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________________ १५४ ऋषभदेव : एक परिशीलन समान ही इनको भी पूर्ण ज्ञान था। ये धर्मोपदेश भी प्रदान करते थे। दूसरी श्रेणी के श्रमण मनः पर्यवज्ञानी, अर्थात् मनोवैज्ञानिक थे। ये समनस्क प्राणियों के मानसिक भावों के परिज्ञाता थे। इनकी संख्या बारह हजार, छह सौ, पचास थी।३०५ तृतीय श्रेणी के श्रमण अवधिज्ञानी थे। अवधि का अर्थ-सीमा है। अधिज्ञान का विषय केवल रूपी पदार्थ हैं। जो रूप, रस, गंध, और स्पर्श युक्त समस्त रूपी पदार्थों (पुद्गलों) के परिज्ञाता थे। इनकी संख्या नौ हजार थी।३०६ चतुर्थ श्रेणी के साधक वैक्रियद्धिक थे। अर्थात् योगसिद्धि प्राप्त श्रमण थे। जो प्रायः तप जप व ध्यान में तल्लीन रहते थे। इन श्रमणों की संख्या बीस हजार छह सौ थी।०७ पंचम श्रेणी के श्रमण चतुर्दश पूर्वी थे। ये सम्पूर्ण अक्षर ज्ञान में (ख) समवायाङ्ग, (ग) लोकप्रकाश, ३०५. उसभस्स एं० बारससहस्सा छच्च सया पन्नासा विउलमईणं अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्दे सु सन्नीरणं पंचिदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं पासमाणाणं उक्कोसिया विपुलमइसंपया होत्था। -कल्पसूत्र० सू० १६७, पृ० ५८-५६ (ख) समवायाङ्ग ३०६. उसभस्स रणं० नव सहस्सा ओहिनाणीणं उक्को० । -~~-कल्प० सू० १६७, पृ० ५८ (ख) समवायाङ्ग । (ग) लोकप्रकाश । ३०७. उसभस्स एं० वीससहस्सा छच्च सया वेउब्वियारणं उक्कोसिया। -कल्पसूत्र-सू० ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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