SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन यह एक लाक्षणिक वर्णन है । पर पीछे के प्राचार्य लाक्षणिकता को विस्मृत कर शब्दों से चिपट गये और उन्होंने कहा—ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजात्रों से क्षत्रिय, उरुत्रों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। एतदर्थ ब्राह्मण को मुखज, क्षत्रिय को बाहुज वैश्य को उरुज और परिचारक को पादज लिखा है । १२७ ६२ वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर भगवान् श्री ऋषभदेव को "ब्रह्मा" कहा है। संभवतः प्रस्तुत सूक्त का सम्बन्ध भगवान् श्री ऋषभदेव से ही हो । जैन संस्कृति की तरह वैदिक संस्कृति भी वर्णोत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत रखती है। साथ ही जैन संस्कृति की तरह वह भी प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था जन्म से न मानकर कर्म से मानती थी । १२८ (ख) शुक्ल यजुर्वेद संहिता | ३१।१०-११ किं बाहू किमुरु ? ( ग ) १२८. - अथर्ववेद संहिता १६ ६ ६ मुखबाहूरुपादजाः 1 वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः । (घ) विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा १२७. वक्त्राद् भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे । सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः || मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः । ऊरुजा धनिनो राजन् पादजाः परिचारकाः ।। - भागवत ११।१७।१३। द्वि० भा० पृ० ८०६ Jain Education International - महाभारत श्लो० ४-६, अध्याय २९६ न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥ For Private & Personal Use Only - महाभारत www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy