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________________ १८ ऋषभदेव : एक परिशीलन अभिग्रहों को ग्रहण कर अनासक्त बन भिक्षाहेतु ग्रामानुग्राम विचरण करते थे,१३८ पर भिक्षा और उसकी विधि से जनता अनभिज्ञ थी, अतः भिक्षा उपलब्ध नहीं होती थी। वे चार सहस्र श्रमण चिरकाल तक यह प्रतीक्षा करते रहे कि भगवान् मौन छोड़कर पूर्ववत् हमारी सुधबुध लेंगे, सुख सुविधा का प्रयत्न करेंगे, पर भगवान् आत्मस्थ रहे, कुछ नहीं बोले । वे द्रव्यलिंगधारी श्रमरण भूख-प्यास से संत्रस्त हो सम्राट भरत के भय से१४० पुनः गृहस्थ न बनकर वल्कलधारी तापस आदि हो गये ।१४१ वस्तुतः विवेक के अभाव में साधक साधना से पथभ्रष्ट हो जाता है। साधक जीवन भगवान् श्री ऋषभदेव अम्लान चित्त से, अव्यथित मन से भिक्षा के लिए नगरों व ग्रामों में परिभ्रमण करते । भावुक मानव १३८. उसभी वरवसभगई घेत्तूण अभिग्गहं परमघोरं । वोसट्टचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु ॥ --आवश्यक नियुक्ति गा० ३३८ १३६. न वि ताव जणो जाण इ का भिक्खा केरिसा व भिक्खयरा? --आवश्यक नि० गा० ३३६ (ख) जदि भिक्खस्स अतीति तो सामितो णे आगतोत्ति वत्थेहि आसेहि य हत्थीहि आभरणेहि कनाहि य निमन्तेत्ति । -आवश्यक चूणि पृ० १६२ १४०. भरतलज्जया गृहगमनमयुक्तम्, आहारमन्तरेण चासितुन शक्यते —आवश्यक नि० मल० पृ० २१६ (ख) जेण जणो भिक्खं ण जाणति दाउ तो जे ते चत्तारि सहस्सा भिक्खं अलभंता तेण मारणेण घरंपि ण वच्चन्ति भरहस्स य भएणं। -आवश्यक चूणि पृ० १६२ १४१. ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाता। ---आवश्यक नि० गा० ३३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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