SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन पर इस रोग की चिकित्सा के लिए जिन औषधियों की आवश्यकता है, वे मेरे पास नहीं हैं ।१०६ मित्रों ने कहा-बताइये किन-किन औषधियों की आवश्यकता है ? वे कहाँ पर उपलब्ध हो सकेंगी? हम मूल्य देंगे और जैसे भी होगा, लाने का प्रयास करेंगे। जीवानन्द ने कहा-रत्नकम्बल, गोशीर्षचन्दन, और लक्षपाक तैल । पूर्व की दो औषधियाँ मेरे पास नहीं हैं । १०० ___उसी क्षण वे पाँचों साथी औषध लाने के लिए प्रस्थित हुए। औषधियों की अन्वेषणा करते हुए एक श्रेष्ठी की विपरिण पर पहुँचे । १०८ श्रेष्ठी से औषधहेतु जिज्ञासा व्यक्त करने पर श्रेष्ठी ने १०६. सो भणइ-करेमि, किं पुण मम ओसहाणि काइवि नत्थि । -आवश्यक मल० वृ० पृ० १५८ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १३२ (ग) चिकित्सनीय एवाऽहो !, महामुनिरयं मया । औषधानामसामग्री, किन्तु यात्यन्तरायताम् ॥ -त्रिषष्टि० ११११७४५ १०७. ते भणन्ति अम्हे मोल्लं देमो, कि ओसह ? जाइज्जउ, सो भणइ कम्बलरयणं गोसीसचन्दणं, तइयं पुण जं सयसहस्सपागतेल्लं तं ममवि अत्थि। --आवश्यक मल० वृ० पृ० १५८ (ख) आवश्यकचूणि पृ० १३२ । (ग) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति पृ० ११६ । तत्रकं लक्षपार्क मे, तैलमस्तीह नाऽस्ति तु । गोशीर्षचन्दनं रत्नकम्बलश्चाऽऽनयन्तु तत् ॥ -त्रिषष्ठि १।११७४६ १०८. ताहे मग्गिउ पवत्ता, आगमियं च रोहिं जहा अमुगस्स वाणियगस्स अत्थि दोऽवि एयाणि, ते गया तस्स सगासं दो लक्खाणि घेत्तु । --आवश्यक मल० वृत्ति पृ० १५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy