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________________ सौन्दर्य ही सच्चा सौन्दर्य है। भावना का वेग बढ़ा, क-मल को धोकर वे केवल ज्ञानी बन गये ।२९६ ___ श्रीमद् भागवतकार ने सम्राट् भरत का जीवन कुछ अन्य रूप से चित्रित किया है। राजर्षि भरत सारी पृथ्वी का राज भोगकर वन में चले गये और वहाँ तपस्या के द्वारा भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में भगवत्स्थिति को प्राप्त हुए ।२९७ जैन दृष्टि से भगवान् के सौ ही पुत्रों ने तथा ब्राह्मी सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने श्रमरणत्व स्वीकार किया और उत्कृष्ट साधना कर कैवल्य २६६. आयंसघरपवेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य ।। -आवश्यक नियुक्ति गा० ४३६ (ख) अह अन्नया कयाति सव्वालंकारविभूसितो आयंसघरं अतीति, तत्थ य सव्वंगिओ पुरिसो दीसति, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलेज्जगं पडियं, तं च तेण ण णायं पडियं, एवं तस्स पलोए तस्स जाहे तं अंगुलिं पलोएति जाव सा अंगुली न सोहति तेण अगुलीज्जएण विणा, ताहे पेच्छति पडियं, ताहे कडगंपि अवणेति, एवं एक्केक्कं आभरणं अवणेतेण सव्वाणि अवणीताणि, ताहे अप्पाणं पेच्छति उच्चियपउमं व पउमसरं असोभमाणं पेच्छइ । पच्छा भणति-आगतु एहि दव्वेहि विभूसितं इमं सरीरगंति, एत्थं संवेगमावन्नो। इमं च एवं गतं सरीरं, एवं चितेमाणस्स ईहावूहा मग्गणगवेसणं करेमाणस्स अपुब्वकरणं झाणं अणुपविट्ठो केवलणारणं उप्पाडेति । -आवश्यक चूणि, पृ० २२७ (ग) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पृ० २४६ । २६७. स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् । उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ।। -भागवत ११।२।१८ पृ० ७११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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