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ऋषभदेव : एक परिशीलन
में यही नाम आया है। उनके नाम के साथ "नाथ" और "देव" शब्द कब जुड़े, यह कहना कठिन है, तथापि यह स्पष्ट है कि ये शब्द उनके प्रति भक्ति और श्रद्धा के सूचक हैं ।
दिगम्बरपरम्परा में ऋषभदेव के स्थान पर "वृषभदेव" भी प्रसिद्ध है। वृषभदेव जगत् भर में ज्येष्ठ हैं और जगत् का हित करने वाले धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेंगे, एतदर्थ ही इन्द्र ने उनका नाम वृषभदेव रखा ।४२ वृष कहते हैं श्रेष्ठ को। भगवान् श्रेष्ठ धर्म से शोभायमान हैं, इसलिए भी इन्द्र ने उन्हें 'वृषभ स्वामी' के नाम से पुकारा।
श्री ऋषभदेव धर्म और कर्म के प्राद्यनिर्माता थे, एतदर्थ जैन इतिहासकारों ने उनका एक नाम "आदिनाथ" भी लिखा है और यह नाम अधिक जन-मन प्रिय भी रहा है।
श्री ऋषभदेव प्रजा के पालक थे, एतदर्थ प्राचार्य जिनसेन ४८ व प्राचार्य समन्तभद्र ने उनका एक गुण-निष्पन्न नाम
४२. वृषभोऽयं जगज्ज्येष्ठो, वर्षिष्यति जगद्धितम् । धर्मामृतमितीन्द्रास्तम्, अकार्षुवृपभाह्वयम् ।।
---महापुराण, जिनसेन पर्व १४, श्लो० १६०, पृ० ३१६ ४३. वृपो हि भगवान्धर्मः, तेन यद्भाति तीर्थकृत् । ततोऽयं वृषभस्वामीत्याह्वास्तैर्न पुरन्दरः ।।
--महापुराण, जिनसेन पर्व १४, श्लो० १६१, पृ० ३१६ ४४. आषाढमासबहुलप्रतिपद्दिवसे कृती । कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान् ।।
--महापुराण १६०।१६।३६३ ४५. प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविपुः,
शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निर्विविदे विदाम्बरः ।।
-वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र
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