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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव ३५ आप अन्य की चिकित्सा करते हैं, चिकित्सा करने में कुशल भी हैं, पर मुझे अत्यन्त परिताप है कि आपके अन्तर्मानस में दया की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित नहीं हो रही है। कृमिकुष्ठ रोग से ग्रसित मुनि को देखकर भी आप चिकित्साहेतु प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं । १०५ प्रत्युत्तर में जीवानन्द ने कहा-मित्र ! तुम्हारा कथन सत्य है ; १०५. सरिदोघ इव ग्रीष्मातपेन तपसा कृशः । कृमिकुष्ठाभिभूतस्य सोऽकालापथ्यभोजनात् ।। सर्वाङ्गीणं कृमिकुष्ठाधिष्ठितोऽपि स भेषजम् । ययाचे न क्वचित् कायानपेक्षा हि मुमुक्षवः ।। गोभूत्रिकाविधानेन, गेहाद् गेहं परिभ्रमन् । षष्ठस्थ पारणे दृष्टः, स तैर्निजगृहाङ्गणे ।। -त्रिषष्ठि १११ ७३२ से ७३६ वेज्जसुयस्स य गेहे किमिकुट्ठोवदुयं जई दर्छ। बॅति य ते विज्जसुयं करेहि एयस्स तेगिच्छं ।। -आवश्यकनियुक्ति गा० १७० (ख) आवश्यक चूणि पृ० १३२ (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६ ते वयंसया अन्नया कयाइ तस्स विज्जस्स घरे एगतो सहिया सन्निसन्ना अच्छन्ति, तत्थ साहू महप्पा किमिकुट्टण गहितो भिक्खानिमित्तमइगतो, तेहिं सप्पणयं सहासं सो विज्जो भण्णइ-तुम्भेहिं नाम सव्वो लोगो खाइयव्वो, न तुम्भेहि तवस्सिस्स वा अणाहस्स वा किरिया कायव्वा । -आवश्यक मल० वृ० पृ० १५८ महीधर कुमारेण, स किञ्चित् परिहासिना । जीवानन्दो निजगदे, जगदेकभिषक् ततः । अस्ति व्याधेः परिज्ञानं ज्ञानमस्त्यौषधस्य च । चिकित्साकौशलं चाऽस्ति, नास्ति वः केवलं कृपा ॥ ---त्रिषष्ठि ११७३७-७३८ (च) कल्पार्थ प्रबोधिनी पृ० २२१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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