतिवृत्त - उपाध्याय अमरमुनिजी महाराज, गुरुदेव श्री रत्नमुनि । * आजकल, मार्च १६६२ पृ० ८ ।
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