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श्री ऋषभ पूर्वभव
समाधान करते हुए भगवान श्री महावीर ने कहा- "ऐसा कोई भी स्थल नहीं, जहाँ यह आत्मा न जन्मा हो , और ऐसा कोई भी जीव नहीं, जिसके साथ मातृ, पितृ, भ्रातृ, भगिनी, भार्या, पुत्र-पुत्री-रूप सम्बन्ध न रहा हो। गौतम को सम्बोधित कर भगवान श्री महावीर ने कहा-हे गौतम ! तुम्हारा और हमारा सम्बन्ध भी आज का नहीं, चिरकाल पुराना है। चिरकाल से तू मेरे प्रति स्नेह सद्भावना रखता रहा है। मेरे गुणों का उत्कीर्तन करता रहा है। मेरी सेवा भक्ति करता रहा है, मेरा अनुसरण करता रहा है। देव व मानव भव में एक बार नहीं, अपितु अनेक बार हम साथ रहे हैं। स्पष्ट है कि साधारण सांसारिक आत्मा की तरह ही श्रमण संस्कृति के आराध्यदेव तीर्थङ्कर व बुद्ध भी, तीर्थङ्कर व बुद्ध बनने के पूर्व, नाना गतियों में भ्रमरण करते रहे हैं। श्रमण संस्कृति ने ब्राह्मणासंस्कृति की तरह उन्हें नित्यबुद्ध व नित्यमुक्त रूप ईश्वर नहीं कहा है और न उन्हें ईश्वर का अवतार या अंश ही कहा है। उनका जीवन प्रारम्भ में कालीमाई की तरह काला था, उन्होंने साधना के साबुन से जीवन को माँजकर किस प्रकार निखारा, इसका विशद विश्लेषण प्रागम व आगमेतर साहित्य में किया गया है।
५. जाव किं सव्वपाणा उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असति अदुवा अणंतखुत्तो।
-भगवती सूत्र श० २, उ० ३ ६. जीवे सव्वजीवाणं माइत्ताए, पियत्ताए, भाइत्ताए, भगिणित्ताए, भज्जत्ताए, पुत्तत्ताए, धूयत्ताए, सुण्हत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो ।
--भगवती शतक १२, उद्द० ७ ७. समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-चिरसंसिट्ठोऽसि
मे गोयमा ! चिरसंथुओऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचिमोऽसि मे गोयमा ! चिरजुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा ! चिरागुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सए भवे किं परं........ ।
--भगवती शत० १४, उ०७
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