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________________ गृहस्थ जीवन ६६ अभिहित किया। आचार्यों ने व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- इक्षु + श्राकु (भरणार्थे) इक्ष्वाकु | 1996 विवाह परम्परा सामाजिक रीतिरिवाज, जिसमें विवाहप्रथा भी सम्मिलित है, कोई शाश्वत सिद्धान्त नहीं, किन्तु उन में युग के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। भाई-बहिन का विवाह इस युग में बड़े से बड़ा पाप माना जाता है, किन्तु उस युग में यह एक सामान्य प्रथा थी । यौगलिक परम्परा में भाई और भगिनी ही पति और पत्नी के रूप में परिवर्तित हो जाया करते थे । सुनन्दा के भ्राता की अकाल में मृत्यु हो जाने से ५४. ५५. (क) सक्को वसवणे इक्खु अगू तेण हुन्ति इक्खागा । - आवश्यक नियुक्ति गा० १८६ । ( ख ) भगवता लट्ठीसु दिट्ठी पाडिता, ताहे सक्केण भणियं - कि भगवं ! इक्खुअकु । अकु भवखणे, ताहे सामिणा पसत्थो लक्खणधरो अलंकित विभूसितो दाहिणहत्थो पसारितो, अतीव तम्मि हरिसो जातो भगवन्तस्स, तएरणं सक्क्स्स देविंदस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिते - जम्हा गं तित्थगरो इक्खु अभिलसति तम्हा इक्खागुवंसो भवतु, एवं सक्को वंसं ठवेऊण गतो, अन्नेऽवि तं कालं खत्तिया इक्खु भुञ्जन्ति तेण इक्खागवंसा जाता इति उवरि आहारद्दारे निरुतंमि " आसीय इक्खुभोती इक्खागा तेण खतिया होति" भन्निही । - आवश्यक चूर्णि, पृ० १५२ (ग) त्रिषष्ठि शलाका० १/२/६५४ से ६५६ । (घ) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पृ० ४८७ । (ङ) कल्पसूत्र, कल्पलता, समयसुन्दर जी, पृ० १६८ । कल्पार्थबोधिनीवृत्ति केसर० पृ० १४४ । (च) O (छ) कल्पद्र ुमकलिका पृ० १४३ । मणिसागर पृ० २९६ (ज) 11 पढमो अकालमच्चू तहि, तालफलेण दारको उ हतो । कन्नाय कुलगरोह य, सिट्ठ े गहिया उसभपत्ती ॥ Jain Education International " " - आव० नि० गा० १६०, म० वृ० १९३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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